मैं ऐसे किसी शख्स को नहीं जानता, जो आतंकवाद के मास्टरमाइंड अल-क़ायदा के मुखिया अयमान अल-जवाहिरी के मारे जाने पर आंसू बहा रहा हो. लेकिन आतंकवादियों की हत्या करने की अमेरिकी नीति पर कई सवाल उठते हैं, जो हम भारतीयों को भी परेशान करने चाहिए.
लेकिन पहले बात इस हत्या की. अल-जवाहिरी काबुल में अपने घर में दो अमेरिकी मिसाइलों (संभवतः हेलफायर मिसाइलों) के हमले में मारा गया. वह अपने पुराने दोस्तों तालिबान की नाक के नीचे छिपा हुआ था. अमेरिका जब अफगानिस्तान से हटा था तब उसने दुनिया से कहा था कि तालिबान ने उसे आश्वस्त किया है कि वे काबुल को आतंकवादियों का सुरक्षित पनाहगाह नहीं बनने देंगे. लेकिन इतिहास तो कई तरह से खुद को दोहरा ही लेता है. जैसे ओसामा बिन लादेन एबटाबाद में छिपा था (संभवतः अमेरिका के अहम साथी पाकिस्तान की मिलीभगत से) उसी तरह अल-जवाहिरी को उन लोगों ने शरण दी थी जिसके बारे में अमेरिका ने हमें बताया था कि वे वास्तव में उतने बुरे नहीं हैं.
जवाहिरी काबुल में खुद को कितना महफूज मान रहा था यह अमेरिका से दी गई इस सूचना से पता चलता है कि वह अपनी बालकनी में लंबे समय तक देखा गया और उसे सड़क से और आसमान से भी साफ-साफ देखा जा सकता था. लादेन ने सबकी नज़रों से बचकर रहने की कोशिश की थी.
सबूत संकेत देते हैं कि अफगानिस्तान अब अल-क़ायदा की गतिविधियों का केंद्र बन रहा है. पाकिस्तान में आतंकवादी ढांचे के बारे में हमें पहले से ही जानकारी है. इसका अर्थ यह हुआ कि भारत की सीमाओं पर आतंकवाद समर्थक दो देश मौजूद हैं.
पिछले साल पाकिस्तान अपने आंतरिक मसलों में उलझा रहा इसलिए भारत में आतंकवादी वारदात कम हुए. हालांकि अमेरिका पाकिस्तान के इस तर्क को आधिकारिक तौर पर कबूल करता है कि आतंकवादी कांड उसकी आस्तीन में छिपे ‘सांप’ करते हैं, जो किसी देश के नागरिक नहीं हैं. लेकिन भारत का कोई खुफिया अधिकारी इस बात पर यकीन नहीं करता कि आतंकवादी हमले सरकार द्वारा प्रायोजित या प्रोत्साहित नहीं होते. इसलिए पाकिस्तान में जब मामला सुलट जाएगा तब हमले फिर शुरू हो जाएंगे. पिछले दो दशकों से ऐसा ही होता रहा है.
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आतंकवादियों के लिए अमेरिकी जवाब
तो, कोई देश अपनी सीमा के पार से आतंकवाद के खतरे का कैसे सामना करे? इस सवाल के दो जवाब हैं. पहला जवाब वह है जो अमेरिका पूरी दुनिया को देता रहा है- हम दूसरे देशों पर भरोसा करें कि वे अपने यहां आतंकवादियों को पकड़ेंगे. हम कूटनीतिक दबाव का इस्तेमाल करें, आदि-आदि.
अमेरिका भारत को यही जवाब देता रहा है. 1999 में जब तालिबान ने आईसी-814 विमान का आईएसआई की मदद से अपहरण करवाया था तब अमेरिका को बहुत चिंता नहीं हुई थी. विमान यात्रियों की जान बचाने के लिए भारत ने जब खतरनाक आतंकवादियों को मजबूरन रिहा कर दिया था तब अमेरिका को कोई फर्क नहीं पड़ा था.
2008 में जब मुंबई में हमले हुए थे तब अमेरिका ने भारत को संयम रखने की सलाह दी थी. पाकिस्तान के खिलाफ भारत की जवाबी कार्रवाई की आशंका में अमेरिका ने उसे तनाव न बढ़ाने की चेतावनी दी थी और आश्वासन दिया था कि हमला करने वालों को पकड़ने में पाकिस्तान सहयोग करेगा.
अमेरिका जो जवाब हमें देता है वही जवाब बाकी दुनिया को देता है.
वह एक तरह का जवाब तब देता है जब उसके अपने हित खतरे में पड़ते हैं. 9/11 के हमलों के बाद उसने तालिबान से कहा था कि वे ओसामा बिन लादेन उसे सौंप दें. तालिबान ने इससे मना कर दिया तो अमेरिका ने अफगानिस्तान पर जोरदार हमला कर दिया और तालिबान को वहां से भगाकर उस देश को अपने कब्जे में कर लिया.
जब आईएसआई और दूसरे आतंकवादी गिरोहों ने अमेरिका के खिलाफ हमला जारी रखा तो उसने उनके अड्डों को नष्ट करने के लिए ड्रोन से हमले किए. बाद में उसने आतंकवादियों के बारे में जानकरियों का तथाकथित ‘डिस्पोजीशन मैट्रिक्स’ तैयार किया, जो ‘कत्ल सूची’ के नाम से जाना गया. खतरनाक माने गए व्यक्तियों की यह सूची राष्ट्रपति को नियमित तौर पर भेजी जाने लगी. ऐसी पहली सूची पाने वाले राष्ट्रपति थे बराक ओबामा. राष्ट्रपति अपने अधिकारियों को निर्देश देता है कि किसे मार डालना है. राष्ट्रपति से मंजूरी मिलते ही अमेरिका अपने निशाने पर मिसाइल, ड्रोन (लादेन के मामले में) से हमला शुरू कर देता है या जमीनी कार्रवाई करता है.
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सबके लिए एक कानून
यहां सबसे पहले नैतिकता का मसला खड़ा होता है. अमेरिकी राष्ट्रपति को जज, जूरी और जल्लाद, तीनों किसने बना दिया? अगर यह मान भी लिया जाए कि जरूरी प्रक्रिया का पालन किया जाता है (जो बेशक मुमकिन नहीं दिखता क्योंकि आरोपित व्यक्ति को अपना बचाव करने का कोई अधिकार नहीं दिया जाता) तब भी क्या नैतिकता का सवाल नहीं उठता? क्या निर्वाचित सत्ताधारी किसी की हत्या का फरमान जारी कर सकता है?
अमेरिका पहले भी यह कर चुका है. 1970 के दशक में जब यह खुलासा हुआ कि सीआईए विश्व नेताओं और दूसरी हस्तियों की हत्याओं की कोशिशों में शामिल रहा है, तब भारी शोर मचा था और अमेरिकी कांग्रेस में तूफान खड़ा हो गया था. आज मिजाज एकदम उलट गया है लेकिन अमेरिका यह तर्क नहीं दे सकता कि इसमें नैतिकता का कोई मसला नहीं जुड़ा है.
इसके अलावा, एक बुनियादी मसला भी है. अमेरिका के लिए एक कानून और बाकी दुनिया के लिए अलग कानून.
मैं यह नहीं कह रहा कि अमेरिका आतंकवादियों को मार कर गलत ही कर रहा है. मैं बता सकता हूं कि अब अमेरिका में आतंकवादी हमले कम क्यों हो रहे हैं. (लेकिन हम यह न भूलें कि भारत में जब पुलिस भी यह तय करती है कि किसका सफाया करना है, तब दुनिया भर में शोर मचने लगता है कि यहां फर्जी ‘एनकाउंटर’ किए जा रहे हैं.)
मेरा सवाल यह है कि अगर हत्या ही आतंकवाद को खत्म करने का असरदार तरीका है, तो बाकी देश अमेरिकी तरीके पर अमल क्यों नहीं कर सकते?
जबकि पाकिस्तान और अफगानिस्तान हमारे दरवाजे पर ही खड़े हैं और लंबे समय से हम आतंकवादी हमलों से नुकसान उठा रहे हैं तो हम सीधी जवाबी कार्रवाई क्यों नहीं कर सकते और तब अमेरिका खुदमुख्तार न बने और अपनी नाराजगी न जाहिर करे?
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बातचीत भारत के लिए जरूरी
मुंबई पर हमलों के करीब डेढ़ दशक बाद भी उसके साजिशकर्ता आज़ाद हैं. आईसी-814 अपहरण कांड के बाद हमने जिन आतंकवादियों को रिहा किया उन्हें पाकिस्तान ने हमें नहीं सौंपा, अपहरण करने वाले तो पाकिस्तान सरकार की मिलीभगत से वहां रह रहे हैं. बालाकोट मामले में हमने एक तरह से जवाबी कार्रवाई की लेकिन उसके अलावा बाकी मामलों में हमें ऐसा कुछ भी करने से रोका जाता रहा है, जो खुद अमेरिका करता रहा है.
मैं कहता रहा हूं कि आतंकवाद से लड़ने का एकमात्र तरीका उसके खिलाफ जवाबी हमला नहीं, तो गुप्त कार्रवाई जरूर है. तालिबान या पाकिस्तानी फौज से इंसाफ की उम्मीद मूर्खता ही होगी. आतंकवादी हमले फिर शुरू होंगे ही, तब भारत में हमें ऐसी चर्चा करने की जरूरत पड़ेगी.
हम वह न करें जो अमेरिका कहता है, हम वह करें जो अमेरिका करता है.
(वीर सांघवी भारतीय प्रिंट और टीवी पत्रकार, लेखक और टॉक शो होस्ट हैं. उनका ट्विटर हैंडल @virsanghvi है. व्यक्त विचार निजी हैं)
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