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Tuesday, 19 November, 2024
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धुनों पर गीत लिखने वाले गीतकार योगेश जिनके गाने जीवन के उतार-चढ़ाव से टकराते हैं

योगेश ने ज्यादातर अपने गीत संगीतकारों द्वारा दिए गए धुनों पर लिखे. आनंद से मिली सफलता के बाद उनके गीतों ने रजनीगंधा, छोटी सी बात, मंजिल, मिली, बातों बातों में जैसी फिल्मों में जान फूंक दी.

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सिनेमा हमारे जीवन में धीरे-धीरे दाखिल होता है लेकिन उससे पहले हमारा मन गीतों का संसार बनाता चलता है. कभी ये जानकर हम चौंक जाते हैं कि आखिर ये गीत इसी फिल्म का है लेकिन गानों की तासीर दिलो-दिमाग के साथ शरीर को भी अलग धुन में बांधती चलती है.

हिंदी सिनेमा के गीतों की भी अपनी लंबी और समृद्ध परंपरा रही है. एक से बढ़कर एक शायर-गीतकार हुए हैं जिन्होंने जीवन को शब्दों के जरिए इस ढंग से उतारा, मानो गीत ही पूरी चलचित्र बनाती चलती हो. इन गीतों की परंपरा में देशज ठसक है, हिंदुस्तानी जबान की थाती है, शब्दों की गहनता है वहीं जीवन के सभी पहलू भी हैं.

साहिर लुधियानवी, कैफी आज़मी, शैलेंद्र, मजरूह सुल्तानपुरी समेत अनगिनत गीतकारों ने सिनेमा और गीत पसंद लोगों को जो सुखन दिया है, उसे उनके बाद के भी कई गीतकारों ने सलीके से आगे बढ़ाया जिनमें गुलज़ार हों, आनंद बख्शी हों या योगेश.

1970 के करीब और उसके बाद के दशक का भारतीय सिनेमा या खासकर हिंदी सिनेमा में काफी आमूलचूल बदलाव हुए. विषय आधारित फिल्मों ने जोर पकड़ना शुरू किया तो गीतों की दुनिया भी बदलती चली गई. इन्हीं बदलावों में गुलज़ार, आनंद बख्शी और योगेश तीन ऐसे बड़े नाम हैं जिन्होंने उम्दा गीतकारी की. जिनके गीत आज भी कहीं बजते हैं तो एक सुखन भरा ठहराव महसूस होने लगता है.

लेकिन आज बात योगेश की जिन्होंने तहज़ीब के शहर लखनऊ से निकलकर मुंबई तक का संघर्ष भरा सफर तय किया और मायानगरी में गीतकार के तौर पर खुद को स्थापित किया.


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लखनऊ से मुंबई तक का संघर्ष

योगेश का जन्म 19 मार्च 1943 को उत्तर प्रदेश के लखनऊ में हुआ. उनके पिता सरकारी मुलाजिम थे लेकिन उनकी असमय मृत्यु के बाद उन पर ही घर की सारी जिम्मेदारी आ गई.

पिता के निधन के कुछ समय बाद ही तकरीबन 16 साल की उम्र में ही योगेश ने मुंबई जाकर काम करने का मन बनाया क्योंकि वहां उनके एक रिश्तेदार योगेंद्र गौर पहले से ही बॉलीवुड में स्क्रीनप्ले राइटर के तौर पर काफी सफल हो चुके थे. लेकिन जब योगेश उनके पास काम की तलाश में गए तो उन्हें असफलता हाथ लगी.

लेकिन योगेश के एक मित्र सत्य प्रकाश, जो उनके साथ ही मुंबई गए थे उन्होंने यहीं रहकर काम करने को कहा. सत्य प्रकाश ने योगेश से कहा कि वो सिर्फ फिल्मी लाइन में ही काम करें. उनकी इस मित्र के साथ आजीवन दोस्ती बनी रही.

योगेश को पहला मौका 1962 में सखी रॉबिन फिल्म में मिला जिसमें उन्होंने छह गाने लिखे. इस फिल्म में उनका लिखा एक गाना- तुम जो आ जाओ तो प्यार आ जाए, जिंदगी में बहार आ जाए, मन्ना डे ने गाया था. जिसके बाद योगेश और मन्ना डे में काफी आत्मीय रिश्ता बन गया था.

लेकिन उसके बाद भी उन्हें लिखने को गाने नहीं मिल रहे थे और संघर्ष का सफर लंबे वक्त तक जारी रहा.


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‘आनंद’ से चमका सितारा

बीते कुछ दिनों पहले एक खबर आई कि आनंद फिल्म का रीमेक बनने जा रहा है. इस घोषणा पर काफी सारी प्रतिक्रियाएं आ रही हैं क्योंकि इस कालजयी फिल्म को लेकर हर पीढ़ी के लोगों के अपने-अपने अनुभव हैं.

1971 में ऋषिकेश मुखर्जी के निर्देशन में बनी आनंद जब रिलीज हुई तो इसके गानों ने काफी लोकप्रियता हासिल की. योगेश ने भी इस फिल्म में दो गाने लिखे- कहीं दूर जब दिन ढल जाए और जिंदगी कैसी है पहेली. इन दोनों ही गीतों का असर आज तक लोगों पर है. सामान्य शब्दों में कहा जाए तो जीवन के दर्शन और यायावरी को उन्होंने बखूबी उतारा है.

योगेश ने एक इंटरव्यू में बताया कि जब ये फिल्म रिलीज़ हुई तो इसमें लिरिक्स लिखने वालों का नाम ही शामिल नहीं किया गया लेकिन बाद में गुलजार और उनका नाम जोड़ दिया गया.

इस फिल्म से जुड़ी योगेश की एक और दिलचस्प कहानी है. आनंद के संगीतकार सलिल चौधरी धुनों पर गीत लिखवाते थे. उन्होंने फिल्म के लिए गुलज़ार और योगेश दोनों को एक धुन पर गीत लिखने को दिया लेकिन सलिल दा को गुलज़ार का गीत ज्यादा पसंद आया. ये गीत था- ना जिया लागे ना.

योगेश की मेहनत को देखते हुए सलिल दा ने उन्हें दूसरी धुन दी (बंगाली धुन) जिसपर उन्होंने जिंदगी कैसी है पहेली जैसा अद्भुत गीत रचा. राजेश खन्ना पर फिल्माए गए इस गीत के दृश्य अपने आप आंखों के सामने उभरकर आ जाते हैं.


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एस डी बर्मन और बासु चटर्जी के फैन थे योगेश

आनंद फिल्म में बेहतरीन गीत लिखने के बाद योगेश को काफी काम मिलने लगा लेकिन उनकी तमन्ना थी कि वे एसडी बर्मन (दादा) के साथ काम करें. लेकिन दादा से उनका संपर्क नहीं हो पा रहा था.

1969 में आई बासु चटर्जी की फिल्म सारा आकाश ने योगेश को काफी प्रभावित किया था जिसके बाद वो उन्हें काफी पसंद करने लगे थे. योगेश के अनुसार, ‘बासु चटर्जी ने एक दिन मुझे बुलाया और कहा कि उस पार फिल्म करने के लिए दो संगीतकार हैं. एक एसडी बर्मन और दूसरे लक्ष्मीकांत प्यारेलाल. तुम बताओ किसके साथ काम करना है.’

ये सुनकर योगेश खुश तो हुए लेकिन दादा से मिला कैसे जाए ये बात उन्हें परेशान कर रही थी. योगेश ने एक इंटरव्यू में कहा था, ‘मैंने एक दिन मन्ना डे को फोन लगाया और उनके सामने सारी स्थिति रखी. उन्होंने कहा कि लक्ष्मीकांत तुमको बहुत मिल जाएगा लेकिन दादा कैसे मिलेगा.’

मन्ना डे ने बात कर के दादा को योगेश से मिलवाया. दादा ने उनसे कहा था, ‘हम लिखवाएगा तुमसे लेकिन पसंद नहीं आएगा तो भगा देगा. तो इधर (दिल) में मत लेना.’  उसके बाद उस पार फिल्म में योगेश ने एसडी बर्मन की धुन पर एक गीत लिखा- तुमने पिया दिया मुझको सबकुछ, अपना प्रीत देके. ये गीत गुलज़ार के गीत- मुझे श्याम रंग देअ देअ, से काफी प्रेरित था.

योगेश के मुताबिक ऋषिकेश मुखर्जी जब चुपके-चुपके फिल्म बना रहे थे तो उसमें संगीत एसडी बर्मन का ही था. शुरुआत में तो दादा ने उन्हें रिकॉर्डिंग्स में बुलाया लेकिन बाद में फिल्म के गीत आनंद बख्शी से लिखवा लिए जिसके बाद एक साल तक दादा और योगेश के बीच बात नहीं हुई.

इसके बाद 1975 में आई ऋषिकेश मुखर्जी की फिल्म मिली में योगेश ने फिर से एसडी बर्मन के साथ काम किया लेकिन उसी बीच दादा का निधन हो गया जिस कारण दोनों का साथ लंबा नहीं चल पाया.


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धुनों पर गीत लिखने वाला गीतकार

योगेश ने ज्यादातर अपने गीत संगीतकारों द्वारा दिए गए धुनों पर लिखे. आनंद से मिली सफलता के बाद उनके गीतों ने रजनीगंधा, छोटी सी बात, मंजिल, मिली, बातों बातों में जैसी फिल्मों में जान फूंक दी.

योगेश के गीत एक तयशुदा लीक पर चलने वाले नहीं हैं. उनके गीत जीवन के उतार-चढ़ाव से टकराते हैं, उनसे जूझते हैं, उनका सामना करते हैं और उस हकीकत को परत-परत लाकर सामने रख देते हैं.

योगेश को शैलेंद्र की लेखनी काफी पसंद थी. वे मानते थे कि जिंदगी की महीन बातें वो आसानी से लिख दिया करते थे. लेकिन योगेश के गीतों में एक अलग तरह का दर्शन है. तभी तो वो इस तरह लिख पाए-

मेरे ख्यालों के आंगन में
कोई सपनों के दीप
जलाए दीप जलाये
कहीं तो यह दिल
कभी मिल नहीं पाते
कहीं पे निकल
आये जन्मों के नाते

आनंद फिल्म का ये गीत जिंदगी की असल हकीकत को बेहतरीन ढंग से सामने लाता है.

जिंदगी कैसी है पहेली हाय
कभी तो हसाए कभी यह रुलाये
जिंदगी कैसी है पहेली हाय
कभी तो हसाए कभी यह रुलाये

योगेश अपने लेखन से जीवन की मृगतृष्णा को भी छू जाते हैं. जीवन के ऊहापोह की स्थिति में इंसानी जज्बात का ये गीत भला किसे पसंद नहीं होगा:

कई बार यूं भी देखा है
ये जो मन की सीमा रेखा है
मन तोड़ने लगता है
अंजानी प्यास के पीछे
अंजानी आस के पीछे
मन दौड़ने लगता है

छोटी सी बात फिल्म का ना जाने क्यों होता है ये जिंदगी के बाद, मिली फिल्म के आए तुम याद मुझे और बड़ी सूनी सूनी है, गीत भी योगेश के काफी लोकप्रिय हुए हैं. योगेश की गीतकारी में उदासी पर लिखा एक बेहतरीन गाना भी है- कहां तक के मन को अंधेरे छलेंगे.

योगेश के जीवन के आखिरी के कुछ साल ऐसे ही उदासी भरे बीते और जिस सम्मान के वे हकदार थे उन्हें वो नहीं मिल पाया. और 29 मई 2020 को मुंबई में 77 साल की उम्र में उनका निधन हो गया. लेकिन उनके गीत आज भी दुख हो या सुख, हर वक्त हमारे बीच एक नज़ीर बनकर रहेंगे जिन्हें हम वक्त-बेवक्त सुनते रहेंगे. और खासकर जब मई और जून में मानसून आने वाला हो तो मंजिल फिल्म का उनका गीत रिमझिम गिरे सावन भला किसे याद नहीं आएगा.


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