नई दिल्ली: पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 1982 में हुए गढ़वाल उपचुनाव के दौरान 34 जनसभाओं को संबोधित किया और एक लोकसभा क्षेत्र में 62 मंत्रियों को तैनात करने के साथ ही मतदान की तारीख भी एक साल में तीन बार बदली गई – और यह सब हुआ सिर्फ यूपी के नौवें मुख्यमंत्री एच.एन. बहुगुणा को हराने के लिए.
ये बहुगुणा की बेटी और इलाहाबाद की सांसद रीता बहुगुणा जोशी, जो 2017 के विधानसभा चुनावों से पहले कांग्रेस छोड़ भाजपा में शामिल हो गईं थीं, द्वारा अपने पिता के बारे में लिखी गई एक किताब में साझा किए गए कुछ उदाहरणों में से हैं,
‘हेमवती नंदन बहुगुणा- ए पोलिटिकल क्रूसेडर’ नाम की इस पुस्तक का उपराष्ट्रपति एम. वेंकैया नायडू द्वारा बुधवार को दिल्ली में विमोचन किया जाएगा. अन्य बातों के अलावा, यह उस वाकये के बारे में विस्तार से बताने की कोशिश करती है जिसे जोशी ने हेमवती नंदन बहुगुणा – जिनका कांग्रेस के साथ कभी खट्टे-कभी मीठे वाले संबंध थे– के पीछे पड़ने के लिए इंदिरा गांधी और उनकी करीबी मंडली (‘कॉकस’) के एक अभियान के रूप में वर्णित किया है.
भारत छोड़ो आंदोलन में भाग लेने के लिए जेल में बंद रहे एक स्वतंत्रता सेनानी नेता बहुगुणा ने साल 2000 में उत्तर प्रदेश के विभाजन से दशकों पहले केंद्रीय मंत्री रहने के साथ-साथ भारत के इस सबसे अधिक आबादी वाले राज्य के मुख्यमंत्री के रूप में भी कार्य किया थे. मार्च 1989 में उनका निधन हो गया था.
जोशी की किताब के मुताबिक इंदिरा को अक्सर वी.पी. सिंह – पूर्व प्रधानमंत्री और यूपी के पूर्व मुख्यमंत्री जिनका बाद में स्वयं कांग्रेस से मतभेद हो गया था – और इंदिरा के तहत केंद्रीय मंत्री रहे राजेंद्र कुमारी बाजपेयी द्वारा अक्सर बरगलाया जाता था कि बहुगुणा स्वयं प्रधानमंत्री बनने को इच्छुक थे.
इसी किताब में किया गया एक और उल्लेखनीय दावा यह है कि श्रीमती इंदिरा गांधी, पूर्व प्रधानमंत्री और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे चौधरी चरण सिंह की पत्नी गायत्री देवी को गिरफ्तार करना चाहती थीं, लेकिन बहुगुणा ने इस आज्ञा का पालन करने से इनकार कर दिया.
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कैसे मुख्यमंत्री बने बहुगुणा?
बहुगुणा साल 1973 में यूपी प्रोविंशियल आर्म्ड कांस्टेबुलरी (पीएसी) की तीन बटालियनों के विद्रोह के बाद लगाए गए राष्ट्रपति शासन के एक दौर के उपरांत मुख्यमंत्री बने थे.
इस विद्रोह के कारण 30 से अधिक पुलिस कर्मियों और सैनिकों की मौत हो गई थी और अंततः इसे नियंत्रित करने के लिए सेना को बुलाया गया था.
इस सारे प्रकरण ने यूपी के तत्कालीन कांग्रेसी मुख्यमंत्री कमलापति त्रिपाठी की छवि को बुरी तरह से छति पहुंचाई थी, जिन्होंने इस विद्रोह के मद्देनजर अपना इस्तीफा दे दिया था.
कांग्रेसी ‘कॉकस’
इस किताब में आरोप लगाया गया है कि समय के साथ, इंदिरा के इर्द-गिर्द एक कॉकस – जिसमें पी.एन. हक्सर (उनके प्रमुख सचिव), डी.पी. मिश्रा (मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री), उमा शंकर दीक्षित (1973-74 में केंद्रीय गृह मंत्री), चंद्रजीत यादव (इंदिरा के कैबिनेट में केंद्रीय मंत्री), वी.पी. सिंह और बाजपेयी शामिल थे – ने उन्हें बहुगुणा के खिलाफ उकसाया, जो कुछ खास कारकों के कारण पार्टी के सदस्यों के बीच अलोकप्रिय थे.
उन्होंने ‘भूमि बाड़ अधिनियम’ के निष्पादन के लिए कमलापति त्रिपाठी द्वारा गठित एक विशेषज्ञ समिति की पूरी की पूरी रिपोर्ट प्रकाशित कर दी थी, जिसके बारे में यह पुस्तक कहती है कि इसने इस कानून का उल्लंघन करने वाले कुछ कांग्रेसियों का नाम भी ‘उजागर’ किया था .
इस पुस्तक के अनुसार, एक और कारण, जिसने संजय गांधी को काफी नाराज किया, वह था उद्योगपति के.के. बिड़ला को 1974 में राज्यसभा के लिए चुने जाने में बहुगुणा का द्वारा किया गया असहयोग. इस पुस्तक में कहा गया है कि बहुगुणा ने, अपने ‘सर्वहारा वाले झुकाव की वजह से’, बिड़ला की उम्मीदवारी का विरोध किया. बिड़ला ने एक निर्दलीय के रूप में अपना नामांकन दाखिल किया था, मगर उन्हें कांग्रेस का समर्थन प्राप्त था.
इस किताब में आगे कहा गया है कि इंदिरा गांधी के सचिव यशपाल कपूर स्वयं मुख्यमंत्री के अतिथि गृह (गेस्ट हाउस) से बिड़ला के लिए प्रचार कर रहे थे, जबकि बहुगुणा उस वक्त इलाज के लिए दिल्ली में थे.
जोशी की किताब में दावा किया गया है कि लखनऊ पहुंचने के बाद उन्होंने कपूर से कोई ‘वैकल्पिक व्यवस्था’ करने को कहा था.
कपूर ने कथित तौर पर इंदिरा और संजय गांधी से इस बात की शिकायत की थी. इसके बाद इस किताब में बिड़ला की आत्मकथा का हवाला देते हुए बताया गया है कि उस वक्त क्या हुआ जब बिड़ला अपनी हार के बाद इंदिरा और संजय से मिलने गए. घटना के इस वर्णन के अनुसार, संजय गांधी ने कथित तौर पर बिड़ला से कहा कि बहुगुणा ने इंदिरा को ‘धोखा’ दिया था.
किताब में दावा किया गया है कि इंदिरा गांधी ने इस पर कहा, ‘उन्होंने न केवल आपके साथ बुरा व्यवहार किया है, बल्कि मुझे भी धोखा दिया है.’
किताब में कहा गया है कि बहुगुणा द्वारा संजय गांधी को ‘दखल अंदाजी’ करने की मंजूरी दिए जाने से इनकार करना उनके खिलाफ काम कर गया.
जोशी एक अन्य घटना का भी हवाला देती हैं जब संजय गांधी ने कथित तौर पर बहुगुणा को रायबरेली के जिला मजिस्ट्रेट का तबादला करने के लिए कहा था, और बहुगुणा ने इस आदेश की अनदेखी कर दी थी.
किताब कहती है कि रिश्तों में लगातार खटास आ रही थी. आपातकाल की घोषणा के बाद, इंदिरा चाहती थीं कि चरण सिंह की पत्नी गायत्री देवी को गिरफ्तार किया जाए, लेकिन बहुगुणा ने कथित तौर पर ऐसा करने से इनकार कर दिया था.
चरण सिंह ने इंदिरा के खिलाफ बगावत कर दी थी और उस समयकाल के दौरान इंदिरा के खिलाफ आंदोलन का नेतृत्व करने वाले एक प्रमुख विपक्षी नेता थे.
जोशी लिखती हैं, ‘जब साल 1975 में इलाहाबाद हाई कोर्ट के न्यायाधीश जगमोहन लाल सिन्हा ने राज नारायण की याचिका पर फैसला देते हुए इंदिरा को सत्ता से बेदखल कर दिया था, तो बहुगुणा सीनियर और उनके बेटे विजय बहुगुणा ही वह आदेश लेकर इंदिरा के आवास पर पहुंचे थे.’
जोशी लिखती हैं ‘कॉकस वहीँ बैठा था. तत्कालीन रक्षा मंत्री बंसीलाल ने व्यंग्यात्मक टिप्पणी करते हुए कहा, ‘बहुगुणा जी, आपने यह क्या किया? अगर यह सब हरियाणा में होता, तो हम यह इस बात का ख्याल करते कि श्रीमती गांधी कभी नहीं हारतीं.’
किताब में इस बारे में दावा किया गया है कि बहुगुणा ने इसपर पलटवार करते हुए कहा कि ‘इसीलिए हमारे पास इलाहाबाद से एक प्रधानमंत्री है … हम न्यायिक प्रक्रिया में कभी हस्तक्षेप नहीं करते हैं.’
लेखिका का कहना है कि बहुगुणा के अलावा, बाबू जगजीवन राम ने भी इंदिरा को कुछ समय के लिए उनके भरोसेमंद स्वर्ण सिंह को (प्रधानमंत्री का) पद सौंपने की सलाह दी थी, लेकिन ‘उन्होंने इस सलाह की कद्र नहीं की’.
बल्कि, उनके चेलों ने उन्हें आपातकाल घोषित करने के लिए राजी कर लिया. लेखिका आगे लिखती हैं ‘जिस दिन आपातकाल लगाया गया था, उन्होंने (एच.एन. बहुगुणा ने) श्रीमती गांधी को फोन किया और कहा ‘इंदिरा जी आपने क्या किया है? आप बाघ की सवारी कर रही हैं, जब आप इससे उतरेंगी तो क्या होगा?’
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‘इंदिरा बनाम बहुगुणा’
किताब में शामिल किये गए एक अध्याय में बताया गया है कि किस तरह इंदिरा गांधी ने बहुगुणा द्वारा कांग्रेस से इस्तीफा देने के बाद 1982 में गढ़वाल लोकसभा सीट से चुनाव लड़ने के दौरान उन्हें हराने के लिए हर संभव तिकड़म की थी.
किताब कहती है कि मई 1980 में उनके द्वारा पार्टी से इस्तीफे के बाद की घटनाएं अभूतपूर्व थीं.
26 मई 1981 को चुनाव आयोग ने वहां होने वाले मतदान के लिए पहली अधिसूचना जारी की, जिसमें कहा गया कि मतदान की तारीख 14 जून थी. लेकिन वहां बड़े पैमाने पर धांधली हुई और – अपनी तरह के पहले उदाहरण में – आयोग ने सारा चुनाव ही रद्द कर दिया तथा पुनर्मतदान के आदेश दिए.
पुस्तक में कहा गया है कि इसके बाद आयोग ने लगातार तारीखें बदलीं – पहले 30 सितंबर 1981, फिर 22 नवंबर 1981 और अंततः 19 मई 1982.
किताब में आरोप लगाया गया है कि वी.पी.सिंह, जो उन दिनों यूपी के मुख्यमंत्री थे, ने इंदिरा के निर्देश पर चुनाव स्थगित करने के लिए अपने सारे प्रभाव का इस्तेमाल कर डाला.
पुस्तक में उद्धृत आधिकारिक रिकॉर्ड के अनुसार, अंत में, मतदान के दिन, उस निर्वाचन क्षेत्र में 15,675 पुलिसकर्मियों को तैनात किया गया था.
किताब आगे कहती है कि हरियाणा के तत्कालीन मुख्यमंत्री भजन लाल ने बूथों पर कब्जा करने के लिए यूपी के इस निर्वाचन क्षेत्र में हरियाणा पुलिस को तैनात किया, जिसका उल्लेख चुनाव आयोग ने भी अपनी एक रिपोर्ट में किया था.
दिप्रिंट से बात करते हुए, जोशी ने कहा, ‘इंदिरा बहुगुणा की बढ़ती लोकप्रियता को लेकर बड़े गुस्से में थीं.’
वे कहती हैं, ‘इंदिरा की करीबी मंडली बहुगुणा और अन्य क्षत्रपों के खिलाफ उनको भड़काते रहती थी. संजय गांधी ने अपना दबदबा कायम रखा, जिसे बहुगुणा ने नजरअंदाज कर दिया, लेकिन उस जमाने में राजनीति कुछ और ही थी.’
जोशी ने कहा कि उन्होंने नेहरू मेमोरियल संग्रहालय और पुस्तकालय को बहुगुणा द्वारा लिखे गए हजारों पत्र दिए थे, और यह पुस्तक उस युग के पत्राचार और पत्रों पर आधारित है, जो ‘इंदिरा के कामकाज के बारे में कई प्रामाणिक तथ्यों को उजागर करती है.’
उन्होंने कहा, ‘उस ज़माने में, आज की तरह क्षेत्रीय दलों का इतना मजबूत उद्भव नहीं हुआ था. आज की तुलना में नेताओं के बीच कहीं अधिक व्यक्तिगत संपर्क होता था. राजनीति पूरी तरह बदल चुकी है. पर आखिरकार, राजनीति सत्ता के बारे में है, जो कभी नहीं बदलती.’
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