डेनियाया: मतारा जिले के टी स्मॉलहोल्डर्स एसोसिएशन ऑफ डेनियाया के कोषाध्यक्ष धुमिंडे भारत में खाद की रियायती कीमतें जानकर काफी हैरान हैं.
‘यूरिया की कीमत अभी कितनी है?’ वह किसी से पूछ रहे थे और फिर तेजी से फोन पर ही हिसाब-किताब लगाने लगते हैं. ‘बहुत खूब! शायद मैं भारत से आयात करना शुरू कर दूं.’
श्रीलंका के दक्षिणी प्रांत में स्थित डेनियाया शहर चाय का गढ़ है लेकिन धुमिंडे और श्रीलंका का चाय बागान उद्योग संघर्ष कर रहा है. पहले अप्रैल 2020 में सभी रासायनिक फर्टिलाइज़र पर अचानक से प्रतिबंध लगा दिया गया था. जिससे फसल उत्पादन में तेजी से गिरावट आई. अकेले चाय उत्पादन में गिरावट से अनुमानित 425 मिलियन डॉलर का नुकसान हुआ है. पहले से चलती आ रही फर्टिलाइज़र की कमी और बढ़ते दामों की वजह खेती से जुड़े लोगों को खासी मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है. मौजूदा समय में फर्टिलाइज़र उन लोगों के लिए भी उपलब्ध नहीं है जिन्हें इसकी जरूरत है.
श्रीलंका में फर्टिलाइज़र की कीमतें 1,500 रुपए से बढ़कर 16,000 रुपए हो गई है. ये बेतहाशा बढ़ती कीमतें चाय उद्योग में काम करने वाले और सामान्य रूप से खेती करने वालों को एक अनौपचारिक प्रतिबंध की तरह महसूस करने के लिए मजबूर कर रही है. जानकारी के लिए बता दें कि भारत में फर्टिलाइज़र की कीमत लगभग 268 रुपये है.
हर कोई इससे आहत है. सत्तर साल की लीलावती छोटी चाय किसान हैं. वो 20 साल की उम्र से ही डेनियाया के बागानों को संभालने का काम करती आ रही हैं. उन्हें प्रति किलो चाय के लिए लगभग 30 रुपए मिलते हैं लेकिन इस पैसे से तो फर्टिलाइज़र पर होने वाला खर्च तक नहीं निकल पाता है.
उन्होंने कहा, ‘अगर सरकार केवल चाय की कीमतें बढ़ा सके और फर्टिलाइज़र की कीमतें कम कर दे तो परेशानी थोड़ी कम हो जाएगी लेकिन किसे पता है कि कोई सुन भी रहा है या नहीं.’ वह आगे कहती हैं, ‘मेरी आवाज तो सरकार तक पहुंचेगी नहीं.’
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चाय बागानों को नुकसान
श्रीलंका के ग्रामीण इलाकों में रहने वाले गरीबों में से सबसे गरीब के लिए जीवन में कुछ नहीं बदला है, सिवाय खाने की बढ़ती कीमतों के.
52 साल की पार्वती सिरीसिली टी एस्टेट में काम करती हैं. उन्हें हर दिन 32 किलो चाय की पत्तियों को तोड़ने पर 240 रुपए मिलते हैं. अगर वह इन्हें कम तोड़ती हैं तो उन्हें कोई मेहनताना नहीं मिलेगा. श्रीलंका के आर्थिक संकट के इस मौजूदा दौर में वह कुछ कमाए बिना अपना गुजारा नहीं चला सकती हैं.
पार्वती की तरह बागान में पत्तियां तोड़ने के काम में लगी लगभग सभी महिलाएं ही हैं. उन्होंने दोपहर के खाने के लिए एक छोटा सा ब्रेक लिया है और सेम के साथ उबले हुए लाल चावल खा रही हैं. पुरुष उनके काम की निगरानी करते हैं. महिलाएं लगभग 7:30 बजे से शाम 4:30 बजे तक चाय की पत्तियां तोड़ती हैं और फिर लाइन रूम के नाम से जाने जाने वाले अपने आवास की तरफ चली जाती हैं. उन्हें ये घर एस्टेट ही मुहैया कराता है. पार्वती अपने इसी एक कमरे के घर में छह लोगों के साथ रहती हैं. जिसमें उनके बच्चे और घर के दो बुजुर्ग शामिल हैं. उनकी रोज की कमाई सभी के लिए खाने के इंतजाम में चली जाती है. वह किसी और चीज के बारे में सोच सके इतना पैसा ही नहीं बचता है.
‘मुझे पता है कि देश में समस्याएं हैं लेकिन मेरी परेशानी तो ये है कि चावल की कीमत पहले से कहीं ज्यादा हो गई है और मुझे अपने काम के अभी भी उतने ही पैसे मिल रहे हैं. मैं आज जितना हो सके उतनी पत्तियों को तोड़ कर इकट्ठा करने की कोशिश कर रही हूं.’ वो दोबारा चाय की पत्तियां की तरफ मुड़ती हैं और फिर उन्हें तोड़ना शुरू कर देती हैं.
पार्वती तमिल बंधुआ मजदूरों की वंशज हैं जो 19वीं शताब्दी में तमिलनाडु से श्रीलंका पहुंचे थे. चाय बागानों और उसमें लगे मजदूरों को वर्गीकरण उनकी जातीय बनावट से जुड़ा हुआ है. पार्वती जैसे तमिल मजदूर सबसे निचले पायदान पर आते हैं. उनके पास कोई जमीन नहीं है. 1949 में, देश की आजादी के एक साल बाद श्रीलंका की तमिल आबादी से उनकी नागरिकता छीन ली गई थी और उन्हें हर अधिकार से वंचित कर दिया गया लेकिन 1977 में उन्हें फिर से नागरिकता दे दी गई थी.
सीलोन वर्कर्स कांग्रेस के महासचिव, सांसद जीवन थोंडामन ने कहा, ‘बाकी सभी समुदाय आजादी से रह रहे थे. स्वास्थ्य और शिक्षा सभी तरह की सुविधाओं तक उनकी पहुंच थी लेकिन तमिल समुदाय को इस सबसे वंचित रखा गया. उनके लिए यह सब तीस साल बाद आया.’ वह आगे कहते हैं, ‘इसलिए यह समुदाय पिछड़ा हुआ है. उन्होंने दौड़ थोड़ी देर से शुरू की और अब वे सबके बराबर आने की कोशिश कर रहे हैं.’
मजदूरों से एक पायदान ऊपर लीलावती जैसे कर्मचारी हैं जिनका संबंध सिंहली बौद्ध समुदाय से है. हालांकि लीलावती भी गरीब ही हैं. वह एक छोटी चाय किसान है. जिस जमीन पर वह खेती करती है उस पर उसका अधिकार है. देश भर में लगभग पांच लाख छोटे किसानों ने 2018 में श्रीलंका के कुल चाय उत्पादन में 70 प्रतिशत से अधिक का योगदान दिया था. वे अपनी जमीन पर खुद ही खेती करते हैं. वे अपनी उपज सीधे बाजार में या फिर बड़े बागानों को बेचते हैं.
और सबसे ऊपरी पायदान पर बड़े चाय बागान आते हैं जैसे कि डेनियाया में लुंबिनी टी वैली. लुंबिनी 200 एकड़ का एक बागान है. उन्होंने आस-पास के गांवों से लीलावती जैसे 1,500 छोटे किसानों से कॉन्ट्रेक्ट किया हुआ है. उनकी इस जमीन पर 200 मजदूर काम करते हैं जिन्हें वो 32 किलो पत्तियां तोड़ने पर 240 रुपए की सरकारी मजदूरी का भुगतान करते हैं.
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जैविक खेती की ओर बढ़ें
पहाड़ियों पर स्थित डेनियाया के चाय बागानों तक पहुंचने वाली घुमावदार सड़कों पर ट्रकों की एक लंबी लाइन लगी है. ये सभी ट्रक डीजल के लिए पूरे दिन से इंतजार में खड़े हैं. कुछ घंटों में उनका ट्रक बमुश्किल कुछ ही इंच आगे बढ़ पा रहा है.
ईंधन की कमी का मतलब है बाजारों में उपज बेचने के लिए कम आवाजाही. ऐसे में बेचने के लिए ले जाने वाली चाय की मात्रा पर भी पड़ा है. वह पहले से काफी कम हो गई. पैदावार में भी कमी हुई है और इनपुट लागत भी बढ़ गई हैं: पिछले पांच-छह महीनों में, डेनियाया में लुंबिनी टी वैली जैसे चाय बागानों की लागत 40 प्रतिशत बढ़ी है.
श्रीलंका ने 50 करोड़ डॉलर मूल्य के फर्टिलाइज़र का आयात किया था. कई लोग फर्टिलाइज़र आयात प्रतिबंध को राजनीति से प्रेरित मानते हैं. हालांकि इसे सेहत में सुधार और टिकाऊ कृषि को बढ़ावा देने के लिए तैयार किया गया था. हालांकि सूत्रों का कहना है कि इसका मकसद राजपक्षे सरकार के खर्च को कम करना और पैसा बचाना भी था.
बागान उद्योग के पूर्व मंत्री, नवीन दिसानायके ने जैविक खेती की ओर बढ़ने के रातों रात किए गए फैसले की तुलना भारत में हुई नोटबंदी से की. उन्होंने फर्टिलाइज़र पर प्रतिबंध लगाने के राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे के कदम का खासा विरोध भी किया.
उन्होंने कहा, ‘यह सैद्धांतिक रूप से एक अच्छा कदम था लेकिन यह बिना सोचे-समझे रातों रात लिया गया एक फैसला था. कमर्शियल खेती के लिए सामान्य फर्टिलाइज़र और खरपतवारनाशी की जरुरत होती है. जैविक खाद का इस्तेमाल करना है या नहीं ये किसानों का व्यक्तिगत फैसला होना चाहिए.’
फर्टिलाइज़र पर लगाए गए प्रतिबंध ने उद्योग को बुरी तरह प्रभावित किया और फसलों के उत्पादन में 30 प्रतिशत की गिरावट आई. चाय और अन्य निर्यात फसलों से राजस्व की हानि ने श्रीलंका की तेजी से गिरती अर्थव्यवस्था में एक बड़ी भूमिका निभाई है.
लुंबिनी के प्रबंध निदेशक चामिंडा जयवर्धने ने कहा, ‘इससे छोटे किसान विशेष रूप से प्रभावित हुए हैं. सिर्फ एक अच्छी बात यह है कि अब उन्हें अपनी चाय की पत्तियों के लिए अधिक कीमत मिल रही है.’
कपड़ों के अलावा चाय श्रीलंका के शीर्ष निर्यातों में से एक है. डॉलर की कीमत बढ़ने से आमदनी भी बढ़ रही है. लेकिन बागान मैन्युफैक्चरिंग पर ध्यान नहीं दे पा रहे हैं. महंगे ईंधन और अन्य चीजों पर अतिरिक्त खर्च करने के लिए मजबूर हैं. बिजली कटौती और डीजल की कमी के साथ-साथ पैकेजिंग के लिए कागज की कमी ने भी व्यापार को प्रभावित किया है. अब भले ही चाय की पत्तियों के लिए अधिक पैसा मिल रहा हो. लुंबिनी में दिन में सात घंटे बिजली कटौती की जा रही है.
जयवर्धने ने कहा, ‘इस साल क्या होगा, इस बारे में कुछ भी कहना जल्दबाजी होगी.’ उन्होंने पिछले साल जारी हुए फरमान के बाद से जैविक तरीकों का इस्तेमाल करना शुरू किया था. वह आगे कहते हैं, ‘मुझे लगता है कि यह हमारे लिए काम करेगा लेकिन हम औसत बागानों से बिल्कुल अलग हैं क्योंकि हम कुछ समय से ही जैविक खेती पर काम कर रहे हैं.’
इस सबके बीच पार्वती ने पिछले एक साल के दौरान अपने काम के बोझ में कोई कमी नहीं देखी है. वह अभी भी ज्यादा से ज्यादा पत्तिया तोड़ कर इक्ट्ठा करने में लगी है. जब उनसे पूछा गया कि वह ‘अपने काम’ में क्या बदलाव लाना चाहती हैं, तो वह मुस्कुराते हुए कहती हैं, ‘मुझे बस इतना पता है कि मुझे कल फिर से 32 किलो वजन उठाना है.’ ‘बाहर कुछ भी होता रहे – मुझे तो कल फिर आना ही है.’
श्रीलंकाई नागरिकों पर मौजूदा आर्थिक संकट के प्रभाव पर वंदना मेनन की तीन पार्ट की सीरीज ‘पैराडाइज लॉस्ट’ का यह समापन भाग है.
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