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Friday, 22 November, 2024
होममत-विमतदक्षिण एशिया में संस्कृति की जंग भड़का रहा अल-जवाहिरी, अल-कायदा को हिजाब विवाद में नजर आ रहा फायदा

दक्षिण एशिया में संस्कृति की जंग भड़का रहा अल-जवाहिरी, अल-कायदा को हिजाब विवाद में नजर आ रहा फायदा

भारत और पाकिस्तान में ऐसे लोगों की संख्या लाखों में हैं जिन्हें लगता है कि ये धर्म के रास्ते से भटके विफल राष्ट्र हैं. अल-कायदा ऐसे विषैले राजनीतिक परिदृश्य में पनपने वाला एकमात्र हिंसक आंदोलन नहीं है.

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अल्लाह की नाफरमानी कर फरिश्ते से शैतान बने इब्लीस ने हॉलीवुड में अपना साम्राज्य कायम कर रखा है. यह शैतान गुरुत्वीय शक्तियों का इस्तेमाल कर उत्तरी अटलांटिक के नीचे बनी गुफा से अपनी सेनाएं बुलाता है. कोका-कोला के लोगो में छिपा अवचेतन कोड आस्तिकों को बताता है कि न कोई मक्का है और न ही मुहम्मद. टीकों की देन बनती महामारियां, बिगड़ती आबोहवा और उड़न तश्तरियों में घूमते एलियन, हम तेजी से कयामत के दिन के करीब पहुंच रहे हैं—और इस्लाम की रौशनी हासिल किए बिना हम इन सारे संकेतों को समझ भी नहीं सकते हैं.

कुदरत के कहर को लेकर इस तरह की पंक्तियां गढ़ने वाला 2019 में शरद ऋतु की एक रात युद्धग्रस्त अफगान शहर मूसा क़ला के पास एक खेत में अमेरिकी सेना के एक संयुक्त हमले में ढेर हो गया था. इस हमले में मारा गया वह व्यक्ति उन लोगों के लिए ‘सन्नू’ था जिनके साथ वह उत्तर प्रदेश के संभल जिले की गलियों में क्रिकेट खेला करता था. वहीं, जिन लोगों के साथ मरा, वे उसे उसके छद्म नाम असीम उमर के तौर पर जानते थे, जो दक्षिण एशिया में आतंकी संगठन अल-कायदा के नेतृत्व के लिए अल-कायदा प्रमुख अयमान अल-जवाहिरी की पसंद था.

कर्नाटक में हिजाब के खिलाफ नियमों पर निशाना साधने वाले अल-जवाहिरी का भाषण भारत पर केंद्रित किसी अल-कायदा नेता का पहला ऐसा बयान है जो देश के सामने आसन्न खतरे को रेखांकित करता है. आज, वैश्विक जिहादी गतिविधियां 9/11 के बाद आतंक के खिलाफ तथाकथित जंग शुरू होने के समय की तुलना में ज्यादा क्षेत्र को प्रभावित करती हैं. तालिबान की सत्ता फिर स्थापित होने के बाद अल-कायदा को अपना गढ़ बनाने के लिए एक सुरक्षित पनाहगाह भी मिल गई है.

हालांकि, ये सबसे बड़े खतरे नहीं हैं. अपने भाषण में अल-जवाहिरी ‘पवित्र मुस्लिम राष्ट्र और पतित और भ्रष्ट बहु-ईश्वरवादी और नास्तिक दुश्मनों के बीच एक सभ्यतागत युद्ध का आह्वान करता है जिनके खिलाफ वह लड़ता रहा है.’ दशकों से अल-कायदा न केवल जमीनी मोर्चे पर जंग लड़ रहा है बल्कि लोकतंत्र में संघर्ष, महिलाओं के अधिकारों और धार्मिक पहचान को लेकर संस्कृति की लड़ाई भी छेड़ रखी है. भारत में इस्लाम को लेकर तीखी बहस—और भविष्य को लेकर मुस्लिमों का डर—अल-कायदा को एक बेहतरीन मौका नजर आ रहा है.


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दक्षिण एशिया में गहरी हैं अल-कायदा की जड़ें

सोवियत संघ के खिलाफ जंग छेड़ने को तैयार हजारों अरब जिहादियों के एक सशक्त समूह के साथ अल-जवाहिरी का 1980 में पेशावर में कदम रखना घर वापसी की ही तरह था. अल-जवाहिरी के दादा अब्दुल-वहाब अज्जम ने 1954 में पाकिस्तान में मिस्र के राजदूत के तौर पर कार्य किया था. अन्य चीजों के अलावा अज्जम ने कवि मोहम्मद इकबाल के कार्यों का अरबी में अनुवाद किया था. कराची में उनके दोस्तों में मिस्र के निर्वासित मुस्लिम ब्रदरहुड नेता सईद रमजान शामिल थे.

पाकिस्तानी प्रधानमंत्री लियाकत अली खान ने 1948 में रमजान से मुलाकात की थी, जब वह एक कांफ्रेंस में हिस्सा लेने के लिए कराची पहुंचे थे. 1950 के दशक की शुरुआत में ये रिश्ता काफी फला-फूला, क्योंकि खान नए इस्लामी गणराज्य के इस्लामीकरण पर जोर दे रहे थे. मुस्लिम ब्रदरहुड नेता का अपना रेडियो शो चलता था; प्रधानमंत्री ने उनकी एक किताब की प्रस्तावना भी लिखी थी.

कराची में विकसित रिश्तों की बदौलत पाकिस्तान और पश्चिम एशिया में इस्लामवादियों के बीच गहन जुड़ाव पैदा हुआ. रमजान के माध्यम से मिस्र के इस्लामवादी सैयद इब्राहिम कुतुब ने जमात-ए-इस्लामी विचारक अबुल अला मौदुदी का काम खोज निकाला.

मौदुदी के विचार में मुसलमानों के लिए ‘सत्ता का अधिकार हासिल करना अनिवार्य था, क्योंकि एक बुरी सरकार के संरक्षण में बुरी व्यवस्था जड़ जमा लेती है और फलती-फूलती है और एक पवित्र सांस्कृतिक व्यवस्था तब तक स्थापित नहीं हो सकती जब तक शैतान से सरकार चलाने का अधिकार छीन नहीं लिया जाता.’ उनका दावा है कि इस्लाम खुद में ‘एक क्रांतिकारी विचारधारा है जो पूरी दुनिया की सामाजिक व्यवस्था को बदलने और इसे फिर से स्थापित करने में सक्षम है.’

कुतुब के कार्यों की बदौलत अल-जवाहिरी—अल-कायदा के अन्य नेता जैसे ओसामा बिन लादेन और लश्कर-ए-तैयबा के सह-संस्थापक अब्दुल्ला आजम—मौदुदी के विचारों से जुड़े.

अल-जवाहिरी ने एक निबंध में यह तर्क देने के लिए मौदुदी को उद्धृत किया कि ‘लोकतंत्र एक नया धर्म है, जो लोगों को भगवान का दर्जा देने और उन्हें भगवान जैसे गुण देने पर आधारित है.’ साथ ही इस पर जोर दिया, ‘यह भगवान को मूर्तियों के साथ जोड़ने और नास्तिक बनने के समान है.’

कुतुब और मौदुदी की तरह अल-जवाहिरी के लिए भी इसका जवाब युद्ध ही था, जिहाद एक खिलाफत की ओर ले जाएगी और दुनिया पर अल्लाह की मर्जी को लागू किया जा सकेगा.


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अल-कायदा के भारतीय प्रवक्ता

2013 की गर्मियों में नई जिहादी पत्रिका अजान ने भारतीय मुसलमानों से जिहाद में शामिल होने का आह्वान करने वाले कई लेखों की शुरुआत की, जिसमें कहा गया था कि ‘उनके पूर्वजों ने हमेशा इस्लाम के दुश्मनों के खिलाफ जिहाद का झंडा बुलंद किया था.’ लेख में आगे कहा गया था कि मस्जिद के सामने लाल किला आपकी गुलामी और हिंदुओं के हाथों सामूहिक हत्याओं पर खून के आंसू रोता है.’ फिर से जिहाद में शामिल होने के बजाय युवा मुसलमान ‘बाजारों, पार्कों और खेल के मैदानों में अपना समय बर्बाद कर रहे हैं.’

1980 के दशक के उत्तरार्ध से सांप्रदायिक हिंसा की तमाम घटनाओं ने भारत में जिहादी भर्ती बढ़ाने में अहम भूमिका निभाई. सबसे अहम बात यह है कि हिंसा ने मुसलमानों की शारीरिक और बौद्धिक क्षमता बढ़ाने में भी बड़ी भूमिका निभाई. इन संकीर्ण समुदायों के भीतर धर्मनिरपेक्ष-लोकतांत्रिक राजनीति पर सवाल उठने लगे.

संभल के हिंदी इंटर कॉलेज में शिक्षित जो व्यक्ति अल-कायदा का दक्षिण एशिया प्रमुख बनने वाला था, वह पांच भाई-बहनों में सबसे छोटा था. सना-उल-हक ने आठवीं कक्षा में स्कूल छोड़ दिया, और उसे देवबंद में दार-उल-उलुम मदरसा भेज दिया गया. ऐसा लगता है कि 1992-1993 की हिंसा ने उसे जिहाद की राह अपनाने को बाध्य किया. 1998 के अंत में देवबंद से बाहर निकलने के बाद सना-उल-हक एक जाली पासपोर्ट पर पाकिस्तान पहुंचा और वहां कराची में जिहाद समर्थक जामिया उलुम-ए-इस्लामिया में दाखिला ले लिया.

माना जाता है कि पढ़ाई पूरी करने के बाद सना-उल-हक हरकत-उल-मुजाहिदीन में शामिल हो गया और कश्मीर के जिहादियों के प्रशिक्षण शिविरों में एक मजहबी शिक्षक के रूप में काम करने लगा.

हालांकि, इस पूरे क्रम में भारतीय जिहादी की सबसे बड़ी जिम्मेदारी दुष्प्रचार तंत्र के तौर पर काम करने की थी. उसने अल-कायदा के संदेश को कट्टरपंथी निम्न मध्यम वर्ग तक पहुंचाया, जो आधुनिकता के सांस्कृतिक दबाव से डरा हुआ था, और जिसका लोकतंत्र से मोहभंग हो चुका था. पाप और पुण्य की धारणा के बीच अल-कायदा ने अपनी नैतिकता को पुख्ता तरीके से स्थापित किया.

एक किताब, द बरमूडा ट्रायंगल एंड द डेविल में, उसने लिखा, ‘सभी इस्लामी समाजों की त्रासदी यह है कि वे शैतानी ईसाई, यहूदी और हिंदू मीडिया को देखकर आगे बढ़ते हैं.’ उसने आगे लिखा, ‘तथाकथित आधुनिक वर्ग वेश्याओं की धुन पर नाच रहे हैं और खुद को खुली सोच वाला कहते हैं. लेकिन वास्तव में उन्होंने अपना दिमाग हॉलीवुड के बाजारों में गिरवी रख दिया है.’

उसकी किताबों में लैंगिकता पर खास जोर दिया गया था. उसका तर्क है, ‘मुस्लिम महिलाओं के दिमाग में यह बात बैठा दी गई है कि उनका समुदाय तब तक समृद्ध नहीं हो सकता जब तक वे घर से बाहर नहीं निकलेंगी. लेकिन वास्तविकता यह है कि उन्हें इसके नाम पर जाल में फंसाया जा रहा है. मुस्लिम महिलाओं की आस्था कमजोर करके शैतान उनके मर्दों को तबाह करने में कामयाब हो जाता है.’

सना-उल-हक जैसे पॉप-इस्लामिस्ट 1990 के दशक में नाकाम हो गए. टेलीविजन पर दुष्प्रचार अभियान चलाने वाले भगोड़े जाकिर नाइक ने दावा किया कि ‘हम मुसलमान पसंद करेंगे कि भारत में इस्लामी आपराधिक कानून सभी भारतीयों पर लागू हो, क्योंकि चोर को हाथ काटने की सजा देने से निश्चित तौर पर चोरियों में कमी आएगी.’

वहीं, नाइक के गुरु अहमद दीदत ने बहुविवाह की वकालत करते हुए कहा कि इससे वह समस्या हल हो जाएगी जिसे वह ‘सरप्लस वुमेन’ कहते हैं. अमेरिका के संदर्भ में दीदत का दावा है, ‘वहां जेल में बंद कैदियों में अट्ठानबे फीसदी पुरुष है, फिर, उनके पास 25 मिलियन सोडोमाइट्स हैं.’


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आने वाली कयामत का जिक्र

1979 में जब अल-जवाहिरी ने सोवियत संघ के खिलाफ जंग लड़ी थी, तब भी बहुत ज्यादा लोग इन विचारों से सहमत नहीं थे. मिस्र के नेता जमाल अब्दुल नासिर 1959 में अपने श्रोताओं के बीच यह बात सुनकर हंस पड़े थे कि महिलाओं को हिजाब पहनने के लिए मजबूर किया जा सकता है. 1978 में अल-जवाहिरी की अज्जा नोवारी से शादी—जहां महिलाओं और पुरुषों को अलग-अलग बैठाया गया था और संगीतकारों को समारोह से दूर रखा गया—ने उसकी पहचान एक सनकी जैसी बना दी थी. हालांकि, एक श्रद्धांजलि लेख से पता चलता है कि खुद अल-जवाहिरी की मां ओमायमा आजम बुर्का नहीं पहनती थीं.

न्यूयॉर्क निवासी मरियम जमीला, जो इस्लाम धर्म अपनाने के बाद मौदुदी के घर में रहती थी, ने 1969 में पर्चे छापकर हिजाब के लिए आवाज उठाई और आरोप लगाया कि पश्चिमी मूल्यों ने ‘दुनियाभर में अपराध, अराजकता और अवैध यौन संबंधों को बढ़ावा दिया है.’ लेकिन इन बातों की एकदम अनसुनी कर दी गई.

जनरल मुहम्मद जिया-उल-हक के शासनकाल में इस्लामी मांगों और प्रथाओं को संस्थागत स्वरूप देने के प्रयास शुरू किए गए लेकिन पूरे क्षेत्र में धार्मिक कट्टरवाद तभी फल-फूल पाएगा जब ये सोच गहराई से जड़ें जमा ले.

भारत और पाकिस्तान में ऐसे लोगों की संख्या लाखों में हैं जिन्हें लगता है कि ये धर्म के रास्ते से भटके विफल राष्ट्र हैं, न्याय, विकास और सुरक्षा की बात सिर्फ भ्रामक है. अल-कायदा ऐसे विषैले राजनीतिक परिदृश्य में पनपने वाला एकमात्र हिंसक आंदोलन नहीं है. कयामत को लेकर सना-उल-हक का दुष्प्रचार और उसे सच्चाई में बदलने की जंग, उतनी ज्यादा दूर नहीं है, जितनी हम कल्पना कर रहे हैं.

लुईस कैरोल के मास्टरवर्क में यूनिकॉर्न ने एलिस से कहा था, ‘ठीक है, अब जब हमने एक-दूसरे को देख दिया है, अगर तुम मेरा भरोसा करो तो मैं भी तुम पर भरोसा करूंगा.’ अल-कायदा की सफलता यही होगी कि वह लोगों को अपने शीशे में उतार लें और फिर लोगों को उस कट्टर सोच से बाहर लाने का रास्ता खोजना असंभव साबित हो सकता है.

(प्रवीण स्वामी दिप्रिंट के नेशनल सिक्योरिटी एडिटर हैं. वह @praveenswami पर ट्वीट करते हैं. व्य्क्त विचार निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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