कोलंबो: नदीरा और उसकी 13 साल की बेटी शनाली सामने देखती हैं, जब एक ग्राहक उनके स्टोर के आगे से गुज़रता है. क्या उनके स्टॉक में नारियल का दूध है? नहीं. ब्रेड और अंडे भी नहीं हैं. उनके स्टॉक में मुश्किल से ही कुछ बचा है.
कोलंबो के ओरुगोडावट्टा में एक किराए के घर में रहने वाली मां और बेटी, एक छोटी सी दुकान चलाती हैं, जहां वो रोज़मर्रा की ज़रूरत की चीज़ें बेचती हैं. लेकिन आज के श्रीलंका में आवश्यक वस्तुएं मिलना मुहाल हो गया है.
श्रीलंका 70 साल में अपने सबसे ख़राब आर्थिक संकट से गुज़र रहा है, जिसमें तेज़ी से बढ़ती क़ीमतें और खाद्य पदार्थ, ईंधन, दवाओं और कागज़ की क़िल्लत आम लोगों के लिए मुश्किलें पैदा कर रही हैं. एक टाइम टेबल के अनुसार जो नियमित रूप से बदलता रहता है. हर रोज़ बिजली कटौती होती है- श्रीलंका के पश्चिमी प्रांत ओरुगोडावट्टा के निवासियों ने तो इसका हिसाब ही रखना छोड़ दिया है.
इस इलाक़े में अलग-अलग समुदायों के निम्न-आय वर्ग के मिले-जुले परिवार रहते हैं- सिंहला बौद्ध, सिंहला ईसाई, तमिल और मुसलमान. भारत के मुक़ाबले श्रीलंका में शहरी ग़रीबी बहुत अलग दिख सकती है, जहां ज़्यादा व्यवस्थित आवास हैं और भीड़-भाड़ नहीं है, लेकिन इन घरों के अंदर की सच्चाई कुछ और है.
द्वीप राष्ट में साक्षरता और अनुमानित जीवन काल की दरें ऊंची हैं, लेकिन विश्व बैंक का अनुमान है कि श्रीलंका में ग़रीबी की निचली दरें पुरानी हो चुकी हैं और ईस्टर रविवार की बम घटनाओं तथा 2020 की कोविड महामारी जैसे लगातार संकटों ने, मध्यम वर्ग के लोगों को नीचे ग़रीबी की ओर धकेल दिया है.
जहां अधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक़ श्रीलंका की क़रीब 4% आबादी ग़रीबी में जी रही है, वहीं विश्व बैंक का अनुमान है कि ये आंकड़ा दरअसल 11.7%. के क़रीब है.
नदीरा का परिवार ऐसी ही एक मिसाल है: उसके पास स्थायी नौकरी हुआ करती थी, लेकिन गुज़र-बसर के लिए उसे अपनी पारिवारिक संपत्ति गिरवी रखनी पड़ी थी, जिसमें वो गहने भी थे जो उसने अपनी बेटी की शादी के लिए बचाए हुए थे. नदीरा कहती है, ‘वो 9वीं कक्षा में है. अब हम उसे वो चीज़ें नहीं दे सकते जो पहले देते थे’.
उन्हें अपने छोटा सा स्टोर शाम में बंद करना पड़ता है. दुकान खुली रखने के लिए वो केरोसीन लैम्प के तेल का ख़र्च नहीं उठा सकती. उसका पति भी जो किराए पर थ्री-व्हीलर चलाता है, ईंधन की क़िल्लत के चलते नियमित रूप से काम नहीं कर पा रहा है.
अपने स्टोर में ख़ाली पड़े ख़ानों की ओर इशारा करते हुए वो कहती है, ‘हमारे पास बेंचने के लिए कुछ नहीं है. मज़दूरों को बेंचने के लिए आज सुबह मैं केवल पांच चपातियां बना सकी, लेकिन उन्हें किसी ने नहीं ख़रीदा. इसलिए हमने उन्हें ख़ुद ही खा लिया’.
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एक दूसरे की उदारता पर ज़िंदा
पूरे श्रीलंका में विरोध प्रदर्शन फूट पड़े हैं, जिनकी अगुवाई ज़्यादातर युवा कर रहे हैं. कोलंबो और कैण्डी जैसे शहरों में भी भारी संख्या में मध्यम वर्गीय प्रदर्शनकारी सड़कों पर उतर रहे हैं और राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे के खिलाफ ‘घर जाओ, गोटा’ जैसे नारे लगा रहे हैं.
लेकिन क़िल्लतों की सबसे अधिक मार कम आय वाले लोगों और दिहाड़ी मज़दूरों पर पड़ी है. सिर्फ एक दिन की आवश्यक चीज़ों के लिए राशन की दुकानों पर लाइन लगाने का मतलब है एक दिन की दिहाड़ी का नुक़सान. दिहाड़ी मज़दूरों के सामने अब बस एक ही रास्ता है- या तो काम पर जाएं और घर पर खाने के लिए कुछ न मिले या फिर ज़रूरी चीज़ों के लिए लाइन लगाएं और एक दिन की कमाई खोएं और अकसर उनका रास्ता ख़ुद ही निकल आता है जब बिजली कटौती होती है. क्योंकि फिर उनके पास जाने के लिए कोई काम ही नहीं होता.
एक टेलर शॉप पर जहां पांच महिलाएं पुरुषों के कपड़े तैयार करती हैं, बिजली अभी-अभी वापस आई है. महिलाओं- शलानी, निशांति, रांगी, नयना और सुरेखा ने ख़ुशी से बताया कि उनके बॉस ने एक दूसरी लाइन से कनेक्शन जुड़वा लिया है, जो उनसे सटे हुए मकान मालिक के घर का है. इसका मतलब है कि वो अपनी दैनिक मज़दूरी घर ले जा सकेंगी- जो क़रीब 150 भारतीय रुपयों के बराबर है.
वो कहती हैं कि वैसे तो इस पैसे से मुश्किल से ही कुछ आता है, लेकिन कम से कम कुछ तो है. भाग्यवश उनका बॉस दोपहर में उन्हें एक घंटे का ब्रेक दे देता है, ताकि चिलचिलाती धूप में जाकर वो किराना के लिए लाइन लगा सकें. अगर उन्हें समय नहीं मिलता, तो फिर राशन की दुकानों की बजाय उन्हें निजी किराना स्टोर पर ज़्यादा ख़र्च करना पड़ता है.
महिलाएं, जो सब मांएं हैं, शिकायत करती हैं कि अब वो चिकन, अंडों और अधिकतर सी-फूड्स के साथ खाना नहीं बना सकतीं. ज़्यादा से ज़्यादा उनके भोजन में कुछ चावल, एक सब्ज़ी और सूखी मछली होती है. काफी हद तक वो उसी राशन के सहारे हैं, जो उनके हाथ लग जाता है. एक अंडा क़रीब 10 रुपए का है और दूध के पाउडर के दाम 500 रुपए हैं.
‘हर चीज़ के दाम बढ़ रहे हैं,’ ये कहना था सुरेखा का, जो अभी अभी दूध पाउडर ख़रीदने की कोशिश में नाकाम वापस लौटी हैं- वो उपलब्ध नहीं था. ‘सिवाय हमारे वेतन के’. बिजली कटौती के लिए जेनरेटर, लेकिन फ्यूल का क्या? एक गली छोड़कर, प्रियांथा अगले पावर कट की तैयारी कर रहे हैं.
उन्होंने कहा, ‘स्थिति बहुत दुखद है. मेरी एक पत्नी और तीन बच्चे हैं, और इस पूरे महीने मैं कोई काम नहीं कर सका. हम जी नहीं सकते’.
वो ओरुगोडावट्टा में एक वेल्डिंग शॉप चलाते हैं और बहुत निराश हैं कि आर्थिक संकट की अनिश्चितता के चलते वो किसी का काम नहीं ले सकते. उन्हें नहीं मालूम कि दिनभर में कितनी देर के लिए बिजली ग़ायब रहेगी और वो अपने किसी ग्राहक को कोटेशन्स नहीं दे पाए हैं, क्योंकि वो निश्चित नहीं हैं कि वो काम कर भी पाएंगे कि नहीं. वो कोटेशन देते भी हैं, तो वो घंटों के हिसाब से होता है.
प्रियांथा ने कहा, ‘हमारे यहां हर दिन बिजली जाती है, बहुत मुश्किल होती है. मैं एक सहायक रखना चाहता हूं, लेकिन उसे वहन नहीं कर सकता. मेरी सभी सामग्री की क़ीमत भी दोगुनी हो गई है’.
धातु के एक पार्ट की ओर इशारा करते हुए उन्होंने कहा कि इसकी क़ीमत 500 रुपए है. ‘ये आज की क़ीमत है. कल ये बदल सकती है, या कुछ दिनों में बदल सकती है’.
प्रियांथा के वेल्डिंग स्टोर के सामने, कारपेंटर विजय और उसके साथियों ने बिजली कटौतियों से बचने के लिए, एक जेनरेटर किराए पर लेने का फैसला किया है. उन्हें बीते कल ही जेनरेटर मिला है. इसका किराया उनके लिए 400 रुपए प्रतिदिन है, और एक लीटर ईंधन में जेनरेटर दो घंटे चलता है.
विजय ने कहा, ‘पहले हम दिन में 8 घंटे काम करते थे, अब हम सिर्फ 5-6 घंटे काम कर पाते हैं. उम्मीद है कि जेनरेटर से मदद मिलेगी, लेकिन ईंधन मिलना मुश्किल हो रहा है’.
अगले संकट का इंतज़ार
दिप्रिंट ने जितने लोगों से बात की, वो सब अभी तक लगातार आए संकटों के परिणामों से उबर ही रहे हैं.
अप्रैल 2019 में ईस्टर संडे को हुई बमबारी से अर्थव्यवस्था तबाह हो गई, जो केवल 3% की दर से बढ़ रही है. और फिर महामारी आ गई: नदीरा एक केटरिंग व्यवसाय में काम करती थी, लेकिन कोविड की वजह से उसकी नौकरी चली गई. प्रियांथा को भी वेल्डिंग शॉप से वर्कर्स को निकालना पड़ा.
अब कोलंबो के निवासी किसी भी नए संकट के लिए तैयारी कर रहे हैं. ऐसी ही एक चिंता है श्रीलंका में आने वाला मॉनसून सीज़न. ओरुगोडावट्टा केलानी नदी के बिल्कुल किनारे पर बसा है, जिसमें अकसर बाढ़ आ जाती है.
78 वर्षीय सेरिका बहुत चिंता में हैं, क्योंकि 2016 की बाढ़ में उनका घर नष्ट हो गया था, और उन्हें चिंता है कि फिर से ऐसा हो सकता है. उन्होंने ये सोचते हुए गोटाबाया राजपक्षे को वोट दिया था कि वो कुछ अलग होंगे. उन्हें समझ नहीं आ रहा कि ये संकट कैसे पैदा हुआ- वो बस इतना जानती हैं कि अब चीज़ें और अधिक बिगड़नी नहीं चाहिएं.
उधर टेलर की दुकान पर, महिलाओं ने ख़ुद को हालात के सहारे छोड़ दिया है. निशांति ने कहा, ‘हमारे पास अपने बच्चों को देने के लिए कुछ नहीं है. हमारे पास चावल नहीं है. हमारे पास दूध नहीं है. हालात बेहतर होने का इंतज़ार करने के अलावा हम कुछ नहीं कर सकते’.
वो कंधे उचकाते हुए कहती हैं, ‘घर जाओ, गोटा’.
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