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Thursday, 21 November, 2024
होमसमाज-संस्कृतिबयानबाजी करने के बजाय ममता बनर्जी को आम आदमी की हिफाजत पर ध्यान देना चाहिए: बीरभूम पर उर्दू प्रेस का रुख

बयानबाजी करने के बजाय ममता बनर्जी को आम आदमी की हिफाजत पर ध्यान देना चाहिए: बीरभूम पर उर्दू प्रेस का रुख

पेश है दिप्रिंट का इस बारे में राउंड-अप कि उर्दू मीडिया ने इस सप्ताह के दौरान विभिन्न समाचार घटनाओं को किस तरह कवर किया, और उनमें से कुछ ने इन पर किस तरह की संपादकीय टिप्पणियां कीं.

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नई दिल्ली:  कर्नाटक उच्च न्यायालय के 15 मार्च के उस फैसले जिसमें इसने यह कहा था हिजाब को इस्लाम में एक आवश्यक धार्मिक परिपाटी नहीं माना जा सकता के साथ-साथ भारत के उर्दू समाचार पत्रों में रूस-यूक्रेन युद्ध के बारे में ख़बरें पुरे सप्ताह आती रहीं.

हालांकि, इस सप्ताह तेल की कीमतों में हुई वृद्धि के बाद, मुद्रास्फीति (महंगाई) के बारे में चिंताएं भी प्रबल हो गईं थीं, पर इसके तुरंत बाद ही पश्चिम बंगाल के बीरभूम जिले में हुई हिंसा की खबरों भी आने लगीं.

दिप्रिंट आपके लिए इस सप्ताह की उर्दू समाचार पत्रों की सुर्खियों और उर्दू प्रेस के संपादकीय टिप्पणियों का एक राउंड-अप लेकर आया है.

बीरभूम में हुई हत्याएं

कथित तौर पर तृणमूल कांग्रेस के भीतर एक आंतरिक शक्ति संघर्ष को लेकर बीरभूम में आठ लोगों की हत्या के बारे में 24 मार्च को पहली बार ‘इंकलाब’ के पहले पन्ने पर एक खबर दिखाई दी, जब इस अखबार ने बताया कि इस ‘जघन्य’ घटना की वजह से राज्य के राजनीतिक तापमान में हो रही बढ़ोत्तरी के बीच कलकत्ता उच्च न्यायालय ने इस मामले का स्वतः संज्ञान लिया है.

25 मार्च को छपे अपने संपादकीय में, इस अखबार ने सीएम ममता बनर्जी के इस बयान की आलोचना की थी कि ऐसी घटनाएं उत्तर प्रदेश, बिहार और गुजरात में आम बात हैं. इस अखबार ने दलील दी कि इस तथ्य को देखते हुए कि पूर्व में भी ऐसी घटनाओं के लिए उनकी आलोचना की जाती रही है, इस वक्त जरुरत इस बात की है कि ममता बनर्जी इस तरह के बयान देने के बजाय ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति रोकना सुनिश्चित करने के लिए सख्त प्रशासनिक कदम उठाएं.

एक अन्य उर्दू अख़बार ‘सियासत’ ने 24 मार्च को लिखे गए अपने एक संपादकीय में कहा कि राजनीतिक संबद्धता की परवाह किए बिना इस तरह के ‘जघन्य अपराध’ में लिप्त अपराधियों को दंडित किया जाना चाहिए, क्योंकि किसी को भी राजनीतिक लाभ के साधन के रूप में हिंसा का प्रयोग करके बच निकलने की अनुमति नहीं दी जा सकती है.

वहीँ, ‘रोज़नामा’ ने अपने 25 मार्च के संपादकीय में लिखा है कि राज्य के राज्यपाल और विपक्ष के नेता के बयान उनकी अपनी राजनीति के रंग में सने सकते हैं,  लेकिन इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता है कि पश्चिम बंगाल के जिलों में कानून और व्यवस्था के मौजूदा हालात ऐसे नहीं है कि आम आदमी अपने आप को महफूज महसूस कर सके.


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हिजाब वाला विवाद

कर्नाटक उच्च न्यायालय द्वारा पिछले हफ्ते  दिए गए फैसले से उठीं लहरों की झलक उर्दू के अखबारों में इस हफ्ते भी दिखाई देतीं रही. 20 मार्च को, ‘इंकलाब’ ने अपने पहले पन्ने पर मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के इस फैसले को जगह दी जिसमें उसने उच्च न्यायालय के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देने की बात की थी. इस अख़बार ने अपने एक इनसेट में बताया कि बैंगलोर में एक परीक्षा केंद्र के अंदर हिजाब पहनने की मंजूरी न दिए जाने के बाद 132 छात्रों ने इम्तिहान में बैठने से इनकार कर दिया था.

21 मार्च को, सियासत ने उन दो शख्सों के बारे में एक मुख्य खबर छापी जिन्हें यह फैसला सुनाने वाले उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को जान से मारने की धमकी देने की वजह से बेंगलुरु में गिरफ्तार किया गया था. अखबार ने इन न्यायाधीशों को ‘वाई’ श्रेणी की सुरक्षा देने के राज्य सरकार के फैसले की भी जानकारी दी.

24 मार्च को अपने पहले पन्ने पर छपी एक खबर में ‘रोज़नामा राष्ट्रीय सहारा’ ने उडुपी में एक मंदिर के प्रबंधन द्वारा मुसलमानों को मंदिर परिसर के अंदर अपना कारोबार करने की मंजूरी नहीं देने के फैसले की सूचना दी. यह फैसला कुछ हिंदू संगठनों द्वारा इस आशय से की गई अपील के बाद लिया गया था.

महंगाई पर जताई चिंता

इस हफ्ते ईंधन के तेल की कीमतों पर लगी रोक हटाए जाने से उर्दू प्रेस में काफी आक्रोश दिखा  तेल के दामों में इस बढ़ोत्तरी के बारे में खबर छापने के अलावा, रोज़नामा ने 21 मार्च को यह भी लिखा कि फास्ट-मूविंग कंज्यूमर गुड्स (एफएमसीजी) कंपनियां रोजमर्रे की जरूरतों वाली चीजों की कीमतों में बढ़ोतरी की तैयारी कर रही हैं.

अपने 24 मार्च के संपादकीय में इंकलाब ने लिखा है कि ईंधन की कीमतों और मुद्रास्फीति के बीच के नजदीकी रिश्तों को देखते हुए, यह नामुमकिन सा है कि एक में उछाल आने के बाद दूसरे में ही इसी तरह की चाल न देखी जाये. इसने इस बात पर ध्यान दिलाया कि मंगलवार को ईंधन की कीमतों में हुई वृद्धि 137 दिनों के बाद हुई थी,  लेकिन इस बात का ‘दुर्भाग्यपूर्ण’ पह्लू यह है कि यह अब रोजाना होगा और तेल कंपनियों द्वारा की गई गणना के अनुसार, कच्चे तेल की वैश्विक कीमतों के साथ तालमेल बनाए रखने के लिए ईंधन वाले तेल की कीमतों में 19-24 रुपये की बढ़ोतरी मुमकिन लगती है, जो मुद्रास्फीति (महंगाई की दर) को और भी अधिक बढ़ाएगी.

सियासत ने अपने 23 मार्च के संपादकीय में लिखा है कि पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों को देखते हुए केंद्र सरकार ने नवंबर में पेट्रोल की कीमत में 5 रुपये प्रति लीटर और डीजल की कीमत में 10 रुपये प्रति लीटर की कमी की थी. अखबार ने आगे लिखा है कि ऐसा लगता है कि मोदी सरकार अब चार महीने के इस नुकसान की भरपाई  जनता पर और बोझ लादकर करना चाहती है.

24 मार्च के अपने संपादकीय में, ‘रोज़नामा’ ने लिखा है कि इसमें कोई संदेह नहीं है कि भारत को अपने इस्तेमाल लिए जरुरी ईंधन का 85 प्रतिशत हिस्सा विदेशों से आयात करना पड़ता है, और वैश्विक बाजार में तेल की कीमत पर सरकार का कोई नियंत्रण नहीं है, मगर इसका उन करों पर तो नियंत्रण है जो हमारे देश के अंदर लगाए जाते हैं. इसमें लिखा गया है कि आम आदमी को महंगाई की मार से कुछ हद तक बचाने के लिए इस विकल्प का इस्तेमाल किया जा सकता है, लेकिन सरकार ऐसा नहीं करती.

द कश्मीर फाइल्स

21 मार्च को छपे एक आलेख में, इंकलाब ने लिखा कि कई राजनीतिक नेताओं ने केंद्र और राज्यों में भाजपा सरकारों द्वारा जम्मू-कश्मीर से कश्मीरी पंडितों के पलायन पर आधारित फिल्म ‘द कश्मीर फाइल्स’ का उपयोग मुसलमानों के खिलाफ नफरत भड़काने के लिए और इस मुद्दे का राजनीतिकरण करने के लिए उनकी आलोचना की है. अखबार ने वरिष्ठ कांग्रेस नेता जयराम रमेश का उदाहरण दिया, जिन्होंने केंद्र द्वारा इस फिल्म के प्रचार पर आपत्ति जताई थी, और कहा था कि एक राजनेता का काम घावों पर मरहम लगाना है, लेकिन वे समाज में मौजूद डर का फायदा ‘बांटों और राज करो’ की नीति के लिए उठाते हैं. अखबार ने विभिन्न कांग्रेस नेताओं और सामाजिक कार्यकर्ता-सह-राजनेता योगेंद्र यादव के इन बयानों को भी जगह दी जिसमें दावा किया गया था कि यह बात दोनों समुदायों को विभाजित करेगी.

शिक्षा के मुद्दे   

23 मार्च को, ‘रोज़नामा’ ने ‘शिक्षा के भगवाकरण’ पर एक संपादकीय छापा. इसमें अखबार ने लिखा कि भारत का संविधान सभी के लिए बराबरी की गारंटी देता है और धर्म या लिंग के आधार पर बिना किसी भेदभाव के सभी को शिक्षा का अधिकार देता है. देश में शिक्षा के भगवाकरण का बचाव करने वाले उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडू के बयान- जो भगवद गीता को गुजरात के सभी सरकारी स्कूलों में पाठ्यक्रम का एक हिस्सा बनाने की पृष्ठभूमि में आया था – की आलोचना करते हुए इस अखबार ने लिखा कि भारत की प्राचीन विरासत और सभ्यता महिलाओं एवं समाज के निचले तबके को इस्लाम का पालन करने देने का अधिकार देने को तैयार नहीं थी और अगर औरतें एवं समाज के निचले तबके के लोग गलती से वेदों और शास्त्रों में लिखित शब्दों को सुन ले तो उनके कानों ने पिघला शीशा डालने की बात की जाती थी. अखबार ने सवाल किया कि क्या नायडू इसी चीज को वापस लाना चाहते हैं?

उसी दिन, इंकलाब ने एक संपादकीय प्रकाशित किया जिसमें चीन में मेडिसिन की पढाई करने वाले उन कई भारतीय छात्रों की ओर इशारा किया गया था, जिन्हें कोविड महामारी की शुरुआत में घर लौटने के लिए मजबूर होना पड़ा था, और तब से उन्हें अपनी शिक्षा ऑनलाइन जारी रखनी पड़ रही है. अब, यूक्रेन में छिड़ी जंग ने वहां पढ़ने वाले कई और भारतीय छात्रों को, जिनमें अधिकांश मेडिकल छात्र हैं, को भी वापस घर लौटने के लिए मजबूर कर दिया है.

लेकिन मेडिसिन की पढाई ऑनलाइन पूरी नहीं की जा सकती है और इसके लिए व्यावहारिक अनुभव की जरुरत होती है. इस अखबार में लिखा है कि घर लौटने को मजबूर हुए कई छात्रों ने अनुरोध किया है कि उन्हें भारतीय चिकित्सा संस्थानों में प्रायोगिक कक्षाओं में शामिल होने की अनुमति दी जाए. लेकिन इसके लिए संबंधित विश्वविद्यालयों से मंजूरी लेनी होगी. अखबार ने कहा कि इन छात्रों की समस्यों की हल किये जाने की जरूरत है.

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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