ऑडिटी 2022 एक ऐसा अनूठा कैलेंडर है जिसमें देश की भिन्न और हाशिये पर रहने वाली जातियों, वर्गों और लिंगों के 12 लोगों को एक साथ लाकर समावेशी और विविधतापूर्ण समाज की तस्वीर को उकेरने की कोशिश की गई है. इसकी तस्वीरें ट्रांस-क्वीर और दिव्यांग लोगों पर केंद्रित हैं. दिल्ली के फोटोग्राफर ऋषभ दहिया द्वारा शूट किए गए इस कैलेंडर का उद्देश्य समाज के ‘सौंदर्य मानकों’ को तोड़ना है जिसे वह जातिवादी, वर्गवादी, यूरो-सेंट्रिक, होमोफोबिक, ट्रांसफोबिक और फैटफोबिक मानते हैं.
दहिया का कहना है, ‘हमें इस बात पर पुनर्विचार करने की जरूरत है कि आखिर सुंदरता का पैमाना क्या है और उन लोगों को सामान्य तौर पर दर्शाने की जरूरत है जिन्हें ‘खूबसूरती’ के खांचे में फिट नहीं हो पाने के कारण कुछ ‘अजीब’ मान लिया जाता है. हमें ऐसे आइकन की जरूरत है जो इतने विविधता भरे देश में हर रोज सामान्य लोगों की तरह नजर आएं.’
दहिया ने सौंदर्य मानकों को ‘सामान्य’ बनाने का पहला प्रयास 2020 में किया था, जब उन्होंने पूर्वा मित्तल के साथ ऑडिटी को लॉन्च किया और एक डेस्कटॉप कैलेंडर के लिए कुछ खास विशिष्टताओं वाले छह लोगों का फोटो शूट किया और फिर 2021 में उन्होंने इसमें और विविधता लाने का फैसला किया.
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कैलेंडर, मॉडल और सेलिब्रिटी
कुछ समय पहले लगभग सभी भारतीय घरों में कैलेंडर अवश्य होते थे और उन्हें ड्राइंग रूम या स्टडी टेबल में गर्व से लगाया जाता था. समय के साथ डिजिटाइजेशन और फोन ने ऐसे फिजिकल कैलेंडर को चलन से बाहर कर दिया.
हालांकि, धनाढ्य और कुलीन वर्ग के लिए विशेष तौर पर कैलेंडर तैयार किया जाना बढ़ा है, जहां केवल ‘बेस्ट’ फोटो ही शामिल होने की उम्मीद की जाती है. और ‘बेस्ट’ का मतलब है वो सुंदरता जिसे कुछ परंपरागत मानकों के तहत ही फिट माना जाता है.
भारत में ऐसे खास किस्म के कैलेंडरों को चलन में लाने वालों में एक नाम यूनाइटेड ब्रेवरीज ग्रुप का है, जिसने 2003 में लोकप्रिय किंगफिशर कैलेंडर बनाया था. यह महज एक कैलेंडर नहीं होता बल्कि भारत का सबसे प्रतिष्ठित मॉडलिंग असाइनमेंट कहा जाता है और इसने कैटरीना कैफ, दीपिका पादुकोण और मॉडल एंजेला जॉनसन आदि को स्टारडम दिलाने में अहम भूमिका निभाई.
इसी तरह डब्बू रतनानी का कैलेंडर शूट भी काफी चर्चित है. किंगफिशर कैलेंडर में जहां मॉडल्स छाई रहती हैं वहीं रतनानी का कैलेंडर बॉलीवुड की हस्तियों पर केंद्रित होता है और किसी भी सेलिब्रिटी के लिए इस फोटोग्राफर के कैलेंडर फोटो शूट का हिस्सा बनना बड़ी बात माना जाता है, जो पिछले 25 सालों से ऐसा कर रहे हैं.
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‘ऑड’ पीपुल
ऑडिटी का हिस्सा बने राम गुरू कहते हैं, ‘जब उन्होंने मेरा मेकअप किया तो उन्होंने मुझे बताया कि वे कौन से उत्पाद इस्तेमाल कर रहे थे और मेरे चेहरे पर क्या किया जा रहा था.’ जन्म से ही अंधे गुरु के लिए केवल कैलेंडर में शामिल होना ही एक खुशनुमा अहसास भर नहीं है, बल्कि यह उस समाज का हिस्सा होना महसूस करने के लिहाज से भी बेहद महत्वपूर्ण है जो अब भी शारीरिक अक्षमता को लेकर कोई स्पष्ट दृष्टिकोण नहीं बना पाया है. जवाहरलाल यूनिवर्सिटी में पीएचडी के प्रथम वर्ष के छात्र गुरू का कहना है कि मॉडलिंग करने वालों के लिए खास मानी जाने वाली जगह में शामिल किए जाने से दिव्यांग लोगों और उनके मुद्दों पर ध्यान आकृष्ट करने में अधिक मदद मिलेगी.
दिल्ली यूनिवर्सिटी में असिस्टेंट प्रोफेसर कामना कहती हैं, ‘मेरी त्वचा के रंग के कारण हमेशा मेरी जाति की पहचान पर सवाल उठाए गए, कभी सीधे तो कभी परोक्ष रूप से. मैंने अपनी त्वचा के रंग के कारण अछूत होने जैसे अनुभव किया. लेकिन इस तरह उठने वाली नजरों की परवाह न करके मैंने मॉडलिंग शुरू कर दी.’
दहिया एक फैशन फोटोग्राफर के तौर पर काम करते हैं और एफबीबी फेमिना मिस इंडिया, टाइम्स म्यूजिक और लैक्मे फैशन वीक जैसे प्रीमियम ब्रांड के साथ काम कर चुके हैं. उनका कहना है कि वह एक ऐसी स्पेस चाहते थे जिसमें प्रतिनिधित्व मायने रखता हो. उन्होंने बताया, ‘कैलेंडर में शामिल अधिकांश लोगों से मैं क्लब हाउस के जरिये मिला, और उनके साथ काफी घनिष्ठता के साथ बातचीत की.’
वह चाहते थे कि शूट एक ऐसा अनुभव हो जिसमें वे सहज महसूस करें और अपने आप को वैसे ही व्यक्त कर सकें जैसे कि वे वास्तव में हैं.
क्या हम समावेशी समाज में रह रहे हैं?
2020 में दि आर्ट सेंक्चुअरी, बेंगलुरु के एक डेस्कटॉप कैलेंडर में बौद्धिक अक्षमता वाले आठ फोटोग्राफरों की क्लिक की तस्वीरों को शामिल किया गया था. लेकिन ऐसे कदम उठाने वाले गिने-चुने लोग ही हैं.
समावेशी समाज और सबकी भागीदारी की बात करें तो ऐसा अक्सर सांकेतिक रूप से ही होता है. और कामना इस बात से सहमत हैं कि बदलाव किसी एक व्यक्ति के बूते की बात नहीं है.
हाल में जब हरनाज संधू को मिस यूनिवर्स का ताज पहनाया गया था तो भी यह सवाल उठा कि क्या हम एक ज्यादा समावेशी समाज की ओर बढ़े हैं, खासकर भारत में. क्योंकि जब मॉडलिंग की बात आती है तो हम भी लंबी मॉडल की ही तलाश करते हैं, जबकि भारतीय महिलाओं की औसत लंबाई 5.3 फीट है. पर्याप्त लंबाई न होने पर किसी के लिए भी प्रिंट मॉडलिंग का विकल्प चुनना तो आसान हैं लेकिन रैंप मॉडलिंग की दुनिया में एक निश्चित लंबाई, बॉडी टाइप और वजन को ही पहली ‘जरूरत’ माना जाता है.
हालांकि, पहले भी कई बार यह स्टीरियोटाइप तोड़ने को प्रयास किया गया है—चाहे 52 वर्षीय लॉन्जरी मॉडल गीता जे हों या प्लस साइज की ट्रांसजेंडर मॉडल मोपना वरोनिका कैंपबेल. लेकिन रूढ़िवादी सोच एक बार टूटने के बाद स्थिति फिर वही हो जाती है. दूसरों को आगे कोई मौका नहीं मिलता और फिर त्वचा के रंग का मामला हो, या उम्र, लंबाई या बॉडी टाइप की बात, हमारी सोच अंतत: फिर सौंदर्य के निर्धारित पैमाने के इर्द-गिर्द ही सिमटी रह जाती है.
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