नई दिल्ली: 2007 में दिल्ली हाईकोर्ट ने राष्ट्रीय राजधानी के नगर निकायों को शहर में पाए जाने रहने वाले बंदरों को असोला भट्टी वन्यजीव अभयारण्य पहुंचाने का आदेश दिया, क्योंकि बंदरों का खतरा बेकाबू होता जा रहा था. 11 साल बाद दिल्ली सरकार ने बंदरों की आबादी पर काबू पाने के लिए उनकी नसबंदी की तीन साल की योजना बनाई.
लेकिन हाईकोर्ट के आदेश के लगभग डेढ़ दशक बीत जाने के बाद भी दिल्ली में ‘बंदरों के खतरे’ पर काबू पाने के प्रयासों में बहुत ज्यादा प्रगति नहीं हुई है.
इंसानों और बंदरों के बीच संघर्ष सिर्फ दिल्ली तक सीमित नहीं है. केंद्र की तरफ से संचालित प्राइमेट रिसर्च सेंटर, जोधपुर के 2015 के आंकड़े बताते हैं कि देशभर के शहरों में हर दिन बंदरों के काटने के 1,000 से अधिक मामले आते हैं. राष्ट्रीय राजधानी में 2018 में बंदरों के हमले के 950 से अधिक मामले दर्ज किए गए और 2019 में रोजाना ऐसी 20 घटनाएं होने का अनुमान है.
बंदरों का शहरी और अर्ध-शहरी क्षेत्रों में पहुंचना तमाम राज्य सरकारों के लिए एक बड़ी चुनौती बना हुआ है. विशेषज्ञों का कहना है कि वन्यजीवों के लिए कम होती जगह और वन्य जीवों खासकर बंदरों के लिए—जिनके प्रति लोग भगवान हनुमान के प्रति आस्था की वजह से बहुत श्रद्धा रखते हैं—भोजन की निरंतर उपलब्धता ने इस चुनौती को और ज्यादा बढ़ाया ही है.
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शहर में बंदरों की समस्या क्यों है
वन्यजीव विशेषज्ञों के अनुसार, शहरों में बंदरों की संख्या बढ़ने का एक प्रमुख कारण उनके प्राकृतिक आवास तेजी से कम होना और भोजन की आसान उपलब्धता है, जिससे कारण उनकी प्रजनन दर भी अधिक हो जाती है.
बंदरों की समस्या पर काबू पाने की दिल्ली सरकार की पहल का नेतृत्व करने वाले भारतीय वन्यजीव संस्थान (डब्ल्यूआईआई) के प्रोफेसर कमर कुरैशी ने कहा, ‘बंदर इंसानों के साथ सह-अस्तित्व में रह सकते हैं, और दिल्ली जैसे शहरों में भोजन बहुत अधिक मात्रा में उपलब्ध होता है और यह उनके भरपूर प्रजनन की वजह है. हमारे अध्ययन से संकेत मिलता है कि हर मादा बंदर हर साल बच्चों को जन्म दे रही है. नैसर्गिक तौर पर ऐसा नहीं होता है. केवल उन्हीं हिस्सों में वे (इस तरह) प्रजनन करते हैं, जहां भोजन की गुणवत्ता अच्छी होती है.’
सरकार ने अपनी पहल के तहत कुछ साल पहले शहर में बंदरों की गिनती की कोशिश की थी लेकिन ज्यादा सफलता नहीं मिल पाई.
कुरैशी ने कहा, ‘प्रमुख शहर बंदरों के हमले की समस्या पर काबू पाने में असमर्थ हैं तो इसका सबसे बड़ा कारण यह भी है कि हम ढिलाई बरतते रहे और उनकी आबादी को नियंत्रित करने के लिए समय पर कोई कार्रवाई नहीं की. प्रजनन पर काबू पाने का विकल्प हमेशा से उपलब्ध था. इसलिए, मुझे लगता है कि कहीं न कहीं कुप्रबंधन के कारण ऐसा नहीं हो पाया है.’
हो सकता है कि रीसस और बोनट मैकाक और लंगूर जैसे बंदरों को खाना खिलाने से, क्योंकि उन्हें भगवान हनुमान के रूप में देखा जाता है, इन जीवों के खिलाफ सहिष्णुता का माहौल बनता हो, लेकिन ऐसा माना जाता है कि इससे समस्या बढ़ी है.
अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के वन्यजीव विज्ञान विभाग में सहायक प्रोफेसर शरद कुमार करते हैं, ‘चूंकि हम हिंदू पौराणिक कथाओं में भगवान हनुमान के साथ जोड़कर उन्हें भोजन देते हैं, इसलिए उन्हें भोजन खोजने और इकट्ठा करने में जो ऊर्जा लगानी चाहिए थी, वह प्रजनन की ओर लगाते हैं. इसलिए, स्वाभाविक तौर पर उनकी आबादी बढ़ना तय ही है.’
शरद कुमार जहां वनों की कटाई की वजह से बंदरों के प्राकृतिक आवास को सिकुड़ना उन्हें शहरों की ओर पलायन का एक अहम फैक्टर बताते हैं, वहीं कुरैशी इस बात से असहमत हैं.
उन्होंने कहा, ‘यह एक मिथक है. अधिक पेड़ लगाकर या फलदार पेड़ लगाकर, जैसा कुछ सरकारों ने किया भी है, बंदरों को जंगलों में रहने के लिए आकृष्ट नहीं किया जा सकता. भोजन की उपलब्धता के कारण उनकी आबादी का एक बड़ा हिस्सा जंगलों में बहुत कम और शहरी और अर्ध-शहरी में अधिक है.’
1977 तक भारत जैव चिकित्सा अनुसंधान के लिए बंदरों की रीसस मैकाक और बोनट मैकाक जैसी प्रजातियों को अमेरिका और यूरोप को निर्यात करता था. लेकिन शोध के दौरान जानवरों के साथ किए बर्बर व्यवहार की खबरों के बाद इस पर रोक लगा दी गई थी.
दिल्ली की योजनाएं सफल नहीं हो पाईं
दिल्ली में पिछले कुछ सालों से बंदरों के हमलों की घटनाएं काफी बढ़ी हैं. इस स्थिति की गंभीरता ही 2020 में आई फिल्म ईब अल्ले ऊ! का आधार थी. यह डार्क कॉमेडी एक प्रवासी श्रमिक को लेकर थी जो बंदरों को सरकारी भवनों से दूर रखने की नौकरी करता है.
बंदरों के हमले को रोकने के लिए दिल्ली सरकार की योजनाएं अभी तक सफल नहीं हो पाई हैं.
2019 में सरकार ने डब्ल्यूआईआई, देहरादून के साथ मिलकर बंदरों की आबादी का अनुमान लगाने, उन क्षेत्रों की पहचान करने जहां उनकी सबसे अधिक आबादी है और उस डेटा का उपयोग उनकी नसबंदी करने की योजना शुरू करने का प्रयास किया. हालांकि, प्रस्तावित जनगणना से पहले ही महामारी और कर्मचारियों की पर्याप्त संख्या के अभाव में ऐसा हो नहीं पाया.
इसके अलावा, जैसा पीटीआई ने 8 नवंबर को अधिकारियों के हवाले से दी गई एक खबर में बताया है, केंद्र सरकार की तरफ से अपनी तीन साल की योजना के पहले वर्ष में 8,000 बंदरों की नसबंदी के लिए जनवरी 2019 में दिल्ली के वन विभाग को 5.43 करोड़ रुपये की मंजूरी दी गई थी लेकिन फिर भी अब तक एक भी बंदर की नसबंदी नहीं की गई है.
पूर्व में बंदरों को पकड़ने और उन्हें असोला भट्टी वन्यजीव अभयारण्य में छोड़ने के प्रयासों का भी उल्टा ही असर हुआ, क्योंकि आसपास के क्षेत्रों खासकर वसंत कुंज और साकेत जैसे पॉश इलाकों में रहने वाले नागरिकों ने शिकायत की थी कि ये बंदर अभयारण्य से भाग आते हैं और उनकी कॉलोनियों के लिए एक बड़ा खतरा बन रहे हैं.
दिल्ली सरकार की विफलताओं पर उप वन संरक्षक मनदीप मित्तल ने कहा, ‘प्रस्ताव तैयार था और फंड भी उपलब्ध था लेकिन विभाग को 2019 में नसबंदी के लिए कोई संगठन नहीं मिला. कोई भी संगठन इसके लिए आवेदन कर सकता था लेकिन मुझे लगता है कि ऐसा करने के लिए किसी के पास वर्कफोर्स या आवश्यक कौशल नहीं था.’
समस्या बड़े शहरों तक ही सीमित नहीं
बंदरों का आतंक सिर्फ दिल्ली तक सीमित नहीं है. बिहार और हिमाचल प्रदेश में निवासियों ने बंदरों के हमलों के कारण होने वाले नुकसान के प्रति जागरूकता बढ़ाने के लिए क्रमशः ‘बंदर मुक्ति अभियान समिति’ और ‘खेती बचाओ आंदोलन समिति’ जैसे संगठन तक बनाए हैं.
हिमाचल प्रदेश निकाय के एक प्रतिनिधि ने 2015 में डाउन टू अर्थ को बताया था कि राज्य के किसानों को 2007 और 2012 के बीच बंदरों के कारण 2,200 करोड़ रुपये की फसल का नुकसान हुआ.
बंदरों के बढ़ते हमलों ने कर्नाटक के ग्रामीण इलाकों में खेती करने को ही ‘अव्यावहारिक’ बना दिया और इसके कारण किसान बंदरों को पकड़ने में जुटे रहते हैं. इससे बंदरों की पूजा करने वालों और अपनी खेती आदि बचाने के लिए उन्हें पकड़ने का सहारा लेने वालों के बीच टकराव भी होते हैं.
बंदरों की समस्या से निपटना
हिमाचल प्रदेश वन विभाग, शिमला के एक पेपर के मुताबिक, बंदरों के हमले के कारण राज्य को प्रति वर्ष 150 करोड़ रुपये के खाद्यान्न और सब्जियों का नुकसान होता है. यद्यपि यह देश के कुछ उन चुनिंदा राज्य में से एक है जिन्होंने समस्या पर काबू पाने के लिए व्यापक योजनाएं अपनाई और काफी धन भी व्यय किया—जिसमें रबर बुलेट इस्तेमाल, तेज शोर से बंदरों को भगना और नसबंदी का उपयोग शामिल है—लेकिन फिर भी पूरी तरह से सफलता हासिल नहीं कर पाया.
डब्ल्यूआईआई के प्रोफेसर कुरैशी ने बताया, ‘हिमाचल प्रदेश सरकार ने आबादी पर नियंत्रण के लिए अच्छा काम किया, लेकिन वह इन प्रयासों को निरंतर जारी रखने में चूक गई. और वैज्ञानिक रूप से आबादी पर नजर रखने में नाकाम रही.’
इस सवाल पर कि दिल्ली सरकार ने इस समस्या से निपटने की क्या कोशिश की, पर कुरैशी ने कहा कि एक अभयारण्य की स्थापना और उन्हें उन्हें उसमें कैद करके रखना भी लंबी अवधि में बंदरों की आबादी को नियंत्रित करने में असफल साबित होगा.
वरिष्ठ वैज्ञानिक ने कहा, ‘सिर्फ बंदरों को कहीं एक जगह से पकड़कर किसी अभयारण्य या किसी अन्य स्थान पर छोड़ देना ही इस समस्या का समाधान नहीं है जब तक कि उनकी नसबंदी नहीं होती. हमारा मॉडल बताता है कि आबादी को नियंत्रित करने के लिए 70-80 प्रतिशत वयस्क मादाओं की नसबंदी की जानी चाहिए.’
उन्होंने कहा, ‘उन जगहों पर जहां समस्या बहुत अधिक नहीं है, आप 50-60 प्रतिशत सर्जिकल नसबंदी करते हैं और बाकी में इम्यूनोकॉन्ट्रासेप्शन नसबंदी करते हैं. दूसरा वाला समाधान अस्थायी है और केवल दो से तीन साल के लिए ही कारगर है.’
कुरैशी ने कहा कि ‘उनकी आबादी में कमी लाने के प्रयास कम से कम 8-10 वर्षों तक जारी रहने चाहिए.’ उन्होंने कहा, ‘हमें इस अवधि के दौरान अधिक से अधिक जानवरों की नसबंदी करते रहने की जरूरत है.’
कुमार भी इस बात से सहमत है. उन्होंने कहा, ‘ज्यादातर सरकारें इन बंदरों को पकड़कर अन्य जगहों पर छोड़ रही हैं. हिमाचल प्रदेश की तरह ही नर और मादा बंदरों दोनों की नसबंदी कराकर उनकी आबादी को नियंत्रित करना एकमात्र स्थायी समाधान है.’
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