दलित के नेतृत्व वाली एकमात्र राष्ट्रीय राजनीतिक पार्टी, बहुजन समाज पार्टी (बसपा) वैसे तो कभी भी मीडिया की चहेती नहीं रही लेकिन हाल की टिप्पणियों के मद्देनजर यह सोचने पर मजबूर होना पड़ता है कि प्रेस कहीं इस पार्टी को राष्ट्रीय परिदृश्य से मिटा देने की साजिश तो नहीं कर रहा. तमाम टीवी समाचार चैनलों को देख लीजिए, आपको यही सुनने को मिलेगा कि ‘बसपा तो भाजपा की बी टीम है’ या यह कि उत्तर प्रदेश के चुनाव सिर पर हैं मगर ‘मायावाती अपनी पूरा ज़ोर नहीं लगा रही हैं’. कुछ का तो मानना है कि बसपा ने पहले ही मैदान छोड़ दिया है, तो कुछ का कहना है कि आज के राजनीतिक समीकरण में बसपा नेता किसी गिनती में नहीं हैं. आलोचकों का कहना है कि मुक़ाबला तो भाजपा और सपा के बीच ही है. ये सारी टिप्पणियां इतनी समान हैं कि आपको लग सकता है, ये कहीं एक ही पटकथा से तो नहीं निकली हैं.
इन सबके बीच, मायावती ने बसपा संस्थापक कांशीराम की पुण्यतिथि 9 अक्तूबर पर जो विशाल रैली की उसने इन सबको गलत साबित कर दिया है. करीब दो लाख की जनसभा की ओर इशारा करते हुए मायावती ने कहा कि यही हमारे आलोचकों के लिए एक जवाब है. बसपा नेता ने कहा कि उन लोगों को इस विशाल भीड़ से समझ में आ जाना चाहिए कि उनकी पार्टी की चुनावी तैयारी कैसी है.
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सीबीआई मिथक का भंडाफोड़
उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के लिए बसपा की रणनीति और तैयारियों को लेकर आम तौर पर जो दावा किया जाता है उसकी हकीकत भी जान लें. इस पार्टी के खिलाफ पहला आरोप यह लगाया जाता है कि चूंकि मायावती सीबीआई /आयकर विभाग से डरती हैं इसलिए हर राज्य में वे जानबूझकर ‘सेकुलर ताकतों को कमजोर’ करती रही हैं. उत्तर प्रदेश और बिहार को छोड़ उत्तर भारत के अधिकतर राज्यों में मुक़ाबला भाजपा और कांग्रेस के बीच ही होता है.
पंजीकृत राष्ट्रीय पार्टी होने के नाते बसपा राजस्थान, दिल्ली, हरियाणा, मध्य प्रदेश, उत्तराखंड और पंजाब में कुछ हद तक अच्छी मौजूदगी रखी है.
इसी वजह से आरोप लगता है कि वह भाजपा को अप्रत्यक्ष रूप से मदद करती है. और इससे उसके वजूद पर ही सवाल खड़ा हो जाता है. क्या एक राष्ट्रीय पार्टी को देश भर में चुनाव नहीं लड़ना चाहिए?
इसी वजह से माना जाता है कि वह भाजपा को अप्रत्यक्ष रूप से मदद करती है. और इससे उसके वजूद पर ही सवाल खड़ा हो जाता है. कई मौकों पर दावे के विपरीत बसपा ने इन राज्यों में गतिरोध पैदा हो जाने पर इसकी प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस की ही मदद की है. इसके कुछ उदाहरण नीचे दिए जा रहे हैं—:
1. मई 2016 में उत्तराखंड के तत्कालीन मुख्यमंत्री हरीश रावत ने सदन में शक्ति परीक्षण में कांग्रेस की मदद करने के लिए मायावती और उनके विधायकों को धन्यवाद दिया था. उन्होंने कहा था, ‘मायावती और बसपा को धन्यवाद देने के लिए मेरे पास शब्द नहीं हैं. बसपा की सहायता से हमें काफी राहत मिली है.’
2. कर्नाटक विधानसभा के 2018 के चुनाव के बाद गतिरोध की स्थिति पैदा हो गई थी तब मायावाती ने ही कांग्रेस और जनता दल (एस) के बीच गठजोड़ करवा के भाजपा को सत्ता में आने से रोका था. मायावती ने सोनिया गांधी और एचडी देवेगौड़ा को फोन करके गठबंधन करने और सरकार बनाने को राजी किया था. सोनिया और मायावती के गले मिलने की ऐतिहासिक तस्वीर इसका प्रमाण है.
3. 2018 में ही बसपा ने भाजपा को राजस्थान और मध्य प्रदेश में सत्ता से दूर रखने के लिए कांग्रेस को समर्थन दिया था.
4. बसपा ने मनमोहन सिंह की यूपीए सरकार को बिना कोई मंत्री पद लिये 10 साल तक समर्थन दिया. फिर भी बसपा को सहयोगियों की इस तरह मदद करने का कोई श्रेय नहीं दिया जाता. यह कांग्रेस की नाकामी ही थी कि मध्य प्रदेश और कर्नाटक में वह अपनी सरकार न बचा सकी और भाजपा ने दलबदल करवाके दोनों राज्यों को अपने कब्जे में कर लिया.
अगर मायावती सीबीआई और आयकर विभाग से (जिनके बारे में कहा जाता है कि नरेंद्र मोदी की सरकार विरोधियों के खिलाफ उनका इस्तेमाल करती है) डर रही होतीं तो फिर उनकी पार्टी बसपा कई बार कांग्रेस को मुसीबत में समर्थन क्यों देती?
लोकसभा में बसपा की वोटिंग
बसपा पर दूसरा आरोप यह है कि वह संसद में विवादास्पद विधेयकों के मामले में भाजपा की मदद करती रही है. आगे हम यह देखने की कोशिश करेंगे कि सदन में वोटिंग करने के मामले में दूसरी पार्टियों की तुलना में बसपा पर यह आरोप कितना सही है, मीडिया ने क्या उसके लिए कसौटी बहुत ऊंची रखी है?—
1. बसपा ने दोनों सदनों में सीएए और नागरिकता विधेयक का जोरदार विरोध किया और उसके खिलाफ मतदान किया.
2. उसने उन विवादास्पद कृषि कानूनों का विरोध किया है जिनके खिलाफ किसान महीनों से आंदोलन कर रहे हैं.
3. बसपा ने तीन तलाक विधेयक के खिलाफ लोकसभा में मतदान किया हालांकि राज्यसभा में उसके चार सांसदों ने मतदान में भाग नहीं लिया. इसे भाजपा के साथ उसकी आपसी समझदारी बताया जा रहा है.
4. बसपा ने अनुच्छेद 370 को रद्द करने का खुला समर्थन किया.
सदन में बसपा की तुलना में सपा और एनसीपी का रुख कैसा रहा? गौरतलब है कि तीन तलाक विधेयक को राज्यसभा से मंजूरी दिलाने के समय सदन से बाहर रहने की चाल सभी दलों ने चली, चाहे वह कांग्रेस रही हो या सपा, एनसीपी, राजद, तृणमूल कांग्रेस, द्रमुक, या भाकपा या अन्य दल, जिसके चलते सदन में विपक्ष कमजोर हुआ.
अनुच्छेद 370 को रद्द करने के लिए मतदान के समय भी दूसरे दलों का रवैया बसपा से भिन्न नहीं था. ‘आप’ ने विधेयक का समर्थन किया, तो तृणमूल कांग्रेस के सांसदों ने वाकआउट किया. एनसीपी के सांसद सदन से गायब रहे. इस तरह विधेयक का विरोध कमजोर हुआ. सपा के अखिलेश यादव ने गोलमोल बातें की मगर विधेयक का आधे मन से समर्थन ही किया. उनके दो सांसदों ने मतदान में भाग नहीं लिया. एनसीपी के अजित पवार ने विधेयक का सार्वजनिक रूप से समर्थन किया.
यानी, टीकाकार अगर बसपा की वोटिंग के आधार पर उसे भाजपा के प्रति ‘नरम’ बताते हैं तो उन्हें सपा, एनसीपी, तृणमूल कांग्रेस और आप को भी उतना ही ‘नरम’ बताना चाहिए.
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चुनावी तैयारियां
बसपा पर तीसरा आरोप यह है कि वह 2022 के चुनाव की पूरी तरह से तैयारी नहीं कर रही है. टीवी चैनलों की रट यही है कि ‘बसपा पिक्चर में नहीं है’. लेकिन जमीनी हकीकत क्या है?
बसपा पहली पार्टी है जिसने प्रदेश की 403 में से अधिकतर विधानसभा सीटों पर अपने उम्मीदवार घोषित कर दिए हैं. उसने कई महीने पहले ही ब्राह्मण सम्मेलन का आयोजन शुरू करके एजेंडा तय कर दिया था, जिसे दूसरे दलों ने अपनाया.
आगामी विधानसभा चुनाव के लिए घोषित उसके 400 उम्मीदवारों में दलित, ओबीसी, मुस्लिम और ऊंची जातियों में से प्रत्येक को 25-25 फीसदी टिकट दिए गए हैं. मायावती प्रियंका गांधी वाड्रा या अरविंद केजरीवाल जैसे नेताओं में नहीं हैं जो अक्सर धरने पर बैठा करते हैं. बसपा ने कभी टकराव वाली राजनीति नहीं की है, चाहे 1980 के दशक में अपने उत्कर्ष पर क्यों न रही हो. वह काडर का आधार और अपनी ताकत बढ़ाने में यकीन रखती है और इसे सामाजिक समस्याओं के समाधान की कुंजी मानती है. उसे दलितों पर अत्याचार के मामलों के विरोध में प्रतिक्रियावादी कदम उठाते और धरना-प्रदर्शन करते शायद ही देखा गया है.
2017 के बाद से बसपा ने सोशल मीडिया में भी अपनी मौजूदगी बढ़ाई है और मीडिया के साथ रफ्त-जफ्त भी. इसके प्रवक्ता सभी मंचों पर आकार संवाद कर रहे हैं और लोगों को मायावती की पिछली सरकारों की उपलब्धियां बता रहे हैं.
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गठजोड़ का सिद्धांत
चौथी धारणा यह है कि बसपा पहले भी भाजपा से हाथ मिला चुकी है इसलिए फिर उससे हाथ मिला सकती है.
बसपा ने 1995, 1996, 2003 में भाजपा से हाथ मिलाया था. यह मुख्यतः उत्तर प्रदेश के चुनाव में त्रिकोणीय गतिरोध को खत्म करने के लिए किया गया था, और बेशक उसकी अपनी शर्तों पर किया गया था कि मुख्यमंत्री की गद्दी मायावती को ही मिले, भाजपा को नहीं. बसपा ने विधानसभा में भाजपा के किसी मुख्यमंत्री का कभी समर्थन नहीं किया. मायावती के राज को कानून-व्यवस्था के सख्त पालन के लिए याद किया जाता है, जिसे दंगों के लिए बदनाम राज्य के लिए एक वरदान माना गया.
पिछले 18 साल से बसपा ने भाजपा के साथ न तो चुनाव से पहले हाथ मिलाया और न बाद में. फिर भी अगर उसे भाजपा की बी टीम माना जाता है, तो तृणमूल कांग्रेस (ममता बनर्जी भाजपा के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार में रेल मंत्री थीं), एनसीपी (महाराष्ट्र में भाजपा सरकार को बाहर से समर्थन दिया), टीडीपी, और शिवसेना भी उतनी ही कसूरवार है. 2020 में विधान परिषद के चुनाव के दौरान मायावती ने जो बयान दिया था कि ‘सपा उम्मीदवारों को हराओ, भले ही इससे भाजपा या दूसरी पार्टियों के उम्मीदवार जीत जाएं’, उसे बसपा-भाजपा तालमेल का सबूत बताया जाता है.
गौरतलब है कि यह बयान बसपा से दलबदल कराने की सपा की कोशिशों के जवाब में दिया गया था. बसपा प्रमुख ने बाद में स्पष्ट किया था कि यह बयान केवल विधान परिषद के चुनाव के संदर्भ में दिया गया था, कि वे भाजपा से चुनावी गठजोड़ करने की जगह राजनीति से संन्यास लेना पसंद करेंगी. विधान परिषद के चुनाव में क्रॉस वोटिंग आम बात है. मसलन 2016 में आधा दर्जन सपा विधायकों ने भाजपा को वोट दिया था और सपा नेतृत्व को ‘मालूम’ था कि भाजपा को जिताने के लिए क्रॉस वोटिंग की गई थी.
बसपा मजबूत जनाधार वाली बड़ी ताकत है. 2017 में सबसे खराब प्रदर्शन करने के बावजूद 22.2 फीसदी वोट के साथ वह दूसरे नंबर की पार्टी थी जबकि सपा 21.8 फीसदी वोट लेकर उसके नीचे थी. संगठन में हाल में हुए बदलावों ने बसपा को पहले के मुक़ाबले ज्यादा मजबूत बनाया है. जेएनयू में सोशियोलॉजी के प्रोफेसर विवेक कुमार कहते हैं, ‘403 चुनाव क्षेत्रों में चुनाव प्रचार करने का अनुभव न तो अखिलेश यादव को है और न योगी आदित्यनाथ को. सपा में अब न तो आजम खान हैं, न शिवपाल यादव, मुलायम सिंह यादव या अमर सिंह हैं. योगी आदित्यनाथ को चुनाव के बाद मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठा दिया गया था. इस तरह, उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य में इसबार मायावती का पलड़ा भारी है.’
वैसे भी, मुलायम सिंह 2019 में खुलकर कह चुकें हैं कि वे मोदी को फिर प्रधानमंत्री के रूप में देखना चाहते हैं; गुलाम नबी आज़ाद और शशि थरूर मोदी की तारीफ कर चुके हैं. दिग्विजय सिंह तक अमित शाह की प्रशंसा कर चुके हैं. लेकिन संदेह केवल मायावती पर ही किया जाता है.
बसपा के आलोचक मायावती की नीतियों और रणनीतियों में नुक्स निकालें, यह एक बात है मगर उनकी पूरी तरह उपेक्षा करके उन्हें बार बार ‘बी टीम’ या कठपुतली कहना यह देश की तीसरी सबसे बड़ी पार्टी की नेता के प्रति जातिवादी पूर्वाग्रह को ही उजागर करता है. पिछले विधान सभा चुनाव में चाहे बसपा की सीटें काफी कम आई हों, पर बसपा अभी भी धरातल पर कमजोर नहीं हुई है
रविकिरण शिंदे एक स्वतंत्र लेखक और स्तंभकार हैं. वह सामाजिक-राजनीतिक मुद्दों पर लिखते हैं. वह (@scribe_it) ट्वीट करते हैं. यहां व्यक्त विचार निजी हैं.
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