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Saturday, 20 April, 2024
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लखीमपुर खीरी में मारे गए BJP कार्यकर्ता के परिवार से मैंने क्यों मुलाकात की: योगेंद्र यादव

राजनीति हो या आंदोलन, हम अपने सार्वजनिक जीवन में ऐसा कौन-सा रास्ता अपनाएं जिसमें असुविधाजनक सच्चाई, नैतिक जटिलताओं और न्यूनतम मानवीय संवेदना के लिए जगह हो? लखीमपुर खीरी से मैं यही सवाल लेकर लौटा हूं.

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लखीमपुर खीरी से वापसी के दौरान एक सवाल मुझे लगातार सता रहा था: क्या हमें मृतकों को अपने और पराये के खांचे में बांटकर देखना चाहिए? मेरी आंखों के सामने घर के आंगन में खेलती शुभम मिश्र की एक साल की बेटी की छवि, शुभम की पत्नी का पथराया चेहरा था. मेरे कान में उसके पिता ने जो सवाल मुझसे किये वो गूंज रहे थे.

चार किसान और एक पत्रकार की ‘अंतिम अरदास’ में शामिल होने के लिए मैं लखीमपुर खीरी के तिकुनिया कस्बे में गया था. यही वो जगह थी जहां प्रदर्शनकारी किसानों को कुचल देने की वह बर्बर घटना घटी थी. शायद बचपन के संस्कार की वजह से मेरा मन श्रद्धांजलि सभा के ओजस्वी भाषणों से ज्यादा अरदास में ज्यादा लगा था. बरसो से अलग-अलग किस्म की त्रासदियों के शिकार लोगों के यहां दौरा करने के अनुभव से सीखा है कि दुखों को जानना-समझना हो तो पहले महिलाओं को देखो. औरत का चेहरा त्रासदी के सच की गवाही देता है.

अंतिम अरदास के बाद शहीद किसानों के परिवार की महिलाएं मंच से उतरकर चुपचाप जाने लगीं. मेरी नमस्ते के जवाब में कुछ ने बस सूनी आंखों से देखा, कुछ ने जवाब में अपने हाथ जोड़ दिये. जिस मां के 19 साल के लाल को गाड़ी के नीचे कुचलकर मार दिया गया हो, उससे आप ऐसे मौके पर क्या कह सकते हैं और क्या उम्मीद कर सकते हैं?

ऐसी भयावह घटना के बारे में कहीं कुछ पढ़ लेना या फिर ऐसी घटना की वीडियो देखना एक बात है, और इससे एकदम ही अलग बात है ऐसी घटना का असल जिंदगी में सामना करना. ऐसा लगता था मानो एक हफ्ते में शहीद किसानों की मां, बहन, बेटी की देह से किसी ने जान निकाल ली हो. मुरझाए चेहरे पर स्याह परछाई थी. सिख-संगत के उस किंचित अपरिचित से धार्मिक कर्मकांड के बीच खोया-खोया सा पत्रकार रमन कश्यप का परिवार कुछ भयभीत भी दिखाई पड़ा.

वह नामुराद वीडियो मेरे मन के तहों में बार-बार चल रहा था. बार-बार उस खूंखार, मदमस्त सत्ता के प्रति आक्रोश उमड़ रहा था जो किसी आदमी को इस कदर हैवान बना देती है कि वह दूसरे मनुष्य को इस तरह कुचल दे. एक बार फिर मेरा और वहां मौजूद सभी साथियों का यह संकल्प और ज्यादा मजबूत हुआ कि इस अपराध के सूत्रधार केंद्रीय मंत्री अजय मिश्र को बर्खास्त करने और उनकी गिरफ्तारी होने तक इस मुद्दे पर आंदोलन जारी रखा जाए.

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दूसरी तरफ का दुख

तिकुनिया से रवाना होने पर अंदर से आवाज आई कि लखीमपुर का सफर अभी अधूरा है. बीते एक हफ्ते से मुझसे इस घटना में एक ड्राइवर और दो भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ताओं की मृत्यु के मसले पर कई बार सवाल किया गया था. मैंने हमेशा कहा कि हालांकि इरादतन हत्या और प्रतिहिंसा में हुई मौत की बराबरी नहीं की जा सकती, फिर भी मौत किसी की भी हो, वह हमेशा शोक का विषय है. मुझे उनकी मौत का भी दुख है.

इसलिए अंतर्मन ने कचोटा. अगर मैं अपने कहे को लेकर ईमानदार हूं तो लकीर के उस तरफ के पीड़ितों के परिवार से भी अफसोस करना चाहिए. यूं भी इंसानियत का तकाजा है कि मौत पर अफसोस जताया जाए. जय किसान आंदोलन के मेरे साथियों के मन में शुरुआती आशंका थी कि कहीं विवाद, झगड़े या हाथपाई तक की स्थिति ना बन जाए. लेकिन अंततः हम लखीमपुर शहर के बीचोबीच स्थित बीजेपी के कार्यकर्ता (बूथ इंचार्ज) शुभम मिश्र के घर पहुंचे.

‘क्या आप मृतक की फैमिली से हैं?’ मैंने घर के बाहर, कुछ लोगों के साथ कुर्सी पर बैठे व्यक्ति से पूछा जिसने मुझे देखते ही पहचान लिया था और अभिवादन किया था. ‘हां, मैं शुभम का फादर हूं’, मुझसे कम उम्र के उस उस शख्स ने जवाब दिया. अकबकाहट में खड़े-खड़े मैंने हाथ जोड़ते हुए कहा: ‘बहुत दुख हुआ’! बताया कि मैं शहीद किसानों के अंतिम अरदास से आ रहा हूं.

शुभम मिश्र के पिता के चेहरे पर गुस्सा नहीं पीड़ा के भाव थे, ‘आप पहले व्यक्ति (मैंने समझा, कह रहे हैं किसानों की ओर से आने वाले) हैं जो हमसे मिलने आये हैं. ये सभी बड़े नेता लखीमपुर आये और फिर चले गये. कोई हमसे मिलने नहीं आया. क्या हम लोग किसान नहीं हैं? आपको खसरा खतौनी नंबर बताऊं? मेरे गांव का सरपंच एक सरदार है. क्या हम उसके दुश्मन हैं? मेरे बेटे का अपराध क्या था? नगर में किसी से पूछे लीजिए और मेरे बेटे के खिलाफ कोई एक शब्द भी सुनने को मिले तो फिर मुझसे कहिए?’

इसके बाद शुभम के पिता मेरी ओर मुखातिब हुए: ‘मुझे आपसे कुछ बेहतर की उम्मीद थी. उस दिन राकेश टिकैत जी ने कहा कि मामला क्रिया-प्रतिक्रिया का था. तब आप उनके बगल में ही बैठे थे. आप चाहते तो उनके कहे को दुरुस्त कर सकते थे.’ मैंने जवाब में कहा- मैंने वहीं स्पष्टीकरण दिया था. लेकिन मीडिया ने मेरी उस बात को उन तक नहीं पहुंचाया था.

कोई पौन घंटे तक शुभम के पिता बताते रहे कि कैसे उनका बेटा बेकसूर है और कैसे बाहर से आये प्रदर्शनकारी किसान ही इस पूरी घटना के जिम्मेवार हैं. उनका ऐसा कहना अपेक्षित ही था. उन्होंने पुलिस में लिखवायी शिकायत का पर्चा अपनी जेब से निकाला जिसमें मेरे दोस्त तेजिंदर सिंह विर्क को लीचिंग की घटना के लिए दोष दिया गया है (जिस समय शुभम पर हमला हुआ उससे पहले तेजिंदर सिंह विर्क स्वयं गंभीर रूप से घायल हो अधमरी अवस्था में थे). जाहिर है, घटना के तथ्यों को लेकर उनकी ज्यादातर बातों से मैं सहमत नहीं हो सकता था. लेकिन शोक-संतप्त पिता से बहस करना बेकार ही नहीं हृदयहीन भी होता. यह अवसर तर्क वितर्क का नहीं बल्कि दुख में शरीक होने का था.

मैंने बस इतना कहा- इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वो किसान था या नहीं. मेरे लिए ये बात मायने रखती है कि वो एक इंसान था. ऐसी मौत किसी इंसान के लिए सही नहीं कही जा सकती.

फिलहाल हम नहीं जानते कि शुभम और उन वाहनों में बैठे बाकी सभी लोग साजिश में शामिल थे या नहीं. अभी तक जो सूचना है उसके आधार पर हम लोग बस इतना जानते हैं कि शुभम ना तो प्रदर्शनकारी किसानों पर चढ़ाई गाड़ी ड्राइव कर रहा था और ना ही गोली चलाने वालों में उसका नाम आया है. पहली नजर में लगता यही है कि वारदात को अंजाम देकर असली अपराधी रफू-चक्कर हो गये और भीड़ के गुस्से का सामना करने के लिए शुभम जैसे लोग पीछे फंस गया. पूरा सच तो जांच से सामने आएगा, लेकिन ऐसा लगता है कि दुर्योगवश ही वह प्रतिहिंसा की भेंट चढ़ा. उस दुर्योग की मानवीय कीमत की निशानियां उसके घर के अंदर दिखायी दे रही थीं. मुझे चार पीढ़ी की महिलाएं शुभम की मौत के आघात को सहते और सदमे में दिखायी दी- शुभम की क्षुब्ध दादी, सदमा ग्रस्त मां, अवसाद-सुन्न उसकी पत्नी और शुभम की एक साल की बेटी.


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साझे का दुख और पक्षपात होना

लखीमपुर खीरी में घटी नरसंहार की घटना के अपराधी मंत्री अजय मिश्र और उनका बेटा आशीष है- क्या लखीमपुर के सफर के बाद मेरे इस सोच में तब्दीली आयी है? ना, मेरी यह सोच जस की तस है. उत्तर प्रदेश की सरकार और केंद्र सरकार ने जिस बेशर्मी से इस घटना की लीपापोती की उसे लेकर मेरे मन में आक्रोश है, क्या वह आक्रोश लखीमपुर के सफर के बाद कुछ शांत हुआ है? ना, बिल्कुल नहीं.

क्या सफर के बाद मेरे मन में कुछ सवाल और सरोकार पैदा हुए हैं कि हमें किनके लिए शोकाकुल होना चाहिए और ऐसी स्थिति में क्या रुख अपनाना चाहिए? शायद हां. मैंने इस बात का संकेत मुलाकात के तुरंत बाद किए एक अपने ट्वीट में किया. ट्वीट की प्रशंसा हुई है और लानत-मलानत भी. ट्वीट की सराहना में शब्द कहे गये हैं तो आक्षेप के भी, अचरज जताया गया है तो शंका भी. पूछा गया ‘आप किस ओर खड़े हैं ?’ कुछ लोगों ने तो यहां तक कह डाला कि मैंने शहीद किसानों का अपमान किया है. किसी के दुख में शामिल होने से हमारे साथियों की शहादत पर कैसे छींटा पड़ता है, मुझे समझ नही आता.

हमारी राजनीति और आंदोलन एक गहरी तंगदिली का शिकार हैं. मुझे याद आता है, 2016 के जाट आरक्षण के दौरान हुई आगजनी और मारकाट के बाद मैं हरियाणा के झज्जर गया था. एक हमारी ही टोली थी जो इस हिंसा की चपेट में आये दोनों जगह के पीड़ितों के दरवाजे पहुंची: हम सैनी मोहल्ला गये जहां आंदोलनकारियों की तरफ से हिंसा हुई थी और सर छोटूराम धर्मशाला भी गये जहां आंदोलन विरोधियों ने उनकी मूर्ति का मान-भंग किया था. उस दिन हरियाणा के दो मंत्री आये और अपनी जाति के हिसाब से हिंसा के पीड़ितों में सिर्फ उन्हीं लोगों के बीच गये जो उनकी जाति के थे.

पक्षपात तो हमारी विचारधाराओं के साथ बद्धमूल है. इसका सबसे अच्छा उदाहरण है असम में नागरिकता को लेकर चलने वाला विवाद. हमारे उदारवादी-सेक्युलर जमात के बुद्धिजीवी आप्रवासी बंगालियों (ज्यादातर मुस्लिम) को पीड़ित बताते हैं. उनका ऐसा करना ठीक भी है. लेकिन ऐसा करते हुए वे ये नहीं देख पाते कि अहोमिया लोगों (ज्यादातर हिंदू) के मन में भी अपनी संस्कृति और भौतिक परिस्थिति को लेकर बड़ी गहरी चिंताएं बैठी हैं. ये अहोमिया लोग महसूस करते हैं कि उनकी ही जगह-जमीन पर उन्हें एक किनारे कर दिया गया है. ठीक इसी तरह, वामधारा के बुद्धिजीवियों ने भूमिहीन मजदूरों को ग्रामीण भारत का सबसे वंचित तबका माना. यह बात भी ठीक है. लेकिन, ऐसा करने के कारण वे ये नहीं देख पाए कि पूरा खेती किसानी व्यवस्थागत शोषण का शिकार है, जिसमें भूस्वामी किसान भी शामिल हैं. वामधारा के बुद्धिजीवी तो एक जमाने में भूस्वामी किसानों को ‘कुलक ‘(जमींदार) कहा और उन्हें वर्ग-शत्रु करार दिया. एक पीड़ित दूसरे पीड़ित के खिलाफ खड़ा हो जाता है.

हमारे पक्ष के पीड़ित, उनके पक्ष के पीड़ित. सचमुच के पीड़ित और झूठमूठ के पीड़ित. हमारे सार्वजनिक जीवन में ज्यादातर तो यही चलते रहता है, हम अपनी पसंद के हिसाब से पीड़ित चुनते हैं या फिर पीड़ितों के बीच सच-झूठ की माप-तौल करने में लगे रहते हैं. हमारे सार्वजनिक जीवन का यह एक गहरा रोग है.

अपने मनभाये पीड़ित को चुनने के जाहिर से फायदे हैं. ऐसा करने पर जिंदगी आसान हो जाती है. सहज बुद्धि के लिए पक्षपाती हो लेना सबसे आसान रणनीति है. ऐसा करने में ज्यादा दिमाग-खपाई नहीं करनी पड़ती. एक तरफ खड़े होकर देखने पर बना-बनाया सच हमारे हाथो लग जाता है. ऐसा करने पर किसी नैतिक-द्वंद में फंसने की भी गुंजाइश नहीं रहती. किसी घटना का सही-गलत और सफेद-स्याह हमें साफ-साफ नजर आने लगता है.

एक बड़ा फायदा और है कि शत्रु की साफ-साफ पहचान कर लेने के कारण राजनीति की दिशा भी स्पष्ट रहती है कि इस या उस रास्ते पर सरपट चलते जाना है. आप खूब साफ शब्दों में अपने संदेश गढ़ते हैं, ऊर्जा बटोरते हैं और लोगों को लामबंद करते हैं. एक बार नेता ने कोई पक्ष चुन लिया तो फिर अनुयायियों को अपना दिल-दिमाग चलाने-खपाने की जरूरत नहीं रह जाती.

लेकिन मुश्किल ये है कि ऐसे अधूरे और पक्षपाती रुख-रवैये से संकुचित किस्म की राजनीति पैदा होती है. संकुचित दायरे की राजनीति कुछ समय के लिए तो खूब चलती है लेकिन आखिर को वह हमें भारी मुश्किलों की तरफ ले जाती है. अनचाही और असुविधाजनक सच्चाइयों को धकियाकर एक किनारे करने की कला में जैसे ही आप पारंगत हो जाते हैं तो कोई दूसरा इस मामले में आपसे भी दो कदम आगे निकल जाता है- वह पूरी की पूरी सच्चाई को ही धकियाकर आगे चलने लगता है. एक बार आपने सफेद-स्याह बताने वाला नैतिकता का अपना चश्मा चढ़ा लिया तो फिर आपके सफेद-स्याह के खाने कभी भी बदले जा सकते हैं- आपको जो स्याह लगता है उसे सफेद बताया जा सकता है, आपको जो सफेद दिख रहा है, उसे स्याह कहा जा सकता है. जैसे ही आप शत्रु की पहचान को अपनी राजनीति का आधार बनाते हैं, कोई दूसरा भी आन खड़ा होता है जो नये शत्रुओं की पहचान करता है. इसी बुनियाद पर आज बीजेपी और संघ परिवार ने देश भर में झूठ का साम्राज्य खड़ा किया हुआ है.

राजनीति हो या आंदोलन, हम अपने सार्वजनिक जीवन में ऐसा कौन-सा रास्ता अपनाएं जिसमें असुविधाजनक सच्चाई, नैतिक जटिलताओं और न्यूनतम मानवीय संवेदना के लिए जगह हो? लखीमपुर खीरी से मैं यही सवाल लेकर लौटा हूं.

(लेखक स्वराज इंडिया के सदस्य और जय किसान आंदोलन के सह-संस्थापक हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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