तालिबान ने जब प्रधानमंत्री मुल्ला हसन अखुंद और उनके दो उप-प्रधानमंत्रियों मुल्ला बरादर और मावलावी हनफी के नेतृत्व में अपनी अंतरिम सरकार के गठन की घोषणा कर दी है, समय आ गया है कि भारत अपने प्लान-ए और प्लान-बी भी तैयार कर ले.
मुल्ला उमर के बेटे मुल्ला याक़ूब को रक्षा मंत्री, सिराजुद्दीन हक़्क़ानी को गृह मंत्री, मावलावी आमिर खान मुतक्की को विदेश मंत्री, मुला हिदायतुल्ला बदरी को वित्त मंत्री बनाया गया है. अधिकतर मंत्री 1996 से 2001 तक अफगानिस्तान पर शासन कर चुकी पुरानी सरकार में भी मंत्री रह चुके हैं.
प्रधानमंत्री समेत चार मंत्री- अखुंद, बरादर, याक़ूब और हक़्क़ानी- संयुक्त राष्ट्र द्वारा घोषित आतंकवादी हैं और गृह मंत्री के सिर पर तो अमेरिका ने 1 करोड़ डॉलर का इनाम घोषित कर रखा है. मंत्रिमंडल में पख्तूनों का बोलबाला है, केवल तीन मंत्री- दूसरे उप-प्रधानमंत्री हनफी (उज़्बेक), सेनाध्यक्ष क़ारी फशीहुद्दीन तथा अर्थव्यवस्था मंत्री क़ारी दीन हनीफ (दोनों ताजिक) ही गैर-पख्तून हैं. मंत्रिमंडल में किसी महिला या गैर-तालिबानी को शामिल नहीं किया गया है.
अंतरिम सरकार के गठन से पहले क्वेटा शूरा और मिरान शाह/पेशावर शूरा के बीच आंतरिक सत्ता संघर्ष हुआ. क्वेटा शूरा मूल संगठन है, जो फिलहाल कांधार में स्थित है और इसका नेतृत्व पुराने नेताओं के हाथ में है. मिरान शाह/पेशावर शूरा पर हक़्क़ानी नेटवर्क का कब्जा है और यह आईसआई का चहेता है.
मुल्ला बरादर के नेतृत्व वाले राजनीतिक रूप से चुस्त और कुछ नरमपंथी दोहा वार्ताकारों को क्वेटा शूरा का समर्थन हासिल है. उसे हक़्क़ानी नेटवर्क की तरफ से चुनौती मिली थी. मुल्ला उमर के बेटे मोहम्मद याक़ूब के मातहत फौजी कमांडर भी राजनीतिक सत्ता में बड़ी भागीदारी चाहते थे.
पाकिस्तानी आईएसआई के मुखिया जनरल फ़ैज़ हमीद को मुल्ला बरादर और हक़्क़ानी नेटवर्क के समर्थकों के बीच छिड़ी लड़ाई को शांत कराने के लिए पिछले शनिवार को काबुल आना पड़ा. बताया जाता है कि इस लड़ाई में बरादर घायल हो गए. अफगानिस्तान के मंत्रिमंडल गठन पर पाकिस्तान की पूरी छाप दिखती है. एक हल्के कद वाले नेता को प्रधानमंत्री बना दिया गया है. इस तरह मुल्ला बरादर के नेतृत्व वाले दोहा वार्ताकारों के, जो ऊंचे पदों के अग्रणी दावेदार थे, पर कतर दिए गए हैं. दूसरी ओर, आईएसआई के दाहिना हाथ, हक़्क़ानी नेटवर्क को बेहद अहम गृह मंत्रालय समेत काफी बड़ी जिम्मेदारियां सौंपी गई हैं.
अमेरिका और उसके सहयोगियों के लिए ‘इंतजार करने’ के सिवा कोई विकल्प नहीं है क्योंकि सबके साथ वाली सरकार, मानवाधिकारों और खासकर महिलाओं के अधिकारों का सम्मान, आतंकवाद के प्रसार के लिए अफगानिस्तान की जमीन का इस्तेमाल न होने देने वाली प्राथमिक शर्तें पूरी नहीं हुई हैं. खासकर अंतिम दो शर्तें. इन शर्तों के पालन पर ही इस तालिबान सरकार की वैधता और पश्चिमी प्रभाव वाले संस्थानों से आर्थिक मदद निर्भर करती है, जो इसे एक सक्रिय राज्यसत्ता के रूप में बने रहने के लिए जरूरी है. लेकिन चीन, रूस, ईरान, तुर्की, क़तर और पाकिस्तान सरीखे इसके समर्थक इसे जल्दी मान्यता दिलाने की कोशिश करेंगे. इस्लामी सहयोग संगठन (ओआईएसी) भी इसी लीक पर चल सकता है, जिससे बाकियों के लिए दूसरा कोई विकल्प नहीं रह जाएगा.
तालिबान को लेकर दो तरह के प्लान बनाए जा रहे हैं और उनमें अपना दांव रखने वालों के बारे में बहुत कुछ कहा गया है. प्लान-ए सुधरे हुए तालिबान के लिए है, जो अंतरराष्ट्रीय नियम-कायदों का पालन करेगा. प्लान-बी उस नाकाम राज्य-व्यवस्था के लिए है, जो जटिल गृहयुद्ध में उलझ गया हो. जो भी हो, भारत ने तालिबान विरोधी घरेलू शोर से खुद को अलग करके उसके साथ बात की है. मैं यहां भारत के लिए प्लान-ए और प्लान-बी के पहलुओं का विश्लेषण करूंगा.
यह भी पढ़ें: तालिबान के उदय के बीच भारत अपने 20 करोड़ मुसलमानों की अनदेखी नहीं कर सकता है
प्लान-ए
अफगानिस्तान में भारत की मुख्य दिलचस्पी इस बात को लेकर है कि पाकिस्तान की शह पर या विचारधारा के आग्रहों के कारण भारत में आतंकवाद फैलाने या उसे समर्थन देने के लिए उसकी जमीन का इस्तेमाल न किया जाए. एक क्षेत्रीय ताकत के तौर पर भारत नहीं चाहेगा कि भौगोलिक और रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण अफगानिस्तान उसके मुख्य दुश्मनों चीन और पाकिस्तान का मातहत बन जाए.
भारत एक ऐसा अफगानिस्तान चाहता है जो मजबूत और सबको साथ लेकर चलने वाला हो, जो मानवाधिकारों का और खासकर महिलाओं तथा अल्पसंख्यकों के अधिकारों का सम्मान करने वाला हो. भारत चाबहार बंदरगाह के अलावा वहां विकास परियोजनाओं में 3 अरब डॉलर निवेश कर चुका है. वहां के अधिकांश बौद्धिक तबके ने भारत में शिक्षा पाई है. भारत ने वहां जो सदभाव हासिल किया है उसे बनाए रखना चाहेगा.
भारत के राष्ट्रहित का तकाजा है कि अफगानिस्तान से उसका रिश्ता बना रहे और वहां उसकी राजनयिक मौजूदगी भी बनी रहे. एक सक्रिय राज्यतंत्र के रूप में तालिबान के वजूद के लिए जरूरी आर्थिक सहायता और उसके प्रशासन में मदद जैसे प्रयास उस पर पाकिस्तान और चीन के प्रभाव को फीका कर सकते हैं.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तालिबान के साथ रिश्ता बनाने के मामले में अपनी पार्टी की विचारधारा और घरेलू जनमत के विपरीत जाकर साहसिक फैसला किया है. लेकिन ‘स्थिति पर नज़र रखने और इंतजार करने’ की नीति कब खत्म होगी और एक्शन कब शुरू होगा, यह फैसला बहुत महत्वपूर्ण होगा. समय से पहले कुछ करना जोखिम भरा होगा लेकिन देर करने से अपेक्षित लाभ नहीं मिलेंगे.
उपयुक्त यह होगा कि भारत के लिए मुफीद शर्तों के पूरे होने के साथ निरंतर प्रगतिशील ‘परिचालन केंद्रित सहयोग’ के यूरोपीय संघ वाले मॉडल को तुरंत लागू किया जाए. राष्ट्रीय हित के रास्ते में शर्तें रोड़ा नहीं बननी चाहिए.. भारत वहां नागरिक सुविधाओं को सक्रिय करने के लिए पर्याप्त मानवीय सहायता की तुरंत घोषणा करे.
मान्यता देने के लिए बहुत बारीकी से सोच-विचार करने की जरूरत होगी. पश्चिम से संकेत लेने की जगह भारत को चीन, पाकिस्तान, रूस, तुर्की, ईरान को देखना चाहिए कि वे क्या करते हैं. हालात अनुकूल हो जाने पर एक साहसिक पहल अफगानिस्तान में फिर से बड़ा खिलाड़ी बनने के मामले में निर्णायक साबित हो सकता है. भारत को खुद उस स्थिति में आने की कोशिश करनी चाहिए कि वह पख्तून राष्ट्रवाद को बढ़ावा दे सके.
यह भी पढ़ें: पाकिस्तान और चीन एक गैर-भरोसेमंद तालिबानी सरकार की उम्मीद कर रहे हैं, भारत को भी यही करना चाहिए
प्लान-बी
यथार्थपरक राजनीति की मांग है कि भारत प्लान-बी पर भी साथ-ही-साथ काम करे ताकि वह अधिक नरम चेहरे के साथ दोहरा खेल खेलने वाले तालिबान से, एक दुष्ट तालिबान से, एक कबायली गृहयुद्ध से, तालिबान के अंदर के झगड़ों से, तालिबान और दूसरे आतंकी संगठनों के बीच टकराव आदि सबसे निपट सके. कहने की जरूरत नहीं कि इन सभी स्थितियों में पाकिस्तान की भी अपनी सीधी भूमिका होगी. तब तो और भी जब पख्तून राष्ट्रवाद उसकी संप्रभुता के लिए खतरा बनने लगेगा.
अफगानिस्तान का भविष्य तालिबान के नेतृत्व वाली उस सरकार में ही निहित है, जो व्यापक आधार वाली हो और जिसमें सभी कबीलों को आनुपातिक प्रतिनिधित्व हासिल हो. ऐसा होने के बाद भी तालिबान के लिए एक ऐसी सक्रिय राज्य-व्यवस्था बना पाना मुश्किल होगा, जो संगठित सेना और पुलिस के जरिए हिंसा पर पूर्ण काबू पा सके. अपने ही काडर और दूसरे फौजी/आतंकी संगठनों को निशस्त्र कर पाना बेहद कठिन होगा.
अफगान जीवन शैली के मद्देनजर यह शायद कभी न हो पाए. इसलिए वहां लड़ाई अवश्यंभावी है. मेरे विचार से, सबसे बुरी स्थिति यह हो सकती है कि विभिन्न आतंकी गुटों के बीच भीषण कबायली जंग छिड़ जाए. प्लान-बी का लक्ष्य भारत के राष्ट्रीय हितों की रक्षा और एक स्थिर तथा सबका साथ वाली अफगान सरकार की स्थापना ही होनी चाहिए.
तालिबान की जैसी मुकम्मिल जीत हुई है उसके मद्देनजर उसे फिलहाल कोई संगठित चुनौती नामुमकिन ही लगती है. खासकर इसलिए भी कि इसके सभी पड़ोसी- पाकिस्तान, चीन, ईरान, ताजिकिस्तान/ तुर्कमेनिस्तान/ उज्बेकिस्तान और उनका सहयोगी रूस- उसका समर्थन कर रहे हैं. लेकिन सूक्ष्मदर्शी के लिए पहले संकेत उभर रहे हैं.
ताजिकिस्तान ने पंजशीर के शेर अहमद शाह मसूद को और पूर्व अफगान राष्ट्रपति बुरहानुद्दीन रब्बानी (दोनों ताजिक) को मरणोपरांत देश के सर्वोच्च सम्मान ‘इसमोइली सोमोनी’ से नवाज़ कर पहला कदम उठा लिया है. यह सम्मान उन्हें 1993-97 के ताजिकिस्तान गृहयुद्ध को खत्म कराने के लिए दिया गया है. सम्मान देने के समय का चुनाव संकेत देता है कि ताजिकिस्तान अफगान ताजिकों को अपने अधिकारों के लिए लड़ने में उनकी मदद करेगा, बल्कि पंजशीर में वह ऐसा शायद कर भी रहा है.
ताजिकिस्तान रूस की परोक्ष शह के बिना यह नहीं कर सकता. इसका अर्थ हुआ कि रूस के पास भी एक प्लान-बी है. रूस तालिबान को कई शर्तों के साथ समर्थन दे रहा है. रूसी विदेश मंत्री सर्गी लाव्रोव ने सबका साथ वाली सरकार की शर्त पर काफी ज़ोर दिया.
ईरान पंजशीर में ताजिकों के खिलाफ तालिबान के हमलों की आलोचना कर रहा है और इसमें पाकिस्तान का हाथ भी बताया है. मेरे विचार में चीन के पास भी एक प्लान-बी है. अमेरिका भी धन और सामान के साथ मदद के लिए आगे आ सकता है.
भारत को रूस, ताजिकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान, उज्बेकिस्तान, ईरान से बात शुरू करके अपने प्लान-बी को आकार देना चाहिए. हमें ताजिकिस्तान के साथ सैन्य सहयोग बढ़ाना चाहिए और गिस्सार हवाई पट्टी के आधुनिकीकरण में तेजी लानी चाहिए. बदलते हालात के मुताबिक भारत को विभिन्न कबीलों, तालिबान के आंतरिक गुटों और दूसरे दावेदारों से परोक्ष संपर्क बनाना चाहिए. प्लान-बी का दीर्घकालिक लक्ष्य हमारी राष्ट्रीत सुरक्षा के लिए अफगानिस्तान से उभरने वाले खतरों को भोथरा करना होना चाहिए.
एक क्षेत्रीय ताकत के रूप में भारत के लिए जरूरी है कि वह अपने दुश्मनों को अफगानिस्तान में खुल कर खेलने न दे. भारत को उच्च नैतिकता का आग्रह छोड़कर कबूल कर लेना चाहिए कि ईरान मॉडल का एक इस्लामी मुल्क एक हकीकत बन चुका है. और उसे तालिबान से संबंध बनाना चाहिए. ‘परिचालन’ के लिहाज से बिना औपचारिक मान्यता के प्लान-ए बनाना एक विवेकपूर्ण अंतरिम विकल्प हो सकता है. लेकिन सबसे बदतर स्थिति की आशंका के साथ प्लान-बी को भी आगे बढ़ाइए.
(ले.जन. एचएस पनाग, पीवीएसएम, एवीएसएम (रिटायर्ड) ने 40 वर्ष भारतीय सेना की सेवा की है. वो जीओसी-इन-सी नॉर्दर्न कमांड और सेंट्रल कमांड रहे हैं. रिटायर होने के बाद वो आर्म्ड फोर्सेज ट्रिब्यूनल के सदस्य रहे. व्यक्त विचार निजी हैं)
(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)
यह भी पढ़ें: ISI प्रमुख फैज हमीद की काबुल यात्रा का तालिबान की नई सरकार से क्या लेना-देना है