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Wednesday, 20 November, 2024
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मोदी-शाह की भाजपा में मजबूत जनाधार वाले नेता परेशान क्यों हैं

लगता है, मोदी और शाह राज्यों में भाजपा में पीढ़ीगत बदलाव लाने का मन बना चुके हैं. आज भले यह एक जुआ लग रहा है, लेकिन पार्टी का जो इतिहास रहा है उसके भरोसे वे निश्चिंत होंगे कि कोई विद्रोह नहीं होगा.

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अपने जीवनीकार, ब्रिटिश लेखक लांस प्राइस से बातचीत में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जो एक टिप्पणी की उसने उनके अपने संघ परिवार, खासकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) को काफी नाखुश कर दिया था. प्राइस की किताब ‘द मोदी इफेक्ट’ में 2014 के चुनाव अभियान की अंदरूनी कहानी बताई गई है और मोदी का यह बयान उदधृत किया गया है कि जनता उन्हें चाह रही थी, न कि भाजपा को, कि उसे ‘एक भरोसेमंद नाम चाहिए था, पार्टी का नाम नहीं.’

आरएसएस व्यक्तिपूजा से हमेशा परहेज करता रहा है लेकिन मोदी का कद जब उनके मानस गुरु और उनकी पार्टी से भी बड़ा हो गया तब वह कुछ कर नहीं सकता था.

किताब के प्रकाशन के छह साल बाद भी मोदी का व्यक्तित्व आरएसएस और भाजपा को परिभाषित कर रहा है. लेकिन भाजपा नहीं चाहती कि उसका कोई क्षेत्रीय नेता अपने क्षेत्र में इस तरह का मुगालता पाले. इसलिए कर्नाटक के मुख्यमंत्री बी.एस. येदियुरप्पा को गद्दी छोड़नी पड़ी. भाजपा के दूसरे क्षेत्रीय क्षत्रपों—राजस्थान में वसुंधरा राजे, छत्तीसगढ़ में रमन सिंह, मध्य प्रदेश में शिवराज चौहान भी, और उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ— के ज्यादा पर भी नहीं निकलने देने हैं.

भाजपा ने हाल में राजस्थान के अपने विधायक रोहिताश्व शर्मा को निष्कासित कर दिया, जिन्हें राजे का करीबी माना जाता है. राजे ने आलाकमान के इस खुले संकेत को कबूल करने से मना कर रखा है कि वे राज्य में एक नये चेहरे को उभरने दें.

इसी तरह, छत्तीसगढ़ की प्रभारी पार्टी महासचिव डी. पुरंदरेश्वरी ने हाल में यह घोषणा करके पूर्व मुख्यमंत्री रमन सिंह को साफ इशारा कर दिया कि भाजपा 2023 के चुनाव में मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार का नाम घोषित नहीं करेगी. मध्य प्रदेश में कांग्रेस से दलबदल करवाकर भाजपा को सत्ता दिलाने वाले मुख्यमंत्री चौहान को भी पार्टी आलाकमान से रूखे व्यवहार का सामना करना पड़ा है.


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बात बनती नहीं

ऐसा लग सकता है कि मोदी और अमित शाह भाजपा में अगली पीढ़ी के नेताओं को तैयार करने के लिए बुजुर्ग हो रहे नेताओं को रिटायर करने की योजना पर काम कर रहे हैं. येदियुरप्पा 78 के हो चुके हैं, रमन सिंह और राजे 68 की हो चुकी हैं. लेकिन युवा नेताओं पर भी अंकुश रखा जा रहा है क्योंकि वे आलाकमान की योजना में फिट नहीं बैठते. ऐसा लगता है कि अपने जनाधार से प्रेरित उनकी आज़ादखयाली आलाकमान वाली उस संस्कृति से मेल नहीं खाती, जिस संस्कृति को भाजपा कांग्रेस के गांधी परिवार से उधार ले रही है.

ऊपर से तो ऐसा लगता है कि क्षेत्रीय नेताओं को कमजोर करना राजनीतिक हाराकीरी है, जो कांग्रेस लंबे समय से करती रही है. लेकिन इस बारे में भाजपा नेताओं का विचार कुछ और ही है. वे सोचते हैं कि पार्टी की वजह से उन्हें बड़ा जनाधार मिला और इसे दूसरे नेता को सौंपा जा सकता है. उदाहरण के लिए, राजस्थान विधानसभा के 2003 के चुनाव में राजे के नेतृत्व में भाजपा को पहली बार अपने बूते पूर्ण बहुमत हासिल हुआ था, उसने 200 सीटों वाली विधानसभा की 120 सीटें 39 प्रतिशत वोटों के साथ जीती थी. लेकिन 1993 के चुनाव में भी भाजपा को इतने ही, 38.7 प्रतिशत वोट मिले थे. उसके दिग्गज नेता भैरोंसिंह शेखावत ने पहले ही पार्टी की मजबूत नींव डाल दी थी. राजस्थान में हमेशा भाजपा और कांग्रेस बारी-बारी से जीतती रही थी. राजे के नेतृत्व में या उसके बिना भाजपा जिन चुनावों में हारी उनमें भी उसका वोट प्रतिशत 33 से 38 के बीच रहा—1998 में 33 प्रतिशत, 2008 में 34 प्रतिशत, और 2018 में 39 प्रतिशत.

इस तर्क में कुछ दम हो सकता है कि राजस्थान में भाजपा का आधार हमेशा मजबूत रहा है. लेकिन राजे की अपनी लोकप्रियता को भी खारिज नहीं किया जा सकता. उनके ही नेतृत्व में भाजपा का वोट प्रतिशत 45 पर पहुंच गया था 2013 में, जो 2003 के उसके इस आंकड़े से 6 प्रतिशत अंक ज्यादा था. 2018 में यह गिरकर 39 प्रतिशत पर भी पहुंचा तो भी 2003 वाले आंकड़े जितना ही था.

इसी तरह, कर्नाटक में येदियुरप्पा 1988 में पहली बार प्रदेश पार्टी अध्यक्ष बनने के बाद से भाजपा को आगे बढ़ाते रहे हैं. 1989 में वहां उसका वोट प्रतिशत मात्र 4 था, 1994 में 17, 1999 में 21, 2004 में 28, और 2008 में 34 था. वोट प्रतिशत में लगातार वृद्धि 2013 में आकर उलट गई, जब येदियुरप्पा ने अपनी अलग पार्टी बना ली थी. उस साल भाजपा का वोट प्रतिशत 20 पर आ गया, जबकि येदियुरप्पा की कर्नाटक जनता पक्ष (केजेपी) को 10 फीसदी वोट मिले. येदियुरप्पा जब भाजपा में लौट आए तो फिर उसका वोट प्रतिशत बढ़कर 36 हो गया.

आंकड़े झूठ नहीं बोलते. राज्यों में पार्टी को मजबूत करने वाले लोकप्रिय नेताओं को दरकिनार करके भाजपा एक जुआ ही खेल रही है. यह भी एक तथ्य है कि मोदी और शाह उनके साथ जिस तरह का बरताव कर रहे हैं उसमें आलाकमानवाद का बड़ा तत्व शामिल है. आखिर, उम्र अगर कसौटी है तो पार्टी हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर का उत्तराधिकारी क्यों नहीं ढूंढ रही है, जबकि वे 67 साल के हो चुके हैं? और 62 वर्षीय चौहान को अपने मंत्रियों का चयन करने में जद्दोजहद क्यों करनी पड़ती है?

बागी लौट ही आते हैं

जो कुछ चल रहा है उससे साफ है कि मोदी और शाह राज्यों में भाजपा में पीढ़ीगत बदलाव लाने का मन बना चुके हैं. आज भले यह एक जुआ लग रहा है, लेकिन पार्टी का जो इतिहास रहा है उसके भरोसे वे निश्चिंत होंगे कि कोई विद्रोह नहीं होगा.

उमा भारती की बगावत को याद कीजिए. 2003 के चुनाव में उन्होंने पार्टी को मध्य प्रदेश में जीत दिलाई थी. इसके तीन साल बाद उन्होंने अपनी अलग पार्टी बना ली लेकिन इससे भाजपा को कोई फर्क नहीं पड़ा और वह विधानसभा के अगले दो चुनाव जीती. राजनीति के बियावान में पांच साल गुम रहने के बाद वे भाजपा में वापस आ गईं.

उनसे पहले, हिंदुत्व के एक और चेहरे कल्याण सिंह बगावत कर चुके थे. उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह के राज में ही 1992 में बाबरी मस्जिद विध्वंस हुआ था. 1999 में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को कोसते हुए हुए वे पार्टी से अलग हुए और राष्ट्रीय क्रांति पार्टी बनाई, जिसने 2002 के चुनाव में अपने 335 उम्मीदवार खड़े किए. लेकिन 4 फीसदी वोटों के साथ वह मात्र चार सीटें जीत सकी. कल्याण सिंह 2004 में भाजपा में लौटे मगर 2009 में फिर अलग हुए और इसके पांच साल बाद फिर भाजपा में लौट आए.

आज जो क्षेत्रीय नेता विद्रोह के तेवर दिखा रहे हों, उन्हें इतिहास से अहम सबक मिल सकते हैं. लेकिन इस इतिहास में येदियुरप्पा के विद्रोह, और 2013 के कर्नाटक विधानसभा चुनाव में भाजपा पर उसके असर से संबंधित एक अध्याय भी दर्ज है.

व्यक्त विचार निजी हैं.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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