scorecardresearch
Wednesday, 20 November, 2024
होमइलानॉमिक्सकोविड संकट के मद्देनजर क्रेडिट रेटिंग फर्मों को अपने तौर-तरीकों पर फिर से विचार करने और बदलने की जरूरत है

कोविड संकट के मद्देनजर क्रेडिट रेटिंग फर्मों को अपने तौर-तरीकों पर फिर से विचार करने और बदलने की जरूरत है

कोविड की दूसरी लहर के बाद भारत की आर्थिक स्थिति में सुधार की धीमी गति के मद्देनजर रेटिंग एजेंसियों ने उसकी संभावित वृद्धि दर में कटौती की है. ऐसा लगता है कि सरकार जो भी कदम उठा रही है उसे भी ये एजेंसियां खारिज कर देंगी.

Text Size:

जो देश कोविड-19 की महामारी की चपेट से उबरने की जद्दोजहद में लगा है उसे क्रेडिट रेटिंग कंपनियों के तौर-तरीके और भी मुसीबत में डाल रहे हैं. सरकार अगर खर्चे बढ़ाती है तो कर्ज भी बढ़ता है और तब देश की क्रेडिट रेटिंग नीचे गिरती है. अगर सरकार खर्च पर लगाम कसती है तो मांग में वृद्धि नहीं होती और जीडीपी में अनुमानित वृद्धि घटती है, जो रेटिंग में गिरावट का खतरा पैदा करती है.

रेटिंग एजेंसियां जब सामान्य दिनों के लिए अपनाए जाने वाले तरीके संकट के दिनों में भी लागू करती हैं तब एक उभरती अर्थव्यवस्था की रेटिंग और संभावना खराब नज़र आने लगती है, चाहे उसकी सरकार वित्तीय विवेक से काम कर रही हो या फिजूलखर्ची कर रही हो.


य़ह भी पढ़ें: कोविड राहत पैकेज की घोषणा में मोदी सरकार ने काफी सावधानी क्यों बरती?


एक अर्थव्यवस्था के लिए रेटिंग गिरने का अर्थ

पिछले कुछ समय से कई रेटिंग एजेंसियां भविष्यवाणी कर रही हैं कि भारत की जीडीपी वृद्धि दर में कमी आएगी. फिच रेटिंग्स ने भविष्यवाणी की है कि चालू वित्त वर्ष में भारत की आर्थिक वृद्धि दर 10 फीसदी रहेगी, जबकि पहले इसने 12.8 फीसदी का अनुमान लगाया था. इसी तरह, स्टैंडर्ड ऐंड पूअर्स ने चालू वर्ष के लिए पहले 11 फीसदी का अनुमान लगाया था जिसे घटाकर 9.5 फीसदी कर दिया.

ये अनुमान उनकी सॉवरेन रेटिंग में फिट बैठते हैं. एस ऐंड पी ने तो भारत की सॉवरेन रेटिंग की संभावना को स्थिर बताया है लेकिन यह चेतावनी भी दी है कि अगर आर्थिक सुधार धीमा रहता है या वित्तीय घाटा और कर्ज अनुमान से ज्यादा हो जाते हैं तो भारत की रेटिंग गिर सकती है.

किसी देश की सॉवरेन क्रेडिट रेटिंग यह बताती है कि वह कर्ज दिए जाने के कितना लायक है. सरकारें अंतरराष्ट्रीय पूंजी बाज़ार में आसान पहुंच बनाने के लिए ऊंची क्रेडिट रेटिंग चाहती हैं. ये रेटिंग अंतरराष्ट्रीय पूंजी बाज़ार में घरेलू कर्जदारों की रेटिंग को भी प्रभावित करती हैं. सरकारें जब अंतरराष्ट्रीय पूंजी बाज़ार से कर्ज नहीं लेती हैं, जैसा कि भारत करता है, देश की रेटिंग महत्व रखती है क्योंकि पेंशन फंड, बैंक और अन्य पोर्टफोलियो निवेशकों जैसे विदेशी संस्थागत निवेशक उन नियमों का पालन करते हैं कि जिस देश में शेयरों और बोण्ड्स में वे निवेश करना चाहते हैं उसकी रेटिंग कितनी होनी चाहिए. गिरावट का मतलब यह होगा कि उनमें से कई वहां से हाथ खींच लेंगे.

रेटिंग कैसे दी जाती है

भारत की सॉवरेन क्रेडिट रेटिंग मूडीज़, एस ऐंड पी, फिच, जापान क्रेडिट रेटिंग एजेंसी, डीबीआरएस, और आर ऐंड आइ जैसी वैश्विक रेटिंग एजेंसियां करती हैं. हरेक एजेंसी के अपने तरीके हैं और वह उन्हीं के अनुसार यह तय करती है कि कोई देश कर्ज पाने की कितनी योग्यता रखता है.

वित्तीय घाटा और सरकारी कर्ज-जीडीपी अनुपात ही वित्त और कर्ज के गतिशास्त्र का आकलन करने की मुख्य कसौटियां हैं. कर्ज और घाटे को काबू में रखते हुए आर्थिक वृद्धि को आगे बढ़ाना रस्सी पर चलने का करतब करने के समान है. अगर कोई देश अपनी आर्थिक वृद्धि को गति देने के लिए ज्यादा कर्ज लेता है और ज्यादा खर्च करता है तो यह उसके वित्त और कर्ज के गतिशास्त्र को चोट पहुंचाता है. जब कोई देश वित्तीय अनुशासन के लिए खर्चों और कर्जों को काबू में रखता है तो उसकी आर्थिक वृद्धि तुरंत गति नहीं पकड़ सकती है.

इसलिए, देश चाहे अतिरिक्त खर्च करके या वित्तीय अनुशासन रखकर उच्च आर्थिक वृद्धि हासिल करने की कोशिश भले करें, संभावना यही है कि वृद्धि को लेकर अनुमान और रेटिंग में भी गिरावट आ सकती है. कोविड जैसी महामारी के कारण यह चुनौती और गंभीर रूप ले सकती है.


यह भी पढ़ें: मुद्रा संकट के डर से विदेशी मुद्रा भंडार को बढ़ाते रहने के उलटे नतीजे भी मिल सकते हैं


आकलन में पूर्वाग्रह क्यों?

कई देशों ने कोविड संकट के मद्देनजर व्यापक वित्तीय नीति के जरिए राहत के उपाय किए, लेकिन राहत देने की गुंजाइश कम महंगी फंडिंग तक पहुंच बनाने की क्षमता पर निर्भर है. कई विकसित देशों ने बड़े पैमाने पर खर्च किए. लेकिन उभरती अर्थव्यवस्थाओं ने कर्ज लेने और खर्च करने की अपनी सीमित क्षमता के कारण अपेक्षाकृत छोटी राहत दी.

रेटिंग एजेंसियां सभी देशों की कर्ज लेने की योग्यता का आकलन एक ही कसौटी से करती हैं. कुछ अध्ययनों से उजागर होता है कि आकलन में विकसित देशों के साथ पक्षपात किया जाता है. अध्ययनों से पता चलता है कि एजेंसियां विकसित देशों को ऊंची रेटिंग देती हैं, भले ही उनके मैक्रोइकोनोमिक आधार कमजोर क्यों न हों. उदाहरण के लिए, अधिकतर एजेंसियों ने अमेरिका को टॉप ग्रेड दिया, जबकि उसके ऊपर कर्ज उसकी जीडीपी के करीब 110 प्रतिशत के बराबर है.

अमेरिका इस वजह से भी कर्ज और खर्च में वृद्धि करता है कि अमेरिकी डॉलर मुख्य रिजर्व मुद्रा है. यह उसे उन बॉण्ड्स को नीची ब्याजदर पर बेचने ताकत देता है जिनकी दुनियाभर में मांग है.

एजेंसियां अगर अमेरिका की रेटिंग गिराने के बारे में भी सोचें तो उनकी रेटिंग से उसे कोई फर्क नहीं पड़ता. पहले भी यह किया जा चुका है, जो बताता है कि ऐसी स्थिति में निवेशक जोखिम लेने से कतराते हैं और अमेरिकी सरकारी बॉन्ड पर ज़ोर देते हैं क्योंकि अमेरिकी ट्रेजरी संस्थागत रूप से मजबूत और तरल बॉन्ड बाज़ार में उतारता है.

निवेशकों को यह भरोसा है कि विकसित देशों के केंद्रीय बैंक रेटिंग में गिरावट के नतीजों का सामना कर लेंगे.


यह भी पढ़ें: एक नया वैश्वीकरण उभर रहा है, जो भारत के लिए अच्छा भी साबित हो सकता है और बुरा भी


भारत में विचारणीय सवाल

क्रेडिट रेटिंग भारत जैसे उन देशों के लिए ज्यादा अहमियत रखती हैं जिनकी मुद्रा कमजोर है.

नरेंद्र मोदी सरकार पिछले एक साल से महामारी के बुरे नतीजों को दूर करने के लिए कई कदम उठाती रही है. अधिकतर राहत पैकेजों का ढांचा वित्तीय घाटे को ध्यान में रखकर तैयार किया गया. लेकिन राजस्व में भारी गिरावट के कारण केंद्र और राज्य सरकारों को कर्ज लेने का कार्यक्रम बढ़ाना पड़ा है. एजेंसियों ने भारत के कर्ज और वित्तीय घाटे के बढ़ते स्तरों पर चिंता जाहिर की है.

अब ये सवाल वाजिब हैं कि कितना कर्ज बहुत ज्यादा माना जाएगा? कर्ज-जीडीपी के किस अनुपात को आदर्श माना जाएगा? अलग-अलग देश आर्थिक विकास के अलग-अलग स्तर पर हैं, तो क्या कोई ऐसा आंकड़ा हो सकता है जिसे सभी देशों के लिए एक कसौटी माना जा सकता है? जो पैमाने सामान्य दिनों के लिए हैं, संकट के दौर में उनके आधार पर क्या किसी देश की कर्ज हासिल करने की योग्यता को नापा जा सकता है?

कोविड की दूसरी लहर के बाद भारत की आर्थिक स्थिति में सुधार की धीमी गति के मद्देनजर रेटिंग एजेंसियों ने उसकी संभावित वृद्धि दर में कटौती की है. ऐसा लगता है कि सरकार जो भी कदम उठा रही है उसे भी ये एजेंसियां खारिज कर देंगी.

(इला पटनायक एक अर्थशास्त्री और नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक फाइनेंस एंड पॉलिसी में प्रोफेसर हैं. राधिका पांडे एनआईपीएफपी में सलाहकार हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


यह भी पढ़ें: शेयर बाजार एक आईना है- 40 सालों में कितना बदला भारतीय बिजनेस और इसमें क्या कमी है


 

share & View comments