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Friday, 22 November, 2024
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‘चुनावी मुद्दा नहीं है धर्मांतरण’- मीनाक्षीपुरम से लेकर नियोगी रिपोर्ट तक खोलते हैं इसके राज़

1950 के दशक में मध्य प्रदेश से ईसाई मिशनरियों द्वारा वनवासी बंधुओं के धर्मांतरण की बड़े पैमाने पर जानकारी सामने आ रही थी. जिसके बाद प्रदेश में कांग्रेस की सरकार ने नियोगी समिति का गठन किया.

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पिछले कुछ दिनों में कुछ ऐसी घटनाएं एक साथ देखने को मिली हैं कि भारत में धर्मांतरण पर बहस फिर से तेज हो गई है. पहले जम्मू-कश्मीर में सिख लड़कियों के जबरन इस्लाम में धर्मांतरण का मुद्दा उठा, फिर उत्तर प्रदेश पुलिस ने धोखे से इस्लाम में धर्मांतरण के एक ऐसे रैकेट का भंडाफोड़ करने का दावा किया. और फिर अमेरिकी शोध संस्था ‘प्यू’ ने भारत में रिलीजन और अंतर्जातीय विवाह आदि के मुद्दे पर सर्वेक्षण कर भारतीय समाज के संबंध में कुछ निष्कर्ष दिए.

एक पक्ष का यह कहना है कि चूंकि उत्तर प्रदेश सहित कई राज्यों में विधानसभा चुनाव अगले साल होने जा रहे हैं, इसलिए जान-बूझकर इस मुद्दे को उछाला जा रहा है, ताकि हिंदू वोटों की गोलबंदी भारतीय जनता पार्टी के पक्ष में की जा सके. तो ऐसे में यह बात काफी महत्त्वपूर्ण हो जाती है कि क्या धर्मातरण हिंदुओं के वोट बटोरने के लिए उछाला जाने वाला केवल एक फौरी चुनावी मुद्दा है या सच्चाई कुछ और है?


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पहले से होता आ रहा है धर्मांतरण

धर्मांतरण भारत के लिए कोई नया मुद्दा नहीं है.

आठवीं शताब्दी में सिंध में मुहम्मद बिन कासिम के हमले के बाद हिंदुओं का इस्लाम में धर्मांतरण शुरू हुआ. इसके बाद 16वीं शताब्दी में पुर्तगालियों के आने के बाद ईसाई मिशनरियों ने हिंदुओं का धर्मांतरण किया. ये सभी धर्मांतरण ज़ोर-ज़बरदस्ती से किए गए और उन्हें सत्ता पक्ष का सहयोग इसमें मिला. उम्मीद थी की भारत की स्वतंत्रता के बाद भारतीयों की अपनी सरकार होगी तो हिंदुओं को धर्मांतरण की इस सर पर लटकती तलवार से राहत मिलेगी. लेकिन ऐसा हुआ नहीं.

स्वतंत्रता के बाद धर्मांतरण को लेकर जो भी घटनाएं हुईं, जिस तरह के विवाद सामने आए, टकराव हुए, उससे इस पूरी यात्रा में दो मील के पत्थर हैं, जिन्होंने इस बहस की दिशा तय करने में निर्णायक भूमिका निभाई है. उन्हें समझेंगे तो धर्मांतरण का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य भी समझ आएगा.

पहला मील का पत्थर था- नियोगी समिति की रिपोर्ट (1956) और दूसरा मील का पत्थर था- मीनाक्षीपुरम (1981) में अनुसुचित जाति के लगभग एक हज़ार बंधुओं का मतांतरण कर उन्हें इस्लाम स्वीकार करवाना.


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नियोगी समिति की रिपोर्ट में भी कही गई धर्मांतरण किए जाने की बात

1950 के दशक में मध्य प्रदेश से ईसाई मिशनरियों द्वारा वनवासी बंधुओं के धर्मांतरण की बड़े पैमाने पर जानकारी सामने आ रही थी. इस संदर्भ में वस्तु स्थिति का आकलन करने के लिए मध्य प्रदेश की राज्य सरकार द्वारा न्यायमूर्ति भवानी शंकर नियोगी (मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय से मुख्य न्यायाधीश के रूप में सेवानिवृत्त) की अध्यक्षता में एक समिति गठित की गई. इसे ‘ईसाई मिशनरियों की गतिविधियों के लिए जांच समिति (क्रिश्चियिन मिशनरीज़ एक्टीविटिज़ इन्क्वायरी कमेटी) कहा गया.

इस समिति को मध्य प्रदेश सरकार ने 14 अप्रैल, 1954 को एक प्रस्ताव पारित कर स्थापित किया.

इस समिति के अन्य सदस्य थे- मध्य प्रदेश विधानसभा के पूर्व स्पीकर घनश्याम सिंह गुप्ता, जबलपुर से सांसद सेठ गोविंद दास, कीर्तिमंत राव, वर्धा में कॉमर्स कॉलेज के प्रोफेसर एस.के. जॉर्ज व मध्य प्रदेश के सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा सचिव बी.पी. पाठक. सेठ गोविंददास ने निजी कारणों से 18 अप्रैल, 1954 को समिति से त्यागपत्र दे दिया और उनके स्थान पर महेंद्रगढ़ के सांसद रतनलाल मालवीय को 8 मई, 1954 को नामित किया गया. कीर्तिमंत राव ने भी प्रदेश की कैबिनेट में प्रवेश के बाद त्यागपत्र दे दिया तथा 4 जनवरी, 1955 को उनके स्थान पर रायपुर जिले में कोमाखान संसदीय क्षेत्र से विधायक गिरिराज सिंह देव को नामित किया गया.

इस समिति ने वस्तुस्थिति जानने के लिए 14 जिलों का दौरा किया- रायगढ़, अकोला, सरगुजा, बुलदाना, रायपुर, मंडला, बिलासपुर, जबलपुर, अमरावती, बैतूल, निमाड़, छिंदवाड़ा, यवतमाल व बालाघाट.

समिति ने 77 केंद्रों पर प्रवास किया व 11,360 लोगों से संपर्क किया गया. समिति को 375 लिखित वक्तव्य प्राप्त हुए. कुल मिलाकर 700 गांवों में समिति के सदस्यों ने वस्तुस्थिति को स्वयं देखा, जांचा व परखा.

इस समिति ने 1956 में दो खंडों में अपनी रिपोर्ट दी. रिपोर्ट का सार यह था कि साम, दाम, दंड, भेद द्वारा ईसाई मिशनरी हिंदू वनवासियों का बड़े पैमाने पर धर्मांतरण कर रहे हैं. नियोगी समिति ने जांच के बाद अपने निष्कर्षों (नियोगी कमेटी रिपोर्ट, जागृति प्रकाशन, पृष्ठ 106-108) का रिपोर्ट में उल्लेख करते हुए कहाः

हमारे सम्मुख जो भी सामग्री आई है उसके आधार पर हम इस निश्चय पर पहुंचते हैं कि जब से भारतीय संविधान लागू हुआ है भारत में काम करने वाली मिशनरी संस्थाओं में अमेरिकन लोगों की संख्या पर्याप्त बढ़ी है. यह संख्या वृद्धि निश्चय ही इंटरनेशनल मिशनरी काउंसिल की उस नीति का परिणाम है जिसके अनुसार हाल में स्वतंत्र हुए देशों में, जहां वैधानिक रूप से धार्मिक स्वतंत्रता की सुविधा हो, ईसाई धर्म के प्रचार के लिए प्रेस, फिल्म, रेडियो और टेलीविजन आदि से सुसज्जित इसाई प्रचारकों के दल को भेजने की योजना बनाई गई थी (मिशनरी आब्लिगेशन ऑफ दि चर्च, पृष्ठ 27 व 31).


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विदेशों से हो रही थी फंडिंग

विदेशों से अपरिमित धन राशि भारत में आ रही है और उस का व्यय मिशनरियों द्वारा शिक्षा के प्रचार, चिकित्सा तथा ईसाईयत के प्रचार के लिए हो रहा है. इस धन के बल पर लूथरन और अन्य धर्मांतरण करने वाली संस्थाओं ने सरगुजा में 4000 व्यक्तियों को ईसाई बना लिया है. अधिकतर धर्म परिवर्तन अनुचित प्रभाव तथा मिथ्या प्रचार द्वारा किए गए हैं.

दूसरे शब्दों में लोगों को अंतःकरण की प्रेरणा से नहीं वरन अनेक प्रकार के प्रलोभनों द्वारा ही ईसाई बनाया गया है. छोटे बच्चों को प्राथमिक अथवा माध्यमिक विद्यालयों में शिक्षा देने के बहाने तथा उन्हें शिक्षा संबंधी अन्य सुविधाएं जैसे बिना मूल्य पुस्तकें और बिना शुल्क पढ़ाई आदि की व्यवस्था करके उन्हें धर्म परिवर्तन की प्रेरणा दी गई.

रुपया उधार देना धर्म परिवर्तन के लिए काम में लाए जाने वाले अनेक उपायों में से एक आम उपाय है. इस प्रकार के ऋण देने की व्यवस्था रोमन कैथोलिक मिशन में विशेष रूप से पाई गई. उन स्थानों पर विशेष दबाव डालने की बात सुनी गई जहां ईसाई बने व्यक्ति अपने परिवार के अन्य सदस्यों को भी ईसाई धर्म में दीक्षित करना चाहते थे अथवा जहां वे विवाह के लिए स्त्रियां प्राप्त करना चाहते थे…..धर्म परिवर्तन होने से धर्मांतरण होने वाले व्यक्ति का उसके समाज से विच्छेद हो जाता है इसलिए देश और राज्य के प्रति उसकी निष्ठा संदिग्ध हो जाती है.

भारत के बहुसंख्यकों के धर्म के विरुद्ध एक निंदनीय संगठित और निश्चित प्रयोजन के साथ प्रचार किया जा रहा है, जिससे जनसाधारण की शांति भंग हो जाने की आशंका है.

भारत में ईसाई प्रचार, ईसाइयों की उस विश्व नीति का एक अंग है जिसका उद्देश्य संसार में फिर से पश्चिम के प्रभुत्व की स्थापना करना है. यह प्रचार आध्यात्मिक उद्देश्य से प्रेरित नहीं प्रतीत होता. इसका स्पष्ट उद्देश्य स्थान-स्थान पर ईसाई अल्पसंख्यकों का संगठन करना तथा उसके द्वारा गैर-ईसाई समाज की एकता को नष्ट करना तथा आदिवासियों के एक विशाल जनसमूह को ईसाई मत में धर्मांतरित कर राष्ट्र के लिए खतरा उत्पन्न करना है.

स्कूल, अस्पताल और अनाथालय धर्म परिवर्तन के साधनों के रूप में काम लाए जा रहे हैं. वनों में रहने वाली जनजातियां और हरिजन, धर्म परिवर्तन के विशेष लक्ष्य हैं. इसका कारण यह है कि उनके क्षेत्र में अस्पताल, स्कूल, अनाथालय तथा अन्य सामाजिक तथा अन्य सेवा संस्थाओं की कोई समुचित सुविधा तथा व्यवस्था नहीं है.

नियोगी आयोग की रपट से भारत में धर्मांतरण के विषय पर गंभीर चर्चा आरंभ हो गई. इसका एक परिणाम 1960 के दशक में विश्व हिंदू परिषद की स्थापना तथा 1956 के बाद से वनवासी कल्याण आश्रम नामक संगठन के काम में तेजी से विस्तार के रूप में सामने आया. ये दोनों संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की प्रेरणा से गठित किए गए थे. आरएसएस आरंभ से ही मतांतरण के खतरों की ओर संकेत कर रहा था और आज भी वह इस मुद्दे को पूरी गंभीरता से उठा रहा है.


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मीनाक्षीपुरम में मतांतरण

मीनाक्षीपुरम में मतांतरण की पूरे देश में तीव्र प्रतिक्रिया हुई. संघ ने इसे देशव्यापी अभियान बनाकर विराट हिंदू समाज नामक संगठन के गठन की प्रेरणा दी. इस संगठन के माध्यम से देश भर में हिंदू सम्मेलन आयोजित कर मतांतरण के खतरों के प्रति लोगों को जागरूक किया गया.

दिल्ली में एक विराट हिंदू सम्मेन आयोजित किया गया जिसमें पांच लाख लोग आए. दिलचस्प बात यह है कि इस संगठन के अध्यक्ष कांग्रेस के वरिष्ठ नेता डॉ. कर्ण सिंह थे और महामंत्री अशोक सिंहल जो उस समय संघ की दिल्ली प्रांत इकाई के प्रचारक थे. बाद में विश्व हिंदू परिषद में जाकर उन्होंने राम जन्मभूमि आंदोलन में अग्रणी भूमिका निभाई.

वास्तव में मीनाक्षीपुरम की घटना के बाद जो हिंदू सम्मेलन हुए, बहस व चर्चाएं हुईं, यहां तक कि संसद में भी इस विषय का संज्ञान लिया गया, उससे स्पष्ट हो गया कि ‘हिंदुत्व’ की स्वीकार्यता अब देशव्यापी हो चुकी थी. एक प्रकार से यह रामजन्मभूमि आंदोलन की नींव थी.

मीनाक्षीपुरम को लेकर देश भर में हुई तीखी प्रतिक्रिया ने संत समाज को रामजन्मभूमि मुक्ति आंदोलन आरंभ करने के लिए आत्मविश्वास दिया. इस आंदोलन ने देश की दशा और दिशा दोनों में आमूल-चूल परिवर्तन कर दिया.

कुल मिलाकर इन तथ्यों के संदर्भ में कहा जा सकता है कि भारत में धर्मांतरण यां मतांतरण कोई फौरी चुनावी मुद्दा नहीं है. यह समाज के लिए सैकड़ों वर्षों से चिंता व आक्रोश का विषय है और तब तक यह मुद्दा बना रहेगा जब तक जबरदस्ती, धोखे व फरेब से मतांतरण बंद नहीं हो जाते.

(लेखक दिल्ली स्थित थिंक टैंक विचार विनिमय केंद्र में शोध निदेशक हैं. उन्होंने आरएसएस पर दो पुस्तकें लिखी हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)


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