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Thursday, 25 April, 2024
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महंगाई गरीबों के ‘विकास’ के लिए पीएम मोदी की नई महत्वाकांक्षी योजना है?

महंगाई इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्रीकाल तक ‘प्रगतिशील अर्थव्यवस्था का गुण’ भर हुआ करती थी, नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्रीकाल में वह ‘देश के विकास के लिए’ हो गई है- खासकर गरीबों के लिए.

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पांच साल पहले, 21 मई 2016 को अपनी सरकार के दो साल पूरे होने पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपने ट्विटर हैंडल से 2 मिनट 49 सेकेंड का एक ‘थीम सांग’ लांच किया था, जिसके बोल थे : ‘मेरा देश बदल रहा है, आगे बढ़ रहा है’. आज की तारीख में किसी को देखना हो कि इस दौरान उसका देश कितना उसका रह गया और कितना बदला या आगे बढ़ा है, तो उसे ज्यादा दूर न जाकर बटलोई के चावल देख लेने चाहिए-हां, महंगाई की बढ़वार. बस इतने से ही उसे पता चल जायेगा कि देश इतना बदल और आगे बढ़ गया है कि जो महंगाई इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्रीकाल तक ‘प्रगतिशील अर्थव्यवस्था का गुण’ भर हुआ करती थी, नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्रीकाल में वह ‘देश के विकास के लिए’ हो गई है-खासकर गरीबों के लिए.

इस सरकार से पहले की सरकारें अपनी विकास योजनाओं को ही आम आदमी अथवा गरीबों के लिए बताया करती थीं. लेकिन अब वे देख रहे हैं, नि:स्संदेह पहली बार कि इस सरकार ने महंगाई को भी उन्हीं को समर्पित कर दिया है. जैसे कि महंगाई भी गरीबों के विकास के लिए शुरू की गई कोई नयी महत्वाकांक्षी योजना हो.

यह कहने वाले मध्य प्रदेश के ऊर्जा मंत्री प्रद्युम्न सिंह तोमर अकेले नहीं हैं कि क्या हुआ जो डीजल और पेट्रोल मंहगे हो रहे हैं, उनके महंगे दामों का इस्तेमाल गरीबों के भले के लिए ही तो किया जा रहा है. फिर भी मोदी सरकार का ‘दुर्भाग्य’ कि कई नाशुक्रे बढ़ती महंगाई, यहां तक कि पेट्रोल के दामों के शतक लगाने को भी, उसके द्वारा किये जा रहे ‘नये इतिहास निर्माण’ के बजाय ‘इतिहास की पुनरावृत्ति’ के तौर पर ही देख रहे और 7 साल पहले जनादेश प्राप्त करने के लिए उसकी ओर से जोर-शोर से प्रचारित किये गये ‘बहुत हुई महंगाई की मार’ वाला नारा याद दिलाने के विफल प्रयासों में मुब्तिला हैं.

दूसरी ओर सरकार जान-बूझकर ऐसा अभिनय कर रही है जिससे लगे कि उसे यह नारा अब याद नहीं रह गया, जबकि वही नाशुक्रे कह रहे हैं कि उसने जिस तरह अपनी आंखों का पानी मार दिया है, उससे पहले किसी सरकार ने नहीं मारा. क्या आश्चर्य कि इस क्रम में दंगों की हिंसा और मॉब लिंचिंग से लेकर अपने कई दमनकारी कदमों व कानूनों को जबरिया उचित बताने की उसकी पुरानी लत अब उस महंगाई के पक्षपोषण तक आ पहुंची है, जो उससे पहले तक सारे भारतीयों के लिए डायन या सुरसा की तरह होती और डराती थी.


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महंगाई से बचाने का वादा करके आने वाली सरकारें लोगों को उससे नहीं बचा पाती थीं तो भले ही बंगलें झांकतीं और कुतर्क पेश करती थीं, अपनी वादाखिलाफी को लेकर शरमाती भी थीं. कोई गाने लगे कि ‘बाकी जो बचा था, महंगाई मार गई’ तो न उस पर लाल-पीली होती थीं, न महंगाई को गरीबों के विकास अथवा राष्ट्रवाद से जोड़कर देशभक्ति का दूसरा नाम बताती थीं. लेकिन अब ‘जबरा मारे ओर रोने भी न दे’ की तर्ज पर पेट्रोल-डीजल पर भारी-भरकम कराधान कर उन्हें पड़ोसी देशों में सबसे महंगे बेचने तक को देश के विकास की चिंता को समर्पित किया जा रहा है, ताकि देशवासी महंगाई के नाम पर ‘उफ’ तक भी न कर सकें. इस डर से कि ऐसा करते ही वे विकासविरोधी और राष्ट्रविरोधी हो जायेंगे. भले ही उनके निकट महंगाई का त्रास कोरोना की दूसरी लहर से भी ज्यादा हो.

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नि:स्संदेह, यह इस कड़वी सच्चाई को छिपाने की कवायद भी है कि महंगाई से किसी और का नहीं, केवल सरकार और उसके कृपापात्र उद्योगपतियों के मुनाफे का ही ‘विकास’ हो रहा है. बाकी लोगों का विकास तो जैसा कि एक कार्टूनिस्ट ने अपने कार्टून में दर्शाया है, उनके घरों में प्रवेश के लिए उनके सामने खड़े महंगाई के संतरी की अनुमति का मोहताज हो चला है.

एक आरटीआई के जवाब में प्राप्त सरकारी आंकड़ों के ही अनुसार केन्द्र सरकार ने वित्तीय वर्ष 2020-21 में पेट्रोलियम उत्पादों पर 4.51 लाख करोड़ का कर राजस्व कमाया है, जबकि पेट्रोलियम उत्पादों के आयात पर 37,806.96 करोड़ रुपये की कस्टम ड्यूटी वसूली है. इसके अतिरिक्त पेट्रोलियम उत्पादों के विनिर्माण पर सेंट्रल एक्साइज ड्यूटी के रूप में 4,13,735.60 करोड़ रुपये सरकारी खजाने में जमा किये गये हैं. इस धनराशि से वह आम लोगों या गरीबों का कितना विकास कर रही है, इसे यों समझा जा सकता है कि सर्वोच्च न्यायालय में सुनवाई के दौरान वह कोरोना से मरने वालों के आश्रितों व परिजनों को मुआवजा देने से तब तक आनाकानी करती रही, जब तक न्यायालय ने उसे इसके लिए बाध्य नहीं करार दे दिया.

कोरोना के जिस मुफ्त टीकाकरण के लिए कई लोग ‘मोदी जी’ को धन्यवाद दे रहे हैं, वह भी न्यायिक दबाव में बदली गई टीकाकरण नीति का ही प्रतिफल है.

सरकार जिन फैसलों में न्यायिक दबाव से मुक्त है, उनमें वह नागरिकों के प्रति इतनी बेदर्द है कि यह तक याद नहीं रख पाती कि कोरोना काल में उनमें से बड़ी संख्या में अपनी नौकरियां, रोजी-रोजगार या आय के दूसरे साधन खो चुके हैं, जिसके चलते उनकी पीठ पर पड़ने वाले महंगाई के कोड़े उनकी पीठ की बची-खुची खाल भी उधेड़ ले रहे हैं. तभी तो पहली जुलाई को सरकारी तेल कंपनियों ने रसोई गैस सिलेंडरों की कीमतों में और इजाफा कर दिया है. गत वर्ष नवंबर से इस जुलाई तक इन सिलेंडरों के दाम 240.5 रुपये यानी लगभग 40 प्रतिशत तक बढ़ चुके हैं, जबकि मोदी सरकार के सात सालों में दोगुने.

प्रसंगवश, इन तेल कंपनियों ने अप्रैल में इन सिलेंडरों की कीमत 10 रुपये घटाई थी क्योंकि पश्चिम बंगाल समेत पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव होने थे. इससे भी सरकार की बदनीयती का ही पता चलता है. जब भी रसोई गैस सिलेंडरों के दाम बढ़ते हैं, सरकार यह कहकर अपना बचाव करती है कि इसके पीछे उनके अंतरराष्ट्रीय बाजार की परिस्थितियां हैं. लेकिन यहां भी झोल है. क्योंकि सऊदी अरब की जिस अरामको नामक कम्पनी द्वारा तय किये गये रसोई गैस के दाम को बेंच मार्क माना जाता है, उसकी रसोई गैस मार्च में 587 अमेरिकी डॉलर प्रति मीट्रिक टन थी और तब भारत में रसोई गैस सिलेंडर का दाम 819 रुपये था.

अब अरामको ने उक्त दाम घटाकर 527 अमेरिकी डालर प्रति मीट्रिक टन कर दिये हैं, तब भारत में उसका एक सिलेंडर औसतन 834 रुपए में बेचा जा रहा है, जबकि रुपए और डॉलर की विनिमय दर को समायोजित करने के बाद इसकी कीमत तय की जाए तो यह 552 प्रति सिलेंडर ही होनी चाहिए.

लेकिन सरकार है कि एक ओर तो इस पर अपनी मुनाफाखोरी के खिलाफ दिया जा रहा कोई तर्क सुनने या समझने को तैयार नहीं है और दूसरी ओर उसे देशभक्ति से जोड़ रही है. ऐसे में किसी को तो उससे पूछना चाहिए कि अपनी बहुप्रचारित उज्ज्वला योजना के तहत गरीब महिलाओं को चूल्हे से गहरे काले धुएं से मुक्ति दिलाने का सपना दिखाकर उन्हें उससे भी त्रासद महंगी रसोई गैस की घुटन की सौगात दे देना कौन-सी देशभक्ति है और उससे किसका और कितना विकास हो रहा है?

(लेखक जनमोर्चा अख़बार के स्थानीय संपादक हैं, यह लेख उनका निजी विचार है)


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