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Thursday, 25 April, 2024
होममत-विमतचुनाव से पहले ही पालाबदलुओं ने क्यों नया ठिकाना तलाशना शुरू किया, क्या दिखाता है ये ट्रेंड

चुनाव से पहले ही पालाबदलुओं ने क्यों नया ठिकाना तलाशना शुरू किया, क्या दिखाता है ये ट्रेंड

पश्चिम बंगाल से सबक लेकर भाजपा जितने अच्छे से यह समझेगी कि आयातित नेताओं पर तकिया रखना हमेशा चुनावी जीत की गारंटी नहीं होता, उतना ही उसका भला होगा.

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ऐसा लगता है कि देश में राजनीतिक पार्टियों में तोड़-फोड़ और नेताओं के पाला बदलकर नये ठौर-ठिकाने तलाशने का नया दौर आ गया है- उत्तर प्रदेश से लेकर पश्चिम बंगाल तक.

यह दौर इस लिहाज से अप्रत्याशित है कि राजनीतिक प्रेक्षक इसके पांच राज्यों के अगले साल होने जा रहे विधानसभा चुनावों के निकट आने पर दस्तक देने की उम्मीद कर रहे थे, लेकिन यह उससे पहले ही ऐसे अंदाज में आ पहुंचा है कि कई मायनों में इसे उक्त चुनावों से जोड़ना युक्तिसंगत नहीं लग रहा.

मसलन, पश्चिम बंगाल में जिसका आगामी विधानसभा चुनावों से दूर-दूर तक कोई वास्ता नहीं है, यह विधानसभा चुनाव के फौरन बाद ही आ धमका है. बिहार में स्वर्गीय रामविलास पासवान की लोकतांत्रिक जनशक्ति पार्टी पर कब्जे को लेकर उनके भाई पशुपति कुमार पारस और बेटे चिराग के बीच जो जंग छिड़ी है और जिसे वहां सत्तारूढ़ जनतादल यूनाइटेड द्वारा प्रायोजित बताया जाता है, उसके पीछे भी पांच राज्यों के अगले नहीं, बल्कि बिहार के पिछले विधानसभा चुनाव ही हैं.

यों, ऐसे पाला बदलना अब देशवासियों को चौंकाता नहीं हैं. कारण यह कि आजादी के थोड़े ही दिनों बाद देश की मुख्यधारा वाली राजनीति द्वारा अपनी राह को सिद्धांतों, विचारों व नैतिकताओं से अलग कर लेने के बाद से ही वे ‘आयाराम गयाराम’ के अनेक दौर देख चुके हैं. इस मुहावरे की जन्मभूमि हरियाणा में तो वे एक समय पूरी भजनलाल सरकार का पालाबदल देख चुके हैं और जानते हैं कि हमारी आज की राजनीति का ज्यादातर हिस्सा न सिर्फ राजनीतिविहीन व अलोकतांत्रिक हो चुका है, बल्कि नेताओं की सत्ता की सुविधा से वागर्थाविवसम्पृक्त है.


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तिस पर विडम्बना यह कि 2014 में सत्ता व राजनीति से जुड़ी पुरानी सारी बुराइयों को नष्टकर सब कुछ बदल डालने के वायदे पर भाजपा के अपने महानायक नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में सत्तासीन होने के बाद नेताओं के पालाबदल के साथ उनकी वह खरीद-फरोख्त भी पूरी तरह खुल्लमखुल्ला हो चली है जो पहले थोड़ी-बहुत शर्म के तकाजों से भी जुड़ती थी.

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लेकिन दूसरे पहलू से देखें तो तोड़-फोड़ व पाला बदल का ताजा दौर पिछले सात सालों में आये पालाबदलों के अन्य दौरों से पूरी तरह तुलनीय नहीं है. कारण यह कि इस बार इनका प्रवाह भाजपा की ओर न होकर आमतौर पर उसके विरुद्ध दिख रहा है. भाजपा के समूचे इतिहास में संभवतः पहली बार हुआ है, जब पश्चिम बंगाल में उसके राष्ट्रीय उपाध्यक्ष जैसे पद पर आसीन नेता मुकुल रॉय ने पालाबदल कर उसे अन्तिम प्रणाम कर लिया. प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपनी ओर से फोन कर उन्हें मनाने की कोशिश की, तो भी उन्होंने पसीजने से मना कर दिया.

अब खबर है कि पार्टी के दो दर्जन नवनिर्वाचित विधायक, कई सांसद और अनेक कार्यकर्ता भी पालाबदल की लाइन में लगे हैं. वे भाजपा से इस कदर हताश हैं कि विधानसभा चुनाव के बाद पार्टी कार्यकर्ताओं की हत्याओं को लेकर अपने नेता के साथ राज्य सरकार की शिकायत करने राज्यपाल के पास नहीं जाते और फिर से उसी पार्टी से अपने राजनीतिक उद्धार की गुहार लगा रहे हैं, जिसे कुछ दिन पहले छोड़ आये थे. उनमें से कई इसके लिए धरने वगैरह की राह भी पकड़ रहे हैं. उनकी यह कारस्तानी सिद्धांतहीन राजनीति की पुरानी मिसालों में नई कड़ी जोड़ती है तो उसकी अभूतपूर्वता भी बहुत कुछ कहती है.

देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश की बात करें तो बहुजन समाज पार्टी के नौ बागी विधायकों ने पालाबदल की सोची तो उन्होंने भी भाजपा की बांह गहना ठीक नहीं समझा. उन्होंने उसकी प्रतिद्वंद्वी समाजवादी पार्टी के दर पर दस्तक दी और उसके कार्यालय जाकर अखिलेश यादव से मिले. ये पंक्तियां लिखने तक इन विधायकों को सपा में शामिल करने को लेकर सपा व बसपा में बुरी तरह ठनी हुई है, फिर भी बागी विधायक मन बदलकर भाजपा की ओर मुंह नहीं कर रहे.

कई प्रेक्षकों के अनुसार यह प्रदेश की राजनीति में बदलाव का ही नहीं सत्तारूढ़ भाजपा की बदलती स्थिति का भी संकेत है.

पिछले वर्षों में बहुसंख्यकों की धार्मिक भावनाओं के दोहन पर आधारित भाजपा की राजनीति पहले नरेंद्र मोदी के पराक्रम, फिर उनके साथ योगी आदित्यनाथ की जुगलबन्दी से इस तरह परवान चढ़ी कि वह जिताऊ पार्टी में बदलकर ऐसे नेताओं की उम्मीदों के केन्द्र में आ गई, जो किसी भी कीमत पर खुद को लोकसभा या विधानसभा में देखना चाहते हैं. ऐसे में दूसरी पार्टियों से निराश, निकले या निकाले गये नेताओं को भाजपा का दामन थामना सबसे ज्यादा सुभीते का लगने लगा. भाजपा ने भी अपनी ओर से ऐसे लोगों को गले लगाने में भरपूर दरियादिली प्रदर्शित की. वे दागी हुए तो भी, और अपराधी हुए तो भी. न सिर्फ उत्तर प्रदेश में बल्कि सारे देश में. इससे उसके विरोधी व्यंग्यपूर्वक उसे ऐसी वाशिंग मशीन कहने लगे, जिसमें नेता अपने पापों व अपराधों के सारे दाग धुलकर लक-दक हो जाया करते हैं.

लेकिन ताजा पालाबदल के बाद यह सवाल लाख टके का हो गया है कि क्या अब ऐसा नहीं रह गया? दरअसल, जब से कुछ दिनों पहले भाजपा द्वारा कथित रूप से पहले कराये गये आंतरिक सर्वे में राज्य विधानसभा के चुनाव में उसे सौ से भी कम सीटें मिलने की भविष्यवाणी, साथ ही उससे बढ़ती उसकी चिंता सामने आई है, यह बात किसी से भी छिपी नहीं रह गई है कि उसके लिए जमीनी हालात अच्छे नहीं रह गये हैं. लोग एक तो कोरोना के वक्त उसकी सरकारों द्वारा उन्हें उनके हाल पर छोड़ देने से नाराज हैं, दूसरे बढ़ती जा रही महंगाई और कानून-व्यवस्था के खस्ताहाल से.

अयोध्या में रामजन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट पर जिस तरह श्रद्धालुओं के दिये चन्दे की राशि से अनाप-शनाप ढंग से जमीनें खरीदने के आरोप लग रहे हैं, उससे उसका राम मन्दिर निर्माण कार्ड भी खतरे में पड़ता दिखाई दे रहा है. तिस पर पिछले कुछ दिनों से जमीनी हालात का मूल्यांकन कर उनसे निपटने के उपायों पर मतभेदों को लेकर उसके भीतर जिस तरह तलवारें खिंची हुई हैं, उससे भी उसकी संभावनाएं संदिग्ध हो रही है.

नेताओं के बारे में कहा जाता है कि वे राजनीतिक प्रवाहों को आम लोगों के मुकाबले जल्दी पढ़ लेते और उसी के अनुसार अपने भविष्य की योजनाएं बनाते हैं. ऐसे में बसपा से निराश उसके बागी विधायकों के भाजपा के बजाय सपा की ओर मुंह करने के संकेत यकीनन, भाजपा के जिताऊ न रह जाने की घोषणा जैसे और पालाबदलुओं पर उसकी निर्भरता को मुंह चिढ़ाने वाले हैं. खासकर, जब कहा जाता है कि पिछले दिनों उसकी शरण गहने वाले कांग्रेस के जितिन प्रसाद ने भी पहले सपा का ही दरवाजा खटखटाया था. सपा के सुप्रीमो अखिलेश यादव ने उन्हें पार्टी में लेने से इनकार कर दिया, तब बेचारगी में उन्होंने भाजपा में जाने का फैसला किया.

कई जानकारों के अनुसार बागी बसपा विधायकों के भाजपा के पाले में न जाने का एक कारण यह भी हो सकता है कि आज की तारीख में कोई ठिकाना नहीं कि कब बसपा खुद भी भाजपा के गुन गाने और उसके साथ सत्ता में आने की जुगत भिड़ाने लग जाये और लगे हाथ उनके पालाबदल को निरर्थक कर दे. लेकिन बसपा द्वारा पंजाब में किसानों के मुद्दे पर भाजपा का साथ छोड़ चुके शिरोमणि अकाली दल के साथ जाना भी यही बताता है कि उसने भाजपा के बजाय उसका गठबंधन छोड़ने वाले को तरजीह दी है.

ऐसे में यह क्यों कर कहा जा सकता है कि वह अपनी आधारभूमि उत्तर प्रदेश में आगामी विधानसभा चुनाव में किसी से भी गठबंधन न करने की अपनी घोषित नीति त्यागेगी भी तो उस भाजपा के साथ जाने के लिए, जिसके लिए अभी लोगों को यह विश्वास दिलाना भी कठिन हो रहा है कि उसके अन्दर सब कुछ ठीक है?

कई प्रेक्षक तो यह भी कह रहे हैं कि भाजपा के लिए न सिर्फ उत्तर प्रदेश बल्कि कर्नाटकराजस्थान में भी अपना घर संभालना कठिन हो गया है.

अलबत्ता, वे यह भी सुझा रहे हैं कि पश्चिम बंगाल से सबक लेकर वह जितने अच्छे से यह समझेगी कि आयातित नेताओं पर तकिया रखना हमेशा चुनावी जीत की गारंटी नहीं होता, उतना ही उसका भला होगा.

(लेखक जनमोर्चा अख़बार के स्थानीय संपादक हैं, यह लेख उनका निजी विचार है)


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