पटना: लोक जनशक्ति पार्टी (एलजेपी) के नेता पशुपति कुमार पारस 1977 से राजनीति में हैं. वो एक विधायक, राज्य मंत्री, सांसद और एमएलसी रहे हैं, लेकिन वो काफी हद तक, ‘राम विलास का भाई’ के तौर पर जाने जाते रहे हैं. वो पूर्व केंद्रीय मंत्री स्वर्गीय राम विलास पासवान के छोटे भाई हैं.
लेकिन, 68 वर्षीय पशुपति सोमवार को अपने असली रूप में आ गए, जब उन्होंने संगठन के बाक़ी चार सांसदों के समर्थन से, अपने भतीजे चिराग पासवान से LJP संसदीय दल के प्रमुख का पद ले लिया, जो ख़ुद पार्टी के एक सांसद हैं.
लंबे समय से एक अनिच्छुक, लो-प्रोफाइल नेता के तौर पर देखे जा रहे पारस के पास, न तो भाई का करिश्मा था और न ही जनाधार. लेकिन अब साथी एलजेपी नेता उन्हें, उस ‘बड़ी भूल’ के प्रतिकारक रूप में देख रहे हैं, जो चिराग ने 2020 के विधान सभा चुनावों में, बिहार मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के खिलाफ जाकर की, जिससे एनडीए की जीत का अंतर कम हुआ.
पूरे चुनाव प्रचार के दौरान चिराग ने नीतीश की आलोचना का मोर्चा खोले रखा, जिनका जनता दल (यूनाइटेड) एनडीए का सदस्य है, हालांकि वो बीजेपी के समर्थन का दम भरते रहे. उन्होंने जेडी(यू) के खिलाफ उम्मीदवार खड़े किए और बिहार में अपनी पार्टी को एनडीए से बाहर कर लिया. अंत में उनकी पार्टी 143 सीटों पर लड़ने के बाद केवल एक सीट जीत पाई, लेकिन ऐसा माना जाता है कि अपने प्रचार से उन्होंने एनडीए को वोट शेयर में सेंध ज़रूर लगाई.
खगड़िया से एलजेपी सांसद महमूद अली क़ैसर ने कहा, ‘पारस जी एक अनुभवी राजनीतिज्ञ हैं, जो बिहार की सियासत को समझते हैं. चिराग पासवान ने सभी वरिष्ठ राजनेताओं की अनदेखी की. असेम्बली चुनावों में एनडीए उम्मीदवारों के खिलाफ लड़ना और नीतीश कुमार के खिलाफ जाना ग़लत था’.
उन्होंने आगे कहा, ‘राजनीति ज़मीनी वास्तविकताओं के आधार पर की जाती है, व्यक्तिगत पसंद या नापसंद के आधार पर नहीं. रामविलास जी के पांव मज़बूती से ज़मीन पर रहते थे. पारस जी रामविलास जी की विरासत को आगे बढ़ाने का काम करेंगे’.
वैशाली के सांसद वीणा देवी ने ज़ोर देकर कहा कि पार्टी नेतृत्व में बदलाव पार्टी का टूटना नहीं है.
उन्होंने कहा, ‘हमने नेता को बदल दिया है और चिराग पासवान की जगह पारस जी को चुना है, क्योंकि पार्टी को एक राजनीतिक रूप से परिपक्व नेता की ज़रूरत है, जो जानता हो कि पार्टी का फायदा किसमें है’. उन्होंने आगे कहा, ‘चिराग पासवान नेताओं और कार्यकर्ताओं की उम्मीदों पर पूरे नहीं उतर पाए’.
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बिहार में भाई के आदमी
लोकसभा वेबसाइट पर उनकी प्रोफाइल के अनुसार पारस 12 जुलाई 1952 को खगड़िया में अपने भाई के छह साल बाद पैदा हुए थे. उनके पास राजनीति शास्त्र में बीए (ऑनर्स) के साथ बीएड की भी डिग्री है. मौजूदा लोकसभा में वो हाजीपुर का प्रतिनिधित्व करते हैं, जो अनुसूचित जातियों (एससी) के लिए आरक्षित सीट है.
जब उनके भाई जीवित थे तो पारस बिहार में उनके आदमी का काम अंजाम देते थे, जबकि पासवान दिल्ली की राजनीति में, अपने हित साधते थे. अपनी पार्टी चलाने और अपने सांसदों तथा विधायकों के संपर्क में बने रहने के लिए, पासवान पारस पर निर्भर करते थे. वो उन फंड्स को भी देखते थे, जो उन्हें पार्टी चलाने के लिए मिलते थे.
पारस खुलकर इस बात को स्वीकार करते हैं कि उनकी ख़ुद की राजनीति, उनके भाई के इर्द-गिर्द केंद्रित थी.
1996 में चारा घोटाले के बाद जब राजनीतिक माहौल गर्म हुआ, तो पूर्व जनता दल के एक वर्ग ने लालू प्रसाद को हटाने की मांग की. इसके बाद लालू ने अपने पांच मंत्रियों को हटा दिया, लेकिन पारस को नहीं हटाया, बावजूद इसके कि वो जानते थे कि रामविलास पासवान, जनता दल विधायकों के बीच विरोध को हवा दे रहे थे.
इसे पासवान के लिए शांति के संदेश के रूप में देखा गया. लेकिन पारस ने मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया. उन्होंने उस समय इस रिपोर्टर से कहा था, ‘मैं इस मंत्रिमंडल में बना नहीं रह सकता और मैंने अपनी सरकारी गाड़ी भी लौटा दी है’. उन्होंने ये भी कहा था कि उन्होंने अपने भाई से मशविरा नहीं किया था. किसी ने उनकी बात का विश्वास नहीं किया और ये माना गया कि रामविलास पासवान ने लालू के शांति के संकेत को ठुकरा दिया था.
लेकिन, ऐसा नहीं था कि पारस के अपने विचार नहीं थे. फरवरी 2005 विधानसभा चुनावों में त्रिशंकु सदन आने के बाद माना जा रहा था कि सरकार के गठन की चाबी 27 विधायकों वाली एलजेपी के पास है.
ऐसा माना जाता था कि पारस का निजी विचार ये था कि पार्टी को नीतीश का समर्थन करके, बिहार में सरकार बनानी चाहिए. एक पूर्व एलजेपी विधायक ने बताया, ‘लेकिन रामविलास जी अपने पत्ते नहीं खोल रहे थे और जब एनडीए ने एलजेपी विधायकों को तोड़ने की कोशिश की, तो पारस ने एक चार्टर्ड विमान लिया और अपने बाक़ी 16 विधायकों को साथ लेकर दिल्ली आ गए. अपने सख़्त लालू-विरोधी विचारों के बावजूद जब भी उनके भाई ने चाहा, पारस ने लालू से संपर्क स्थापित किया’.
स्थिति का अंत ये हुआ कि उसी एक साल के भीतर, राज्य को एक और चुनाव से गुज़रना पड़ा.
इन तमाम वर्षों के दौरान पारस ने पासवान के लिए राज्य सरकार के दरवाज़े का भी काम किया. अगर पासवान को राज्य सरकार से कोई काम निकालना होता था, तो ये पारस ही थे जो नीतीश कुमार से बात करते थे. उनके नीतीश से अच्छे रिश्ते थे, उस समय भी, जब वो और पासवान दूसरी ओर थे.
लेकिन इसके अलावा, उन्हें एक शांत और ढीला राजनेता माना जाता है. 2019 में जब पासवान ने उन्हें अपनी पारंपरिक सीट, हाजीपुर से चुनाव लड़ने के लिए कहा, तो पारस ने नामांकन दाख़िल तो कर दिया, लेकिन ‘अनिच्छा’ के साथ.
एक पूर्व मंत्री ने कहा, ‘मुझे पटना में हर रोज़ पारस को, उनके घर में बिस्तर से खींचकर लाना पड़ता था. हम दोपहर तक हाजीपुर पहुंचते थे. पारस एक मीटिंग करते थे, और कुछ समय पार्टी ऑफिस में बिताते थे. हर रोज़ शाम तक वो पटना लौट आते थे’.
नेता ने आगे कहा, ‘इसके विपरीत, आरजेडी उम्मीदवार ने वहीं डेरा डाला हुआ था. मैंने नीतीश जी से कहा कि अगर हमने हाजीपुर जीत लिया, तो हम बिहार की सभी 40 सीटें जीत लेंगे’.
‘भाई की मौत के बाद अकेले’
2019 लोकसभा चुनावों के बाद चिराग पासवान ने पार्टी की बागडोर संभाल ली और उनके भाई की सेहत बिगड़ती चली गई. इसके साथ ही पारस को किनारे कर दिया गया और एलजेपी के फैसलों के बारे में भी उन्हें अंधेरे में रखा जाने लगा.
रामविलास पासवान के फोन आने बंद हो गए और इसके साथ ही फंड्स का सिलसिला भी ख़त्म हो गया.
जब चिराग ने जेडी(यू) के ख़िलाफ उम्मीदवार उतारने का फैसला किया, तो पारस ने ये कहकर अपनी नाराज़ी का इज़हार कर दिया कि उन्हें इस बारे में कुछ पता नहीं था.
कहा जाता है कि पार्टी की राज्य इकाई को चलाना तो दूर, चिराग अपने चाचा से कभी बात भी नहीं करते थे. पिछले साल पारस को पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष पद से हटा दिया गया.
पासवान की मौत के बाद से, चिराग और पारस का बस एक बार आमना- सामना हुआ है, स्वर्गीय एलजेपी प्रमुख के अंतिम संस्कार के समय.
लेकिन, संसदीय दल के नेता का पद ग्रहण करने के बाद पारस ने ज़ोर देकर कहा कि एलजेपी में बने रहने के लिए चिराग का स्वागत है.
पारस ने सोमवार को पत्रकारों से कहा, ‘अपने भाई के मरने के बाद मैं अकेला पड़ गया था. हमने उम्मीद की थी कि भाई की मौत के बाद, हम एनडीए का हिस्सा बनेंगे. लेकिन ऐसा नहीं हुआ और पार्टी बिखर रही थी और कार्यकर्ताओं की बात सुनने वाला कोई नहीं था’.
‘मैंने ये क़दम पार्टी को बचाने के लिए उठाया है. जब तक मैं जीवित हूं, तब तक पार्टी बनी रहेगी’.
पारस ने कहा कि चिराग का पार्टी में बने रहने के लिए स्वागत है. उन्होंने ये भी कहा कि एलजेपी राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) का हिस्सा बनी रहेगी.
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