भारत सरकार ने इस हफ्ते विदेश निर्मित उन वैक्सीन के इस्तेमाल की प्रक्रिया तेज कर दी जिन्हें अमेरिका, ब्रिटेन, यूरोपीय संघ और जापान के नियामकों की मंजूरी मिल चुकी है या फिर जो आपात इस्तेमाल संबंधी डब्ल्यूएचओ की सूची में हैं. और अब जबकि कोविड-19 मामलों में तेजी से उछाल और संभावित लॉकडाउन और अन्य पाबंदियों ने अर्थव्यवस्था को फिर से खतरे में डाल दिया है, यह कदम आर्थिक सुधार की प्रक्रिया को पटरी पर बनाए रखने की राह खोलेगा.
इन टीकों पर रोक उत्पादन करने वाले देशों की तरफ से नहीं लगाई गई थी बल्कि इनके इस्तेमाल पर प्रतिबंध खुद भारत ने अपनी तरफ से लगाया था. यह स्वागत योग्य कदम है कि ये प्रतिबंध हटा लिया गया है.
अब तक, अपनी विशाल आबादी और सीमित सरकारी संसाधनों के साथ भारत में बमुश्किल 7 प्रतिशत लोगों को टीका लग पाया है. अगर यही गति जारी रही तो पूरी आबादी को कवर करने में दो साल से अधिक समय लगेगा, यह कुछ ऐसी स्थिति है जिसका जोखिम भारत उठा नहीं सकता है.
तीन कारणों से यह कदम महत्वपूर्ण है
इसके पीछे तीन महत्वपूर्ण कारण हैं कि भारत ने इन टीकों के आयात की अनुमति क्यों दी.
सबसे पहली बात, नए नियमों के तहत भारत को वैक्सीन के इस्तेमाल से पहले स्थानीय स्तर पर ट्रायल की जरूरत नहीं पड़ेगी और इस तरह से उन्हें तेजी से रोलआउट किया जा सकता है. स्थानीय स्तर पर ट्रायल में लंबा समय लग सकता है और यद्यपि आबादी की अलग विशिष्टताओं के कारण इसके फायदों में थोड़ा अंतर तो हो सकता है लेकिन तेजी से फैलते कोविड-19 के बीच लोगों की जान और सेहत की कीमत को देखते हुए उन्हें नजरअंदाज किया जा सकता है.
दूसरा, यह कदम वायरस के टीका-प्रतिरोधी म्यूटेंट से लड़ने में मददगार हो सकता है. यदि आबादी को बड़े पैमाने पर केवल एक ही तरह का टीका लगेगा तो वायरस के फिर से फैलने की गुंजाइश अधिक होगी क्योंकि उसमें उस विशेष वैक्सीन के प्रति प्रतिरोधक क्षमता वाला म्यूटेंट विकसित हो सकता है.
अलग-अलग टीके लगने की स्थिति में इस परिदृश्य की संभावना कम ही रहेगी क्योंकि इससे लोगों में अलग-अलग स्ट्रेन से लड़ने की क्षमता विकसित होने की संभावना रहेगी. यह एक ही टीके की तुलना में तेजी से आबादी के बीच हर्ड इम्युनिटी विकसित करने में मदद करेगा. तमाम देश टीका-प्रतिरोधी म्यूटेंट विकसित होने का जोखिम घटाने के लिए अलग-अलग किस्म के टीके लगाए जाने की अनुमति दे रहे हैं.
तीसरा, एक ही खुराक में दिए जा सकने वाले टीके देश के दूरदराज वाले क्षेत्रों में लागत के लिहाज से ज्यादा प्रभावी साबित हो सकते हैं. सरकार के लिए वैक्सीन लगाने पर आने वाली लागत सिर्फ वैक्सीन की कीमत नहीं होती बल्कि पूरी सप्लाई चेन और लॉजिस्टिक, स्टाफ और खुराक देने की व्यवस्था करने पर आने वाली लागत भी होती है. यह लागत दोगुनी हो जाती है जब खुराक दो बार देने की जरूरत पड़ती है.
ये कदम देश के विभिन्न हिस्सों में लगाई जाने वाली वैक्सीन के लिए विकल्प उपलब्ध करा सकता है.
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अगला कदम
अब जब विदेशी टीकों की अनुमति दी जा रही है, तो अगला सवाल यह है कि इन्हें आयात करने की अनुमति किसे दी जाएगी? अब तक, कंपनियों या निजी व्यक्तियों के स्तर पर टीकों की खरीद पर प्रतिबंध थे क्योंकि माना जा रहा था कि आपूर्ति सीमित है और इस तरह हाई डिमांड सबसे अधिक जरूरतमंद लोगों— बुजुर्गों और कोमोर्बिडिटी वाले मरीजों को वैक्सीन पाने से वंचित कर देगी.
टीकाकरण कार्यक्रम में 45 वर्ष से अधिक उम्र के लोगों को शामिल किए जाने के बाद वैक्सीन की आपूर्ति में अचानक कमी आ गई थी. उसके साथ ही कोविड के मामलों में पहली लहर की तुलना में ज्यादा तेजी से वृद्धि हो गई है और आयात के माध्यम से आपूर्ति को पूरा करना जरूरी हो गया है.
वैक्सीन रोलआउट के अगले चरण में यह बात ध्यान में रखी जानी चाहिए कि इसे आबादी के सभी हिस्सों तक तेजी से पहुंचाने की सरकार और स्वास्थ्य प्रणाली की क्षमता सीमित है. वैक्सीन लोगों तक पहुंचाने के कार्यक्रम में लगे अस्पतालों के अलावा सरकार को निजी कंपनियों, संस्थानों और उद्योगों के विशाल संसाधनों का भी इस्तेमाल करना चाहिए जो अपना कामकाज फिर शुरू करना चाहते हैं और अपने कर्मचारियों का टीकाकरण कराना चाहते हैं.
कई उद्योग तो इसके लिए ज्यादा लागत पर भी वैक्सीन आयात के इच्छुक हो सकते हैं. चूंकि यह घरेलू आपूर्ति को पूरा करने वाला साबित होगा, इसलिए उन्हें ऐसा करने की अनुमति नहीं दिए जाने की कोई ठोस वजह नहीं है.
एक बड़े आयातक के तौर पर भारत सरकार उत्पादकों को टीके का ऑर्डर देते समय आपूर्तिकर्ताओं से अपने अनुकूल कीमतें तय कराने के लिए बातचीत में सक्षम हो सकती है. आखिरकार, उत्पादकों को भी यह बात अच्छी तरह पता है कि लोगों के एक बार वायरस से संक्रमित हो जाने या टीके की खुराक मिल जाने के कारण हर्ड इम्युनिटी विकसित हो गई तो टीके की इतनी ज्यादा मांग नहीं रह जाएगी. संभव है कि वैक्सीन के विकास में लाखों-करोड़ों निवेश करने वाली फार्मा कंपनियों के पास सीमित समय के लिए ही वैक्सीन खरीद का एजेंडा सबसे ऊपर रहे.
हालांकि, यह भी संभव है कि फ्लू में इस्तेमाल होने वाली खुराक की तरह लोगों को कोविड के नए म्यूटेंट से बचाने के लिए भी हर साल टीके की जरूरत पड़े. यह कुछ ऐसे स्थिति है जिसके बारे में अभी हममें से कोई भी कुछ नहीं जानता है.
वैक्सीन उत्पादक, जो लाभ कमा रही निजी कंपनियां हैं और जिनके पास अपना उत्पाद बेचने की सीमित सुविधा है, बड़े ऑर्डर के लिए संभवतः कीमतों पर मोल-भाव के लिए आसानी से तैयार हो जाएंगी. यह कुल मिलाकर भारत के लिए अच्छा ही है.
(इला पटनायक एक अर्थशास्त्री और नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक फाइनेंस एंड पॉलिसी में प्रोफेसर हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
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