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Wednesday, 20 November, 2024
होममत-विमतअसहिष्णु से असुरक्षित राष्ट्रवाद तक पहुंच गया है मोदी का भारत : पृथ्वीराज चह्वाण

असहिष्णु से असुरक्षित राष्ट्रवाद तक पहुंच गया है मोदी का भारत : पृथ्वीराज चह्वाण

मोदी सरकार किसान आंदोलन से निबटने के लिए जो कुछ कर रही है उससे उदार लोकतांत्रिक देश वाली हमारी छवि धूमिल हो रही है, सरकार को भूलना नहीं चाहिए कि हर नागरिक को अपनी आवाज़ उठाने का अधिकार है.

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भारत और दुनिया के सामने इस समय हमारे लोकतंत्र के दो दिलचस्प मगर घृणित चेहरे सामने दिख रहे हैं. एक तरफ तो करीब दस लाख किसान तमाम लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं और मानकों का उल्लंघन करते हुए जल्दबाज़ी में पारित करवाए गए तीन कृषि कानूनों के खिलाफ कड़ाके की ठंड में धरने पर बैठे हैं; दूसरी ओर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनके मंत्री आंदोलनकारी किसानों को हर तरह से बदनाम और बुरा बताने में जुटे हुए हैं. सबसे ताजा कटाक्ष खुद प्रधानमंत्री ने किया है और कुछ विरोधियों को ‘आंदोलनजीवी’ कहा है, यानी आंदोलन ही उनकी आजीविका है.

भारत के इतिहास में अब तक किसी जिम्मेदार जनप्रतिनिधि ने संसद में कभी आंदोलनकारियों का उपहास नहीं उड़ाया था. वास्तव में, शांतिपूर्ण आंदोलन तो भारतीय लोकतंत्र का आधारस्तंभ रहा है, जिस हथियार का इस्तेमाल हमारे स्वतंत्रता सेनानियों ने ब्रिटिश राज से आज़ादी पाने के लिए किया था.

किसान आंदोलन

यह किसान आंदोलन कई तरह से एक अनूठे आंदोलन के रूप में उभर रहा है. पिछले साल के नवंबर से मुख्यतः बुजुर्ग किसान दिल्ली की ओर कूच करते रहे हैं. उन्हें रोकने के लिए सड़कें बंद कर दी गईं, राष्ट्रीय राजमार्ग खोद दिए गए, पानी की तोपें तैनात कर दी गईं, आंसू गैस के गोले छोड़े गए. किसानों को ‘खालिस्तानी’, ‘राष्ट्र विरोधी’, ‘अलगाववादी’ कहा गया. राज्यों के अधिकारियों ने कई धरना-स्थलों पर पानी की सप्लाइ और सफाई की बुनियादी सुविधाओं को हटा दिया.

आंदोलन के 70 से ज्यादा दिन हो गए हैं, 130 से ज्यादा किसानों की मौत हो चुकी है. फिर भी केंद्र सरकार अड़ी हुई है. बल्कि उसने और क्रूर कदम उठाए हैं, रास्तों पर कंक्रीट की दीवारें खड़ी की गई हैं, सड़कों पर कीलें ठोक दी गईं हैं, और पुलिस ने कांटेदार तार बिछा दिए हैं. भारत में शांतिपूर्ण आंदोलन के साथ ऐसी बर्बरता और उसका ऐसा दमन पहले कभी नहीं किया गया.


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फिसलता लोकतंत्र

इस सबसे, उदार लोकतांत्रिक देश के रूप में हमारी छवि धूमिल हुई है. ‘इकोनॉमिस्ट इंटेलिजेंस यूनिट’ (ईआइयू) ने 2020 में जो ताजा ‘लोकतंत्र सूचकांक’ जारी किया है उसके मुताबिक भारत ‘खोटे लोकतंत्र’ की जमात में शामिल होता जा रहा है. मार्के की बात यह है कि इस सूचकांक के मुताबिक भारत का पतन प्रधानमंत्री मोदी और भाजपा के राजनीतिक उत्कर्ष के समानांतर हुआ है. 2014 में भारत 7.92 अंकों के साथ 27वें नंबर पर था. पिछले साल वह 6.61 अंकों के साथ लुढ़ककर 53वें नंबर पर पहुंच गया. असहमति के स्वर को निरंतर दबाए जाने, दंडवत मीडिया के उभार, हां-में-हां मिलने वाली न्यायपालिका, और संसदीय संवाद के प्रति केंद्र सरकार की उपेक्षा ने भारत में लोकतंत्र को फिसलन की राह पर धकेल दिया है.

असहिष्णु से असुरक्षित राष्ट्रवाद की ओर

किसानों के प्रति इस क्रूरता ने दुनिया भर के नेताओं और गणमान्य हस्तियों का ध्यान खींचा है. कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन त्रूदो और कुछ ब्रिटिश सांसदों ने किसान आंदोलन के लंबा खिंचने पर चिंता जाहिर की है. लेकिन भारतीय विदेश मंत्रालय ने इन चिंताओं को हमारे आंतरिक मामलों में दखल बताकर खारिज कर दिया. परंतु अमेरिकी पॉप स्टार रिहाना और किशोरवय पर्यावरणवादी कार्यकर्ता ग्रेटा ठनबर्ग के ताजा ट्वीटों ने भारत सरकार को परेशान कर दिया. विदेश मंत्रालय की प्रतिक्रिया अभूतपूर्व थी. यह सत्ता के शिखर पर फैली बेचैनी ही जाहिर करती है.

किसी भी लोकतंत्र में आंदोलन को सामूहिक निर्णय पर पहुंचने का एक जरिया माना जाता है. अभिव्यक्ति की आज़ादी किसी भी लोकतांत्रिक आंदोलन का बुनियादी सूत्र होता है. हर नागरिक को लोकतांत्रिक शासन में मताधिकार और अपनी आवाज़ उठाने का अधिकार हासिल होता है. जनता की सामूहिक आवाज को दबाना भारत में लोकतंत्र को और खोखला ही करेगा.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(पृथ्वीराज चह्वाण महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री है. ये उनके निजी विचार हैं.)


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