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Thursday, 25 April, 2024
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लोकतांत्रिक सूचकांक में भारत का फिसलना चिंताजनक, क्या लोकतंत्र सच में कल्पना में रह गया है

जब हमारे सत्ताधीश हमारे दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का आधा हिस्सा हजम कर गये हैं, हम क्या कर रहे हैं? उसे दुनिया का सबसे बढ़िया लोकतंत्र बनाने का कोई सपना हमारे पास बचा है या नहीं?

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अब जब ‘द इकोनॉमिस्ट इंटेलिजेंस यूनिट ’ के ताजा लोकतंत्र सूचकांक में देश के लोकतंत्र को ‘लंगड़ा’ करार दिया गया है, गत 24 दिसंबर को किसान आंदोलन के समर्थन में मार्च निकालने और राष्ट्रपति से मुलाकात करने के बाद कांग्रेस नेता राहुल गांधी द्वारा संवाददाताओं से कही यह बात याद आती है कि देश में लोकतंत्र कल्पना भर में रह गया है.

यह भी याद आता है कि तब सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी के प्रवक्ताओं ने किस कदर उनकी खिल्ली उड़ाई थी. लेकिन अब उनके पास ताजा लोकतंत्र सूचकांक पर प्रतिक्रिया के लिए शब्दों का टांटा पड़ गया है. कारण यह कि यह सूचकांक किसी विपक्षी नेता या भाजपा व उसकी मोदी सरकार के आलोचक का विश्लेषण नहीं है, जिसे स्वीडन की पर्यावरण कार्यकर्ता ग्रेटा थनबर्ग द्वारा किसान आंदोलन के समर्थन में किये गये ट्वीट की तरह किसी साजिश से जोड़कर वे आसानी से अपने हो-हल्ले की भेंट कर सकें.

इस सूचकांक की प्रामाणिकता असंदिग्ध मानी जाती है और उसे दुनिया भर में लोकतंत्र की वास्तविक स्थिति के आकलन के लिए बेझिझक इस्तेमाल किया जाता है. इससे जुड़ी ‘डेमोक्रेसी इन सिकनेस एंड इन हेल्थ ’ शीर्षक रिपोर्ट के अनुसार देश का लोकतंत्र 2020 में तो 2019 के मुकाबले दो अंक ही नीचे गिरा है- 51वें से 53वें स्थान पर लेकिन इस गिरावट को ठीक से समझने के लिए जानना चाहिए कि 2014 में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा सत्ता में आई, तो इसकी रैंकिंग 7.29 अंकों के साथ 27वीं थी, जो अब 6.61 अंकों के साथ 53वीं पर लुढ़क गयी है.

दूसरे शब्दों में कहें तो तब के मुकाबले वह आधा रह गया है. जैसा कि रिपोर्ट में बताया गया है, भाजपा की पिछले छह-सात साल की सत्ता ‘लोकतांत्रिक मूल्यों से पीछे हटने’ और ‘नागरिकों की स्वतंत्रता पर कार्रवाई’ के रास्ते चलकर आधे लोकतंत्र को खा गई है.

रिपोर्ट में कहा गया है कि मोदी सरकार ने ‘भारतीय नागरिकता की अवधारणा में धार्मिक तत्व को शामिल किया है और कई आलोचक इसे भारत के धर्मनिरपेक्ष आधार को कमजोर करने वाले कदम के तौर पर देखते हैं’, जबकि ‘कोरोनावायरस की वैश्विक महामारी से निपटने के तरीके के कारण 2020 में देश में नागरिक अधिकारों का और दमन हुआ.’

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इसी का फल है कि ताजा सूचकांक में भारत को अमेरिका, फ्रांस, बेल्जियम और ब्राजील आदि 52 देशों के साथ ‘त्रुटिपूर्ण’, दूसरे शब्दों में कहें तो, ‘लंगड़े लोकतंत्र’ के तौर पर वर्गीकृत किया गया है.


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यह स्थिति कम से कम दो कारणों से बहुत चिंतित करती है.

पहला यह कि यह गिरावट लगातार होकर रह गई है, जिससे स्वतः सिद्ध है कि किसी भूल-चूक का नहीं बल्कि सोची-समझी कार्रवाइयों का नतीजा है. दूसरा यह कि चूंकि ये सोची-समझी कार्रवाइयां बदस्तूर हैं, यह उम्मीद भी नहीं है कि आगे स्थिति में कोई सुधार होगा. पिछले साल जम्मू-कश्मीर की बाबत वहां के निवासियों को विश्वास में लिये बगैर किये गये फैसले और संशोधित नागरिकता कानून व राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर को लेकर शुरू हुए उद्वेलनों के इस साल कारपोरेटपरस्त कृषि कानूनों के विरुद्ध किसानों के आंदोलन और उसके दमन के सिलसिले तक देश के लोकतंत्र को संभाल पाने में सत्ताधीशों की अनिच्छाभरी नाकामी इस बाबत खुद ही इतना सब कह देती है कि आईने की तरह सब कुछ साफ हो जाता है.

आज की तारीख में यह एक खुला हुआ तथ्य है कि जम्मू-कश्मीर में संविधान का अनुच्छेद 370 अथवा राज्य की विशेष स्थिति ही खत्म नहीं की गई, नागरिकों के मौलिक अधिकार भी दांव पर लगा दिये गये थे. लंबे वक्त तक इंटरनेट पर पाबंदी, मीडिया पर लगाम और विपक्ष पर कार्रवाई जैसे कार्यों से भी लोकतंत्र को बाधित किया जाता रहा था.

अब राजधानी दिल्ली में किसान आंदोलन से निपटने के नाम पर भी वैसे ही हालात बना दिये गये हैं, जहां किसानों को रोकने के लिए न सिर्फ सड़कें खुदवाई या उन पर कीलें ठुकवाई जा रही हैं, बल्कि ऐसी कंटीली बाड़ भी लगाई जा रही हैं, जैसी सीमाओं पर दुश्मन को रोकने के लिए भी नहीं लगाई जातीं.

सत्ताधीशों के ऐसे कृत्य किसी भी नजरिये से लोकतांत्रिक नहीं कहे जा सकते और न लोकतंत्र सूचकांक में देश को बेहतर जगह दिला सकते हैं. सो भी, जब किसान समूह नागरिकों को प्राप्त शांतिपूर्ण प्रदर्शन के अधिकार के अहिंसक इस्तेमाल के अलावा कुछ कर ही नहीं रहे और सत्तापक्ष कभी उन्हें विपक्ष द्वारा भटकाया हुआ, कभी आतंकवादी या खालिस्तानी और देशद्रोही बता और कभी अंतरराष्ट्रीय साजिशों से जोड़ रहा है. उनके आंदोलन के बारे में कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो, पॉप आइकन रिहाना, पर्यावरण प्रवक्ता ग्रेटा थनबर्ग और अमेरिकी उपराष्ट्रपति कमला हैरिस की भतीजी मीना हैरिस के बयान आते हैं, तो वह उन्हें आपत्तिजनक बताने और उनके पीछे साजिश सूंघने लगता है लेकिन अमेरिका के बाइडन-प्रशासन की ‘रामाय स्वस्ति, रावणाय स्वस्ति ’ जैसी टिप्पणी के बाद लाल किले की 26 जनवरी की घटना को कैपिटल हिल पर डोनाल्ड ट्रंप समर्थकों के हमले जैसी बताने लग जाता है.

शायद इसलिए कि जैसे उसने भारत के लोकतंत्र को लंगड़ा कर डाला है, अभी-अभी निवर्तमान हुए डोनाल्ड ट्रंप की अनुकंपा से उनके अमेरिका की गति भी वैसी ही है. यह संयोग भर नहीं है कि लोकतंत्र सूचकांक में दोनों देश एक ही श्रेणी में हैं.

ऐसे में यह सवाल बार-बार मौजूं हो जाता है कि प्रधानमंत्री मोदी जिस न्यू इंडिया का जिक्र करते नहीं थकते, उसकी ओर यात्रा में उनकी सरकार के फैसले और कार्रवाइयां लोकतंत्र के लिए इतनी घातक क्यों साबित हो रही हैं? क्यों उनके लिए सत्ता की सुरक्षा इतनी अहम हो गई है कि कोरोना जैसी आपदा को भी लोकतंत्र को सीमित करने व खाई में गिराने के सरकारी अवसर में बदल दिया जाता है? एक ओर ‘दो गज की दूरी और मॉस्क है जरूरी’ के नियम से लोगों को एकजुट होने से सख्ती से रोका जाता है और दूसरी ओर ‘अपनी’ रैलियां, सभाओं और अन्य आयोजनों में उसकी खिल्ली उड़ाई जाती है.

बात इतने तक ही होती, तो भी गनीमत थी. लेकिन विडंबना देखिये: एक सरकार समर्थक प्रतिष्ठित विश्लेषक ने इस लोकतंत्र सूचकांक पर यह कहकर टिप्पणी की है कि जिस देश ने इंदिरा गांधी-जैसी महाप्रतापी प्रधानमंत्री को कुर्सी से उतारकर चटाई पर बिठा दिया, उसकी तुलना आइसलैंड, नार्वे और न्यूजीलैंड जैसे सूचकांक के अनुसार ‘आदर्श लोकतंत्रों’ से करना उचित नहीं है. कारण बताते हुए वे कहते हैं कि इनमें से ज्यादातर भारत के एक प्रदेश के बराबर भी नहीं हैं, भारत-जैसी विविधता तो उनके लिए अकल्पनीय ही है, वे भारत-जैसे विदेशी आक्रमणों और सुदीर्घ गुलामी के शिकार भी नहीं रहे हैं.

सोचिये जरा, क्या अर्थ है इसका? अगर यह कि देश के लोकतंत्र को निर्बल व बीमार बनाये जाने की कोशिशों को इसलिए गंभीरता से नहीं लिया जाना चाहिए कि जनसंख्या विस्फोट के कारण वह ‘दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र’ तो बना ही हुआ है, तो यह भी उक्त गिरावट जितना ही चिंताजनक है. इस चिंता से संदर्भित होकर यह सवाल और जरूरी हो जाता है कि जब हमारे सत्ताधीश हमारे दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का आधा हिस्सा हजम कर गये हैं, हम क्या कर रहे हैं? उसे दुनिया का सबसे बढ़िया लोकतंत्र बनाने का कोई सपना हमारे पास बचा है या नहीं?

(लेखक जनमोर्चा अख़बार के स्थानीय संपादक हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)


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