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Friday, 26 April, 2024
होममत-विमतसमय आ गया है कि मोदी एक बड़े राजनेता की भूमिका निभाएं और कृषि कानूनों को रद्द करें

समय आ गया है कि मोदी एक बड़े राजनेता की भूमिका निभाएं और कृषि कानूनों को रद्द करें

नरेंद्र मोदी कृषि कानूनों को रदद् करने के बजाये उन्हें रद्द नहीं करके अपनी राजनीतिक साख ज्यादा गंवा रहे हैं.

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कभी-कभी सड़क पर मची खींचतान इतनी ज्यादा बढ़ जाती है कि नुकसान तो दोनों ही पक्षों को बहुत ज्यादा पहुंच रहा होता है, लेकिन सिर्फ अहम की वजह से उनमें कोई भी पीछे हटने को तैयार नहीं होता. दोनों ही पक्षों को इससे बाहर निकलने के रास्ते की जरूरत होती है लेकिन सिर्फ अहम के कारण दोनों ही एक विजेता की तरह बाहर आना चाहते हैं. एक को तो पीछे हटना ही होगा.

ऐसे हालात में सबसे बेहतर रास्ता यही होता है कि उस सम्मानित बुजुर्ग की बात को स्वीकार लिया जाए जो कहता हो चलो छोड़ो, बात यहीं खत्म करो. बस इसे खत्म करो एक-दूसरे को माफ करो और बीती बातें भूलकर आगे बढ़ जाओ.

पंजाब और हरियाणा (अधिकांशत:) के किसानों के लगातार जारी आंदोलन के बीच सुप्रीम कोर्ट ने उस समझदार बुजुर्ग की भूमिका निभाने की ही कोशिश की. सुप्रीम कोर्ट के लिए भले ही ऐसा करना उचित हो या नहीं लेकिन उसने कृषि कानूनों को लागू करना-अनिश्चितकाल के लिए—रोक दिया और किसानों से बातचीत के लिए एक समिति बना दी. यही एक आदर्श समाधान हो सकता था, क्योंकि समितियों को अनंतकाल तक विस्तार देते रहने के साथ विवाद को टाले रखना एक अच्छा पुराना फॉर्मुला है. लेकिन समिति के लिए जो सदस्य चुने गए उनके घोषित तौर पर सुधार समर्थक होने के कारण बात नहीं बनी और आंदोलनकारियों ने उन पर भरोसा नहीं जताया.

फिर भी, कानूनों पर अमल टलना किसानों के घर जाने की वजह बनने के लिए पर्याप्त होना चाहिए था. यदि कानूनों पर फिर से अमल होता तो वो फिर आंदोलन की राह पकड़ सकते थे. है ना? यह तो मानना होगा कि इस तरह के आंदोलन खड़े करना कोई आसान काम नहीं है. प्रदर्शनकारी यह भरोसा कैसे कर लें कि एक बार उनके घर लौटने के बाद कानूनों को लागू नहीं किया जाएगा? यह वजह है कि वे कानूनों को पूरी तरह वापस लिए बिना पीछे न हटने पर अड़ गए.

नरेंद्र मोदी सरकार ने उनकी यह चिंता समझी भी और उचित तरीके से कानूनों पर अमल निश्चित तौर पर डेढ़ साल तक टालने का आश्वासन दिया. सरकार ने जो भी बेहतर सोचा हो, यह सर्वसम्मति बनाने के लिए पर्याप्त समय होता या फिर हो सकता था कि चुपचाप कानूनों को रद्द करके सब कुछ ठंडे बस्ते में डाल दिया जाता. लेकिन विरोध जताने वाले आश्वस्त नहीं थे, जो आपको बताता है कि दोनों पक्षों के बीच अविश्वास की खाई किस हद तक चौड़ी है.

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नैरेटिव पर उल्टा पड़ा दांव

मैंने राजनीतिक ध्रुवीकरण के कारण भरोसा टूटने पर पूर्व में लिखा था, एक तरफ मोदी के मतदाता हैं जो कि उन पर आंख मूंदकर भरोसा करते हैं और दूसरी तरफ वे लोग हैं जो उनको वोट नहीं देते हैं, उन पर बिल्कुल भरोसा नहीं करते. यह ‘सबका विश्वास’ के एकदम विपरीत है जिसे 2019 में फिर से सत्ता में आने के दौरान मोदी ने अपना नारा बनाया था, ‘सबका साथ सबका विश्वास.’

किसानों को बदनाम करने और उन्हें गलत ठहराने की कोशिशों के तहत उनके खिलाफ इस्तेमाल किए जाने वाले हर नैरेटिव पर दांव उल्टा पड़ गया. यहां तक कि 26 जनवरी को लाल किले पर प्रदर्शनकारियों के एक वर्ग का हिंसा पर उतर आना भी काम नहीं आया. यह स्पष्ट हो गया कि हम एक बेहद कठिन परिस्थितियों से गुजर रहे थे जब राकेश टिकैत के आंसुओं ने विरोध में फिर से जान फूंक दी और उत्तर प्रदेश में आंदोलन स्थल खाली कराने के प्रयासों से योगी आदित्यनाथ सरकार ने अपने कदम पीछे खींच लिए.

26-27 जनवरी को ऐसा लगा तो सरकार मजबूत स्थिति में होगी और विरोध-प्रदर्शनों को खत्म करा लेगी लेकिन यह हो नहीं पाया. हिंसा की इस निम्नस्तरीय घटना को, स्थानीय-बनाम-हिंसक प्रदर्शनकारी वाली स्टोरी बनाने के प्रयास भी सफल नहीं हो पाए.

मौजूदा स्थिति में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कृषि कानूनों को रद्द करने के बजाये उन्हें रद्द नहीं करके अपनी राजनीतिक साख ज्यादा गंवा रहे हैं. इन प्रदर्शनों को लंबा खींचना, उन्हें किसी दुश्मन सेना की तरह सामने रखना, इंटरनेट बंद करना और उदार मीडिया पर सख्ती बरतना- यह सब मोदी की छवि के लिए नुकसानदेह है.

प्लान 2024

चाहे आप कृषि कानूनों का समर्थन करते हों या विरोध, वे पहले ही विनाशकारी बन चुके हैं. यदि किसान मोदी सरकार की डेढ़ साल की मोहलत के प्रस्ताव को स्वीकार कर लें तो वे 2022 के मध्य तक स्थगित हो जाएंगे. तब तक उन्हें लागू करने और फिर इससे ज्यादा बड़े प्रदर्शनों के जोखिम, यहां तक कि पंजाब में ही जहां 2024 में मोदी की वापसी के लिए सीटें जीतना भाजपा के लिए बहुत मायने नहीं रखता, के लिहाज से लोकसभा चुनाव काफी करीब आ चुके होंगे.

सरकार कृषि कानूनों के हर क्लॉज पर चर्चा करने के लिए तैयार रही है, यह दर्शाता है कि यह पूरी तरह से उस पर फिर विचार करने की इच्छुक है. इन प्रदर्शनकारियों के खिलाफ भारतीय जनता पार्टी का रवैया कुछ उन्हें पराया करने वाला जैसा लगता है—हम बनाम वे बनाना. ऑर्गनाइजर के नवीनतम अंक में प्रकाशित एक लेख में ट्रैक्टर को टेरर का नया प्रतीक बताया गया है! ये नैरेटिव केवल विभाजन को और बढ़ा देने वाला, खाई चौड़ी करने वाला और अविश्वास को गहराने वाला है.


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कृषि सुधार 2.0

यदि कृषि कानूनों को अनिश्चितकाल के लिए टाला जा सकता है, उन्हें डेढ़ साल तक रोका जा सकता है, अगर उनके हर क्लॉज पर पुनर्विचार किया जा सकता है, तो उन्हें निरस्त भी किया जा सकता है. नरेंद्र मोदी कह सकते हैं कि वह कुछ समय बाद उन्हें नए सिरे से ला सकते हैं, प्रदर्शनकारी समूहों को साथ लाकर, सर्वसम्मति से, ‘सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास’ के मूलमंत्र को ध्यान में रखते हुए. ऐसा करना मोदी के लिए अपनी साख बचाकर मामले से बाहर निकलने से ज्यादा फायदेमंद होगा. यह उन्हें एक बड़े उदार राजनेता वाली छवि प्रदान करेगा जो वह न केवल बनना चाहते हैं, बल्कि प्रधानमंत्री होने के नाते उन्हें बनना भी चाहिए.

प्रधानमंत्री मोदी को ध्रुवीकरण वाली बातों से ऊपर उठकर और यह स्पष्ट करना होगा कि वह उन लोगों की चिंताओं को समझने के लिए भी तैयार हैं जो उनके लिए वोट नहीं करते. देश की ‘एकजुटता’ के लिए ऐसा करना आवश्यक है.

हरित क्रांति लंबे समय तक अपना काम करती रही है और हमें कृषि क्षेत्र में बड़े सुधारों की जरूरत है. इस पूरे खेदजनक घटनाक्रम की सबसे अच्छी बात यह है कि भारतीय कृषि क्षेत्र में व्यापक सार्वजनिक बहस और चर्चा सामने आई. जरूरी है कि अपने अहम को परे रख हम इन कानूनों को निरस्त करके किसानों की चिंताएं दूर करें, और कृषि सुधारों पर आम सहमति बनाने की राह पर वापस लौटे, यह स्पष्ट करें कि समस्या क्या है और इसे हम कैसे सुलझा सकते हैं. यह कैसे हो सकता है कि जल्दबाजी में कानून पारित करके किसानों को उस पर राजी करा लिया जाए. कम से कम लोकतंत्र में तो संभव नहीं है.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(लेखक एक कंट्रीब्यूटिंग एडिटर हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)


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