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Sunday, 24 November, 2024
होमदेशसिर्फ कृषि कानून नहीं बल्कि गन्ने की कीमत और भुगतान में देरी भी पश्चिमी UP में किसानों का गुस्सा बढ़ा रहा है

सिर्फ कृषि कानून नहीं बल्कि गन्ने की कीमत और भुगतान में देरी भी पश्चिमी UP में किसानों का गुस्सा बढ़ा रहा है

पश्चिमी यूपी में गन्ने के मुद्दे पर बढ़ती नाराजगी के बीच दिल्ली में हो रहा किसान आंदोलन जाट बहुल इलाकों तक पहुंच रहा है.

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मुजफ्फरनगर/बागपत/शामली: जसपाल सिंह उत्तर प्रदेश के बागपत जिले के छपरौली स्थित अपने 18 एकड़ खेत में गन्ने की खेती करते हैं. उन्हें अपनी पिछले साल की फसल का बकाया भुगतान पिछले हफ्ते ही मिल पाया है और इससे वह खासे नाराज हैं.

जसपाल सिंह का मानना है कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में उनके जैसे तमाम किसानों को केंद्र और राज्य सरकारों की तरफ से सौतेले व्यवहार का सामना करना पड़ रहा है.

वह कहते हैं, 2014 और 2019 के चुनावों के दौरान राज्य के इस हिस्से में रैलियों को संबोधित करने के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने 14 दिनों के भीतर गन्ने के भुगतान का वादा किया, जिसमें देरी होने पर किसानों को ब्याज भी मिलने की बात कही गई थी.

यद्यपि इस वादे को एक कानून के साथ पूरा भी किया गया लेकिन फिर भी कुछ नतीजा नहीं निकला.

उन्होंने कहा, ‘ब्याज की बात तो भूल ही जाओ, हमें पिछले साल के गन्ने का भुगतान पिछले सप्ताह ही मिला है जब किसानों के आंदोलन ने जोर पकड़ा था. और हम पिछले चार महीनों के भुगतान का इंतजार कर रहे हैं.’

उन्होंने सवाल उठाया, ‘यमुना के उस पार खट्टर सरकार 360 रुपये प्रति क्विंटल दे रही है. योगी सरकार 325 रुपये दे रही है. हमने क्या पाप किया था.’

पश्चिमी यूपी के बागपत, शामली, खतौली, अमरोहा और मुजफ्फरनगर में गन्ना उत्पादन क्षेत्रों के अन्य किसानों में भी जसपाल की तरह ही नाराजगी के बीच राष्ट्रीय राजधानी के आसपास चल रहा किसानों का आंदोलन इस जाट बहुल क्षेत्र में तेजी पकड़ रहा है.

यह भारतीय किसान यूनियन (भाकियू) नेता राकेश टिकैत द्वारा 28 जनवरी को गाजीपुर आंदोलन स्थल पर आंसू बहाए जाने के बाद मोदी सरकार के तीन कृषि कानूनों को लेकर एक नया राजनीतिक जंग का मैदान बन गया है.

गन्ना पश्चिमी यूपी की जीवनरेखा होने के कारण फसल के भुगतान में देरी, स्टेट एडवाइज्ड प्राइस (एसएपी-जो यूपी में एमएसपी के बराबर है) में मामूली वृद्धि, खेती की बढ़ती लागत, आवारा पशुओं के खतरे जैसे मुद्दे यहां नाराजगी की मुख्य वजह बन गए हैं.

इसकी वजह से विरोध प्रदर्शनों का राजनीतिकरण भी बढ़ रहा है क्योंकि सभी दल सरकारों के खिलाफ इस नाराजगी को भुनाने का अवसर ढूंढ़ रहे हैं.


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भुगतान में देरी, मवेशियों का मुद्दा, एसएपी वृद्धि

बागपत स्थित सुल्तानपुर खेड़ा गांव निवासी जसवीर सिंह कहते हैं कि किसानों के लिहाज से योगी शासन की तुलना में पिछली मायावती और अखिलेश यादव सरकारें ज्यादा बेहतर थीं.

जसवीर ने कहा, ‘उन्होंने 50 रुपये (265 रुपये तक) बढ़ाए थे. योगी सरकार ने इसे 315 से मात्र 10 रुपये बढ़ाकर 325 तक किया है. पिछले दो वर्षों से गन्ने के एसएपी में कोई वृद्धि नहीं हुई है, जबकि डीजल, गैस और यूरिया की कीमतें लगातार बढ़ रही हैं.’

इसके अलावा, क्षेत्र के किसानों में आवारा पशुओं को लेकर खासी नाराजगी रहती है, जो उनकी गेहूं और सरसों की फसल तहस-नहस कर देते हैं. यद्यपि राज्य सरकार ने कई गौशालाएं बनवाई हैं लेकिन किसानों का कहना है कि इन शेड के प्रशासक शाम के समय मवेशियों को खुला घूमने के लिए छोड़ देते हैं.

मुजफ्फरनगर जिले के बुढ़ाना में रहने वाले युद्धवीर सिंह ने इस साल गन्ने के मूल्यों की घोषणा में देरी की आलोचना की.

उन्होंने कहा, ‘पेराई शुरू हुए लगभग तीन महीने हो चुके हैं और सीजन खत्म होने में केवल दो महीने बचे हैं, राज्य सरकार ने अब तक इस साल के लिए गन्ने के मूल्य की घोषणा नहीं की है. किसानों को नहीं पता कि हमारा गन्ना पेराई के लिए किस कीमत पर जा रहा है.’

उन्होंने आगे कहा, ‘उन्हें बिना कीमत लिखी खाली स्लिप मिल रही हैं. कोई नहीं जानता कि भुगतान कब आएगा. क्या आप बिना कोई भुगतान मिले एक साल जीवन चला सकते हैं? हम बच्चों की स्कूल फीस का भुगतान कैसे करेंगे? किसान कैसे बच पाएंगे?’

अकेले शामली जिले में मिलों के पास गन्ने का 650 करोड़ रुपये बकाया है. पड़ोसी जिले मेरठ में यह आंकड़ा 1,500 करोड़ रुपये है. एक रिपोर्ट के अनुसार, राज्य में कुल मिलाकर गन्ना मिलों पर 11,000 करोड़ का भुगतान बकाया है, जिसमें पिछले सीजन के 1,850 करोड़ रुपये शामिल हैं.

उत्तर प्रदेश देश का सबसे बड़ा गन्ना उत्पादक राज्य है, इस फसल की कुल खेती का 51 फीसदी हिस्सा यहीं पर होता है. एक अन्य रिपोर्ट बताती है कि भारत की 520 गन्ना मिलों का पांचवां हिस्सा (करीब 119) इसी राज्य विशेषकर पश्चिमी क्षेत्र में है.

रालोद जाट गुस्से को भुनाने में आगे

नवंबर में भाकियू नेता राकेश टिकैत ने योगी आदित्यनाथ सरकार के साथ बैठक में एसएपी को 325 रुपये से बढ़ाकर 400 रुपये करने का मुद्दा उठाया था.

इसके बाद से वह राष्ट्रीय राजधानी की सीमा पर स्थित गाजीपुर आंदोलन स्थल पर प्रदर्शन का चेहरा बने हुए हैं. गणतंत्र दिवस पर हिंसा के बाद प्रदर्शन स्थल पर पुलिसिया कार्रवाई के बाद वह जाट बहुल क्षेत्र में किसानों की लामबंदी में सफल रहे हैं.

उन्होंने तीनों कृषि कानूनों की वापस की मांग के बीच गन्ने की दुर्दशा को रेखांकित किया.

वेस्ट यूपी के कई जिलों में भाकियू ने किसान पंचायतों से कृषि कानूनों का विरोध करने का आह्वान किया है. यद्यपि टिकैत खुद राजनीतिक नेताओं के साथ जुड़ने से बच रहे हैं.

लेकिन अजित सिंह की अगुवाई वाला राष्ट्रीय लोकदल (रालोद) किसानों की पंचायतें बुलाने का नेतृत्व कर रहा है, जिसमें भाकियू के नेता भी हिस्सा ले रहे हैं.

जाट मुस्लिम बहुल क्षेत्र शामली में शुक्रवार को एक ऐसी ही पंचायत में रालोद नेता जयंत चौधरी, जिनकी जाति आधारित पार्टी का 2017 के विधानसभा और 2019 के लोकसभा चुनावों में पश्चिमी यूपी से सफाया हो गया था, ने किसानों से अगले विधानसभा चुनाव में योगी और मोदी सरकारों को सबक सिखाने को कहा.

राज्य के गन्ना मंत्री सुरेश राणा, जो शामली निर्वाचन क्षेत्र से ही विधायक हैं का जिक्र करते हुए चौधरी ने कहा, ‘गन्ना मंत्री राणा इसी क्षेत्र के हैं, लेकिन किसानों को गन्ना बकाया नहीं मिल रहा है. सरकार आपको मूल्य नहीं दे रही है, आप उन्हें अपने वोट से मना कर दें…’

मुजफ्फरनगर से लेकर मथुरा तक रालोद ऐसी पंचायतों में खासी भीड़ आकर्षित कर रहा है. शामली और बिजनौर में हुई पंचायतों में समाजवादी पार्टी और भाकियू नेताओं की उपस्थिति नजर आई, जो भाजपा के लिए परेशानी का सबब बन रहा है, जिसने 2013 में मुजफ्फरनगर में ध्रुवीकरण से खासा चुनावी लाभ हासिल किया है.

2017 और 2019 में भाजपा को वोट देने वाले शामली के एक जाट किसान जितेंद्र चौधरी कहते हैं, ‘पहले चौधरी की रैली में 2,000 लोग भी बमुश्किल इकट्ठा होते थे लेकिन टिकैत वाली घटना के बाद 10,000-15,000 किसान आ रहे हैं. हर पंचायत का नेतृत्व जाट कर रहे हैं लेकिन अन्य लोग भी शामिल हो रहे हैं. वह किसानों के मुद्दे पर बात कर रहे हैं, यही वजह है कि किसान उन्हें सुन भी रहे हैं.’

हालांकि, किसानों का मानना है कि चुनाव अभी दूर है और प्रधानमंत्री मोदी तब तक ‘नाराजगी खत्म करने के लिए कुछ न कुछ कर लेंगे.’


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भाजपा को जाट-मुस्लिम एकता का डर

शामली महापंचायत में बड़ी संख्या में मुसलमान मौजूद थे. सपा और रालोद के कई मुस्लिम नेताओं ने भी मंच साझा किया.

मुजफ्फरनगर में भी टिकैत की घटना के बाद बड़ी संख्या में मुसलमान जाटों के साथ आ गए हैं और यहां तक कि भाकियू के मुस्लिम चेहरे माने जाने वाले गुलाम मोहम्मद जोला, जो 2013 के दंगों के बाद यूनियन से दूर हो गए, भी फिर इसमें शामिल हो गए.

लगभग आठ साल पहले मुजफ्फरनगर दंगों ने 63 जिंदगियां लील ली थीं और दोनों समुदायों के बीच सदियों पुराने सौहार्दपूर्ण रिश्ते टूट गए थे. लेकिन अब रिश्तों में नजदीकी की संभावना नजर आने लगी है जो भाजपा के लिए एक चुनावी चुनौती बन सकती है.

थाना भवन के एक किसान फैयाज हुसैन कहते हैं, ‘यह हिंदू-मुस्लिम का सवाल नहीं है. सभी किसान हैं, चाहे जाट हों या मुस्लिम. हम पीड़ा झेल रहे हैं. मेरा भुगतान भी अन्य लोगों की तरह बकाया है. इसलिए किसानों के आंदोलन पर जाट आंदोलन का ठप्पा न लगाएं. हमने एक-दूसरे पर अविश्वास किया लेकिन अब एकजुट होने का समय आ गया है.’

मुजफ्फरनगर में सपा के जिला अध्यक्ष प्रमोद त्यागी कहते हैं, ‘हरियाणा में जाटों ने भाजपा को सबक सिखाया है क्योंकि उन्होंने उनकी राजनीतिक हैसियत की अनदेखी की है. अब यूपी की बारी है. उन्होंने जाटों और मुस्लिमों के बीच अलगाव पैदा किया और जाटों के खिलाफ अन्य जातियों का ध्रुवीकरण किया. दोनों जातियों को अपनी गलती का एहसास हुआ और वे बड़े किसानों के मुद्दे पर एकजुट हो रहे हैं, जिससे भाजपा को नुकसान होगा.’

2019 के लोकसभा चुनावों में भाजपा के सत्यपाल सिंह ने बागपत में जयंत चौधरी को केवल 25,000 वोटों से हराया था, जबकि चौधरी को 5 लाख वोट मिले थे. वह मुस्लिम और जाट वोटों के बंटने के कारण हार गए थे.

2012 के विधानसभा चुनावों में यहां की 11 जाट बहुल सीटों में से रालोद ने पांच और सपा-बसपा ने तीन-तीन सीटें जीती थीं और भाजपा खाली हाथ रही थी. 2013 के बाद भाजपा को लगातार दो आम चुनावों में 50-75 प्रतिशत से अधिक जाट वोट मिले.

भाजपा के बागपत कार्यालय में मौजूदा समय में बहुत अधिक गतिविधि नजर नहीं आती है. यहां से नेता भी नदारत ही रहते हैं.

क्षेत्र के एक मौजूदा भाजपा विधायक ने नाम न छापने की शर्त पर कहा, ‘हम जाट-मुस्लिम एकता या अन्य जातिगत समीकरणों के बारे में बहुत चिंतित नहीं हैं. मुख्य चिंता यह है कि विभिन्न कारणों से ऐसी अवधारणा बन रही है कि सरकार किसान हितैषी नहीं है, गन्ना उनमें से एक है.’

वह कहते हैं, ‘यह संदेश जा रहा है कि अहंकार के कारण वे इस मुद्दे को हल नहीं करना चाहते हैं, जिससे बड़ा नुकसान हो सकता है. लोग एक या दो दिनों में अपना मन नहीं बनाते हैं लेकिन एक ही धारणा महीनों बनी रहती है तो फिर लोग इस पर ध्यान देने लगते हैं.’

‘मोदी के पास बैड मैनेजर’

हालांकि, नेथला गांव के सूरजभान सिंह का कहना है कि प्रधानमंत्री मोदी की मंशा पर कोई संदेह नहीं है.

उनका कहना है, ‘मोदी जी ने सर्जिकल स्ट्राइक किया, अनुच्छेद 370 को हटाया और सीधे किसानों के खाते में 6,000 रुपये भेजे. किसी अन्य सरकार ने ऐसा काम नहीं किया. हमें खुशी है कि योगी ने यह सुनिश्चित किया है कि अराजक तत्व जेल में हैं. इससे पहले रात के समय गन्ने के खेतों में जाना संभव नहीं था.’

उनके मुताबिक, ‘समस्या केवल इतनी है कि मोदी के पास अच्छे प्रबंधक नहीं हैं. वे किसानों की समस्या सही तरह से उनके सामने नहीं रखते हैं. उनके इरादे पर कोई संदेह नहीं है.’

मेरठ से अमरोहा तक कई गैर-जाट बहुल गांवों में ब्राह्मण और कुर्मी जैसी जातियां कृषि कानूनों को लेकर उत्तेजित नहीं हैं क्योंकि वे छोटे किसान हैं और पंजाब और हरियाणा के किसानों की तरह जानकारी नहीं रखते हैं, जहां मंडी व्यवस्था मजबूत है. केवल कृषि संकट के कारण अस्थायी नाराजगी है. 2022 के विधानसभा चुनावों के लिए इसी क्षेत्र में भाजपा के लिए उज्ज्वल संभावनाएं हैं.

हालांकि, नाम न छापने की शर्त पर भाजपा के एक नेता का कहना था कि कई राज्यों में अन्य जातियों को प्रभावशाली जाति के खिलाफ एकजुट करना पार्टी की जीत का फॉर्मूला रहा है. यूपी में इसने सवर्ण, ईबीसी, कुशवाहा, कुर्मियों और ओबीसी और गैर-जाटव दलितों को एकजुट करके सत्ता हासिल की. उन्होंने कहा, ‘यही फॉर्मूला अब भी जीत का आधार है.’

(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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