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Wednesday, 20 November, 2024
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मोदी सरकार का प्रस्ताव किसानों की समस्या का समाधान नहीं करते बल्कि उन्हें अड़ियल दिखाने की कोशिश है

मोदी सरकार ने बातचीत की मेज पर बहुत कम ऑफर दिया है. वो ये दिखाना चाहते हैं कि एपीएमसी बायपास कानून में दो प्रस्तावित सुधार बड़ी रियायतें हैं.

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अब जबकि नरेंद्र मोदी सरकार कृषि कानूनों में संशोधन को सहमत हो गई है तो फिर किसान इस कदर अड़ियल क्यों बने हुए हैं? कानूनों को पूरा का पूरा वापस करवाने की जगह वे अपनी पसंद के सुधार क्यों नहीं करवा लेते? ये बात आपको ठीक लगी होगी, एकदम ही बुद्धिसंगत! है ना!

कानूनों में सुधार का प्रस्ताव भी दरअसल यही जाहिर करने के लिए आया है. मतलब, बात बुद्धिसंगत लगे लेकिन किसानों की आपत्तियों और सरोकारों को लेकर उसमें कोई फिक्रमंदी ना हो. खेल ये चल रहा है कि गेंद किसी तरह सरकार के पाले से दूर ढकेल दी जाये और दुष्प्रचार का जो युद्ध मोदी सरकार ने किसानों के ऐतिहासिक विद्रोह के खिलाफ चला रखा है, उसके चक्रव्यूह में किसान जिद्दी और अड़ियल नज़र आने लग जायें.

ये जो प्रस्ताव देने और संशोधन करने का खेल चल रहा है वह दरअसल कुछ और नहीं बल्कि एक छलावा है जिसकी ओट ली जा रही है ताकि लोगों को ये ना दिख जाये कि सामने वाले ने अपने फौलादी पंजों को मखमली दस्तानों में छुपा रखा है और उसके सामने हैं हाड़ ठिठुराती ठंड और बारिश में प्रतिरोध में खड़े लाखों सत्याग्रही किसान जिनके बीच से एक-एक करके 50 साथी क्रूर नियति की भेंट चढ़ चुके हैं.

दावे चाहे जितने बढ़-चढ़ कर किये जा रहे हैं लेकिन बातचीत की मेज पर मोदी सरकार जब भी आयी है बतियाने के लिए, उसकी अपनी मुट्ठी में बहुत थोड़ी सी चीजें रही हैं. इन कानूनों में से दो में संशोधन का प्रस्ताव पहली बार सरकार ने 5 दिसंबर के दिन हुई बातचीत में जबानी तौर पर सामने रखा और किसानों के पूरे प्रतिनिधिमंडल ने हाथ के हाथ वहीं इस प्रस्ताव को नकार दिया. वही प्रस्ताव फिर लिखित रुप में किसानों के पास 9 दिसंबर को भेजा गया और 15 तारीख को भी वही प्रस्ताव दोहराया गया. दोहराव के इस खेल का जवाब किसानों ने वही जवाब दिया जो 5 दिसंबर की बातचीत के वक्त दिया था.

सरकार ने अभी तक दो द्वितीयक महत्व के मुद्दों (पराली जलाने पर जुर्माना तथा बिजली बिल 2020 का मसौदा) पर कदम पीछे हटाने का मौखिक आश्वासन दिया है. इन दो बातों को छोड़ दें तो फिर सरकार ने विवाद का विषय बने तीन कृषि कानूनों में संशोधन के अपने एक महीने पुराने प्रस्ताव में अभी तक कुछ भी नहीं जोड़ा है. एक दिलचस्प तथ्य ये भी है कि अनिवार्य वस्तु (संशोधन) अधिनियम को लेकर किसानों को जो आपत्तियां हैं उनके समाधान के लिए सरकार ने कोई प्रस्ताव नहीं दिया है जबकि यह अधिनियम अडाणी एग्री. लॉजिस्टिक्स लिमिटेड की भावी योजनाओं के लिए राह तैयार करता है.


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असली मुद्दे से बचने से कोशिश

मोदी सरकार ने कृषि उपज विपणन समिति (एपीएमसी) बायपास एक्ट— जिसका आधिकारिक नाम फार्मर्स प्रोड्यूस ट्रेड एंड कॉमर्स (प्रोमोशन एंड फेसिलिएशन) एक्ट 2020 है, में दो संशोधन करने का प्रस्ताव दिया है और चाहती है, हम मान लें कि उसने बहुत बड़ी छूट दे दी है.

केंद्र सरकार का प्रस्ताव है कि वो राज्य सरकारों को निजी मंडियों के पंजीयन की अनुमति देगी और इन मंडियों पर एक हद तक शुल्क लगाने और व्यापारियों का पंजीयन करने की भी अनुमति दी जायेगी, जैसा कि एपीएमसी की मंडियों के लिए होता है. लेकिन ध्यान रहे कि प्रस्ताव ये नहीं है कि निजी मंडियों पर शुल्क आयद किया जायेगा, जैसा कि बीजेपी के प्रवक्ता टीवी पर बताते फिर रहे थे बल्कि प्रस्ताव ये है कि राज्य सरकारों को अनुमति होगी कि वे चाहें तो ऐसा कर सकती हैं.

जाहिर है फिर इस कानून को लेकर आंदोलनकारी किसानों और कई प्रसिद्ध अर्थशास्त्रियों ने जो एक अहम आपत्ति उठायी है, उसे सरकार कहीं ना कहीं मान रही है. आंदोलनकारी किसानों और कुछ अर्थशास्त्रियों का मानना है कि किसी एक प्रसंग में दोहरा नियमन व्यावहारिक नहीं है. ये नहीं चल सकता कि राज्य सरकारें अपनी तरफ से नियमन और शुल्क आयदगी एपीएमसी एक्ट के तहत करें जबकि दूसरी तरफ एफटीएमसी एक्ट के तहत ट्रेड एरिया में व्यावहरिक रूप से कोई नियमन ना हो, शुल्क आयद ना किया जाये. जो भी हो, एक बात तो तय है कि प्रस्तावित संशोधन समस्या का समाधान नहीं करता. समस्या सिर्फ मंडियों पर शुल्क आयद करने भर की नहीं है बल्कि समस्या एक ही प्रसंग में असमान नियमन करने से जुड़ी है.

संशोधनों से राज्य सरकारों को ये अधिकार हासिल नहीं हो जाएगा कि वे प्राइवेट मंडियों पर शुल्क आयद करें. प्राइवेट मंडियां और व्यापारी उन जगहों पर निकल जायेंगे जहां नियमन ढीला है— ऐसे में एपीएमसी मंडियां और किसानों को उनसे हासिल होने वाली सहायता का पूरा तंत्र ढह जायेगा.

दोहरा नियमन ही एपीएमसी बायपास कानून की असली बात है. एपीएमसी मंडियों से जुड़ी बहुत सी समस्याएं हैं और उन सबका समाधान करने की जरूरत है. उपज की कीमत, भुगतान तथा लेन-देन के मामले में सही बर्ताव करने वाली मंडी हो तो ही किसानों के हित की रक्षा होगी. मंडियों में कुछ मामले सीधे कीमत से नहीं जुड़े होते, जैसे माप-तौल का काम, उपज की गुणवत्ता निर्धारित करने का काम या फिर उपज में मौजूद नमी की मात्रा के आकलन का काम. मंडी का इन मामलों में सही कायदे-कानूनों से चलना जरूरी है. साथ ही मंडी से जुड़ी कुछ सुविधाएं जैसे गोदाम और उपज को सुखाने की जगह की भी व्यवस्था मौजूद होनी चाहिए.

जरा नज़र घुमाइए बिहार या फिर किसी राज्य के दूर-दराज के जनजातियों वाले इलाकों की तरफ. आपको नज़र आयेगा कि जहां भी बाजार का नियमित बुनियादी ढांचा नहीं है वहां किसानों का शोषण ज्यादा है और उन्हें अपने उपज की कीमत कमतर मिल रही है.

यही बात लागू होती है सरकार के उस प्रस्ताव पर जिसमें कहा गया है कि किसानों को विवाद के निपटारे के लिए सिविल कोर्ट जाने की अनुमति होगी. मुश्किल ये है कि ज्यादातर छोटे किसानों के पास इतना रुपया-पैसा, समय और कानून के नुक्तों की जानकारी नहीं होती कि वे विवाद के निपटारे के लिए अदालत का रुख करें.

मान लीजिए, किसान सिविल कोर्ट या फिर एसडीएम के इजलास में जाते हैं तो क्या उनका ये जाना सार्थक होगा. ऐसे ज्यादातर मामलों में किसानों के पास दस्तावेजी साक्ष्य ही ना होंगे कि वे अपने मामले को अदालत में साबित कर सकें. किसानों की जरूरत है कि बाजारों के नियमन की व्यवस्था स्थानीय स्तर पर हो, स्थानीय और राज्य सरकारों के मार्फत व्यवस्था की जाये ताकि किसी मसले का समाधान तत्काल हो सके. अपनी मनमर्जी से चलने वाली मंडियां बनाकर किसानों से ये कहना कि विवाद की हालत में कोर्ट चले जाइए, कोई व्यावहारिक समाधान नहीं है.

आप पूछ सकते हैं कि अगर सरकार इस कानून में संशोधन इस तरह करे कि एपीएमसी एक्ट से बाहर निकलते हुए ट्रेड एरिया बनाने वाली दोहरी नियमन की प्रणाली अमल में आये ही ना तो फिर इस बाबत आपकी क्या राय है? ठीक बात, अगर मामला ऐसा बनता है तो फिर हमारा कहना है कि ऐसे कानून की जरूरत ही क्या है, कानून को वापस ले लीजिए, बस इतने से काम हो जायेगा.


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ठेका खेती के मसले पर गुमराह करने की कोशिश

ठेका खेती कानून का आधिकारिक नाम है फार्मर्स (एम्पावरमेंट एंड प्रोटेक्शन) एग्रीमेंट ऑन प्राइस एश्योरेंस एंड फार्म सर्विसेज एक्ट. इस कानून में संशोधन का जो सरकार का प्रस्ताव है, उसमें भी असल सवाल से भटकाने की कोशिश है.

सरकार ने संशोधन के अपने प्रस्ताव में मात्र इतना कहा है कि लिखित अनुबंध की एक प्रति एसडीएम के पास जमा करायी जायेगी. मुश्किल ये है कि बहुत कम ही कंपनियां अपने अनुबंध का पंजीकरण कराती हैं या फिर ठेके पर खेती का लिखित करार करती हैं.

भारत में अभी ठेके पर खेती का जो चलन है उसे झपट्टामार खेती की व्यवस्था कहना अनुचित नहीं. ये सारा काम आर्गनाइजर कहलाने वाले बिचौलियों के जरिये होता है जिनका पंजीयन नहीं होता और ऐसी व्यवस्था में उपज के मामले में किसान को नुकसान हो, कंपनी ने जो बीज दिये हैं वे नाकाम रहे या फिर कंपनी तयशुदा कीमत पर उपज की खरीद ना करे तो किसानों के पास ऐसी मुश्किलों से पार पाने का कोई रास्ता नहीं होता. नया कानून ठेके पर होने वाली खेती के विस्तार की राह तो तैयार करता है लेकिन इससे जुड़ी किसानों की असल मुश्किल का समाधान नहीं करता, किसानों को उपज का सही दाम मिले इसका कोई प्रावधान नहीं करता.

दरअसल ठेका खेती के मामले में मोदी सरकार ने भ्रम का भूत खड़ा किया है कि ये रहीं किसानों की मुश्किलों और ये रहा कानून के सहारे किया जाने वाला समाधान. सरकार संशोधन के प्रस्ताव के जरिये किसानों को ये आश्वासन दे रही है कि कंपनी उनकी जमीन पर कब्जा नहीं जमायेगी, जमीन पर कोई निर्माण-कार्य होता है तो इस निर्माण-कार्य के आधार पर कंपनी कोई कर्ज ना ले सकेगी. सरकार के प्रस्ताव में है कि ठेके पर खेती के करार में किसान की जमीन को लेकर कोई करार नहीं होगा. लेकिन सवाल तो ये है ही नहीं. किसानों की चिंता तो ये है कि ठेका खेती की स्थिति में जमीन और संपदा पर से उनका अख्तियार जाता रहेगा.

ठेका खेती की स्थिति में किसानों को खेती बाड़ी के उपयोग की चीजों पर ज्यादा खर्चा करना होता है, उन्हें लागत ज्यादा आती है. कंपनी वादा करती है कि वह उत्पाद को खरीद लेगी, किसी और खरीदार के पास नहीं जाना होगा. लेकिन किसान की फसल मारी जाये या कंपनी अपना वादा ना निभाये तो किसान भारी घाटे में पड़ता है और घाटे की स्थिति में किसान अपनी संपदा से हाथ धो बैठता है. ठेके पर खेती की स्थिति में एक तरफ छोटे किसान होते हैं तो दूसरी तरफ कृषि-उपज के व्यापार में लगी बड़ी कंपनियां और इन दो पक्षों के बीच धन या फिर कानूनी संसाधन के मामले में दूर-दूर तक कोई बराबरी नहीं खोजी जा सकती.

ठेके पर खेती के मौजूदा चलन में ये चीजें अभी ही होती नज़र आ रही हैं. तेलंगाना और आंध्र प्रदेश के किसानों को घटिया बीज मिले और उन्हें लाखों रुपये का नुकसान उठाना पड़ा. ठेके पर खीरे (घरकिन) की खेती करने वाले किसानों का हश्र ये हुआ कि खेत की मिट्टी की नमी तो जाती रही लेकिन कंपनी ने तीन साल के बाद इन किसानों से करार खत्म कर लिया.

ठेका पर खेती के मौजूदा कानून में किसानों को शायद ही कोई सुरक्षा हासिल है. अधिनियम के खंड 15 में कहा गया है कि रकम की वसूली के लिए होने वाली कोई भी कार्रवाई किसान की जमीन के विरुद्ध नहीं होगी लेकिन किसान ठेका खेती के क्रम में भारी कर्ज में पड़ सकते हैं और ऐसे में उनकी अन्य संपदा जैसे घर या फिर ट्रैक्टर उनके हाथ से जा सकता है, उन्हें जमीन बेचकर कर्जा चुकाने की नौबत आ सकती है.

ये अधिनियम खेती पर कार्पोरेट के अप्रत्यक्ष नियंत्रण की राह तैयार करता है. अधिनियम के सेक्शन 2(जी)(ii) में प्रोड्यूसर एग्रीमेंट दिया हुआ है. इस एग्रीमेंट के मुताबिक कंपनियां किसी इलाके के किसानों से बड़ी तादाद में ठेके पर खेती का करार कर सकती हैं. इस तरह खेती पर अप्रत्यक्ष रूप से कार्पोरेट का नियंत्रण हो सकता है. अधिनियम में ये बात कही जा चुकी है कि ठेके पर खेती का करार करने वाली कंपनी चाहे तो किसान के खेत में ढांचे खड़े कर सकती है.

जाहिर है, फिर मामला उत्पाद की खरीद तक सीमित नहीं है. किसान ये बात भांप सकते हैं कि बड़े पैमाने पर होने वाली कार्पोरेट खेती की दिशा में उठाये जाने वाले ये शुरुआती कदम हैं और इसके नतीजे में आगे को खेती-बाड़ी कंपनियों के हाथ में चली जायेगी.

आगे का रास्ता

इस सिलसिले का आखिरी सवाल- इन तीन कृषि कानूनों को वापस लेने की मांग करके क्या किसान कृषि के क्षेत्र में होने वाले सुधारों की राह में अडंगा नहीं लगा रहे?

इसका एक सीधा सा जवाब है कि नहीं, किसान अडंगा नहीं लगा रहे.

खेती और कृषि से जुड़ा विपणन राज्य सूची का विषय है. केंद्र सरकार की पेशकदमी पर ज्यादातर राज्यों ने एपीएमसी कानून में सुधार किया है. केंद्रीय कृषि मंत्रालय ने 2019 की जुलाई में ही ये बात स्वीकार की थी कि केंद्र सरकार जो मॉडल एपीएमसी एक्ट, 2017 लेकर आयी है उसे 22 राज्यों ने स्वीकार करके अपना लिया है. तो फिर राज्य सरकारों और किसानों को एक किनारे धकियाते हुए एक नया कानून लाने की जल्दी क्यों?

क्या ये अच्छा नहीं होगा कि मोदी सरकार इन नये कानूनों को वापस ले और बातचीत की मेज पर बैठे, किसानों के प्रतिनिधियों के साथ मिल बैठकर ये तय करे कि खेती-बाड़ी के मामले में कौन से सार्थक और प्रभावकारी सुधार अमल में लाये जा सकते हैं?

(किरण विस्सा एक कृषि एक्टिविस्ट हैं जोकि रायथु बंधु वेदिका के सदस्य हैं साथ ही अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति की कार्यसमिति के सदस्य हैं. योगेंद्र यादव स्वराज इंडिया के राष्ट्रीय अध्यक्ष है. व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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