नई दिल्ली: प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के रुझान के बारे में बहुत कुछ लिखा जा चुका है, जो अपनी सहायता करने और अपने गवर्नेंस एजेंडा की अगुवाई के लिए रिटायर्ड सिविल सर्वेंट्स पर भरोसा करते हैं, लेकिन देश भर के राज्यों में भी, इसी तरह का रुझान देखने को मिल रहा है, जहां मुख्यमंत्री अपने अधिकारियों को, उनके रिटायरमेंट के बाद भी रोक कर रखे हुए हैं.
पिछले हफ्ते, जब 1984 बैच की एक आईएएस अधिकारी नीलम साहनी के, दो बार एक्सटेंशन दिए जाने के बाद, आंध्र प्रदेश की मुख्य सचिव पद से रिटायर होने के फौरन बाद, मुख्यमंत्री जगन मोहन रेड्डी की प्रमुख सलाहकार नियुक्त कर दिया गया.
रेड्डी के मुख्यमंत्री कार्यालय (सीएमओ) में शामिल होने वाली, साहनी पहली पूर्व मुख्य सचिव नहीं हैं. आईएएस में उनके वरिष्ठ, 1983 बैच के अधिकारी अजेय कलम, पहले से ही सीएमओ में बतौर प्रमुख सलाहकार तैनात हैं. एक विशेष मुख्य सचिव पीवी रमेश भी, जिन्हें पिछले साल रिटायरमेंट के समय केंद्र सरकार ने एक्सटेंशन नहीं दिया था, पिछले महीने तक सीएम के अतिरिक्त मुख्य सचिव पद पर थे, जब उन्होंने इस्तीफा दिया.
पड़ोसी ओडिशा में, मुख्य सचिव असित कुमार त्रिपाठी, पिछले महीने सरकारी सेवा से रिटायर हुए, और तुरंत ही क्षेत्रीय विकास, पर्यटन, कृषिव्यापार और उद्योग के लिए, मुख्यमंत्री नवीन पटनायक के प्रमुख सलाहकार नियुक्त कर दिए गए. प्रदेश सीएमओ में शीर्ष अधिकारी हैं, सीएम के मुख्य सलाहकार आर बालाकृष्णन, जो 2018 में अतिरिक्त मुख्य सचिव के पद से रिटायर हो गए थे.
महाराष्ट्र में, बतौर मुख्य सचिव दो बार सेवा में विस्तार के बाद, अजय मेहता को इस साल सीएम का प्रमुख सलाहकार नियुक्त कर दिया गया. ये क़दम शिवसेना की अगुवाई वाले सत्तारूढ़ गठबंधन की सहयोगी, कांग्रेस के ऐतराज़ के बावजूद उठाया गया, जिसने राज्य के प्रशासन में उनके प्रभाव पर सवाल खड़े किए थे.
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उत्तर में गुजरात की ओर बढ़ें, तो एक और उदाहरण सामने आ जाता है- 1979 बैच के आईएएस अधिकारी के कैलाशनाथन, 2013 से सीएम के प्रमुख सचिव बने हुए हैं, जब वो गुजरात में तब के सीएम मोदी के अतिरिक्त मुख्य सचिव के पद से रिटायर हुए थे. मुख्य प्रमुख सचिव की भूमिका में उन्हें तीन मुख्यमंत्रियों (एक ही पार्टी के)- मोदी, आनंदी बेन पटेल और विजय रूपाणी- के अंतर्गत छह एक्सटेंशंस मिल चुके हैं. 2019 में आख़िरकार उनके कार्यकाल को, सीएम के साथ सह-समापित होने वाला कर दिया गया. उन्हें गुजरात में ‘मोदी के आदमी’ के रूप में देखा जाता है, और वो सूबे में राजनीतिक नेतृत्व, और नौकरशाही के बीच कड़ी का काम करते हैं.
बिहार में भी, 2018 में नीतीश कुमार सरकार ने, 1981 बैच के आईएएस अधिकारी अंजनी कुमार सिंह को, बतौर मुख्य सचिव रिटायर होने के अगले ही दिन, सीएम का सलाहकार नियुक्त कर दिया.
ये सब अपवाद नहीं हैं. देश भर में मुख्यमंत्रियों के बहुत से कार्यालय आईएएस अधिकारियों द्वारा चलाए जा रहे हैं, जो अभी हाल ही में शीर्ष सरकारी पदों से रिटायर हुए हैं, जैसे मुख्य सचिव, गृह अथवा वित्त विभाग के सचिव, और जिन्हें अपने-अपने राज्यों में, मुख्यमंत्रियों के कान समझा जाता है.
कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग (डीओपीटी) द्वारा तय किए नियमों में कहा गया है, कि सेवानिवृत्त अधिकारियों को असाधारण परिस्थितियों में ही, फिर से रखा जाना चाहिए. लेकिन हाल ही में, हड़बड़ी में की गई इस तरह की नियुक्तियों से आभास होता है, कि हर बार नियमों का पालन नहीं होता.
कई सिविल सर्वेंट्स और राजनीतिज्ञ इस रुझान को ‘ख़तरनाक’ क़रार देते हैं, जो सक्रिय सिविल सर्वेंट्स की भूमिका को कमज़ोर करता है. उनका ये भी कहना है कि रिटायरमेंट के बाद सिविल सर्वेंट्स की ऐसी नियुक्तियों से, शक्तियां अकसर सीएमओ में केंद्रित हो जाती हैं. लेकिन, दूसरे लोग इस रुझान को ये कहते हुए उचित ठहराते हैं, कि मुख्यमंत्रियों को ऐसे सलाहकार नियुक्त करने का विशेषाधिकार है, जो उनके भरोसेमंद हों. फिर भी, उनका कहना है कि ऐसी नियुक्तियां नियमों के खिलाफ, या प्रशासन की सामान्य हाईरार्की को डिस्टर्ब करने वाली नहीं होनी चाहिएं.
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‘सक्रिय नौकरशाही कमज़ोर होती है’
दिप्रिंट से बात करते हुए, मुख्य सचिव स्तर के एक अधिकारी ने कहा, कि ये रुझान ‘बहुत ख़तरनाक है…और एक मिसाल है कि नौकरशाही किस तरह, ख़ुद के लिए ही एक ख़तरा बन जाती है’.
अधिकारी ने नाम न बताने की शर्त पर ये भी कहा, ‘सलाहकार, जिसकी बहुत कम जवाबदेही होती है, क्योंकि वो कोई फाइलें साइन नहीं करता, धीरे धीरे मुख्य सचिव, या प्रमुख सचिव की शक्तियों को खाने लगता है’.
अधाकिरी ने कहा, ‘प्रदेश सरकार में मुख्य सचिव होता है, जो राज्य में सबसे वरिष्ठ अधिकारी होता है, नौकरशाही का एक निर्पेक्ष विवेक-रक्षक होता है, और सीएम का एक प्रमुख सचिव होता है, जो सरकार के राजनीतिक एजेंडा को स्पष्ट करता है’. उन्होंने आगे कहा, ‘ये वो भूमिकाएं हैं जो अच्छी तरह से स्वीकृत, और संस्थागत रूप से परिभाषित हैं. अगर आप इनमें एक सलाहकार जोड़ दें, जो दोनों से वरिष्ठ हो, तो ये टकराव, अहं की लड़ाई, और सामान्य अव्यवस्था को दावत देना है’.
टीआर रघुनंदन, जो एक रिटायर्ड आईएएस अधिकारी हैं, और दिल्ली स्थित थिंक-टैंक सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च में, अकाउंटेबिलिटी इनीशिएटिव के सलाहकार हैं, इस विचार से सहमत थे.
उन्होंने कहा, ‘रिटायर होने वाले अधिकारियों को सलाहकार नियुक्त करना, मुख्य सचिव के ऑफिस को पूरी तरह खा जाना है. इन दिनों, बहुत से सूबों में एक चपरासी का तबादला भी, सीएमओ की मंज़ूरी के बिना नहीं होता, जहां ये रिटायर्ड अधिकारी बैठे हुए होते हैं’.
‘एक सवाल केंद्रीकरण का भी है, लेकिन कुछ-एक लोगों को सभी ज़िम्मेदारियां दे देने से, पूरी नौकरशाही के हतोत्साहित महसूस करने का मसला भी खड़ा हो जाता है’.
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‘कोई जवाबदेही नहीं’
ये कुछ ऐसी शंकाएं हैं जिन्हें कुछ राजनीतिज्ञों ने भी साझा किया है. वरिष्ठ कांग्रेस नेता और पूर्व महाराष्ट्र मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण, जिन्होंने यूपीए सरकार के दौरान डीओपीटी के लिए राज्यमंत्री के तौर पर काम किया, ने कहा कि ये रुझान पूरे देश में बढ़ता जा रहा है, और ये शासन के संस्थापित नियम-क़ायदों के ख़िलाफ है.
उन्होंने आगे कहा, ‘ऐसा लगता है कि राज्य, केंद्र के मॉडल को अपना रहे हैं…दिल्ली में पीएम का प्रमुख सचिव हमेशा कोई रिटायर्ड आईएएस अधिकारी रहा है,लेकिन राज्यों में ये मॉडल नया है…निजी रूप से मैं इसके खिलाफ हूं, ये पूरी नौकरशाही को हतोत्साहित करता है, और जवाबदेही के गंभीर सवाल खड़े करता है’.
‘सलाहकार को कोई फाइलें साइन नहीं करनी होतीं, उसे सिर्फ सीएम के नाम से आदेश जारी करने होते हैं, जिनका दूसरों को पालन करना होता है’.
ये एक ऐसा मुद्दा है जिसका पंजाब व हरियाणा हाईकोर्ट ने भी संज्ञान लिया है. 1983 बैच के रिटायर्ड आईएएस अधिकारी सुरेश कुमार की, मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह के मुख्य प्रमुख सचिव के तौर पर नियुक्ति को ख़ारिज करते हुए, कोर्ट ने कहा कि वो बिना किसी अथॉरिटी के इस पद पर बने हुए थे.
बेंच ने कहा, ‘मंत्रियों तथा प्रशासनिक सचिवों से परामर्श करना भी आवश्यक नहीं है. ऐसी स्थिति की कल्पना करना मुश्किल नहीं है, जिसमें ऐसे नियुक्त किए गए व्यक्ति द्वारा लिए गए फैसले से, राज्य किसी संकट में आ सकता है,क्योंकि बतौर एक नौकरशाह अपने एक लंबे करियर के बावजूद, उससे अपेक्षा नहीं की जाती, कि राज्य के विकास की उसकी परिकल्पना सीएम के जैसी होगी, जिसे एक आम जनादेश मिला होता है, और जो अपने फैसलों के लिए जनता के प्रति जवाबदेह होता है’.
उपरोक्त अधिकारी ने, जो अपना नाम बताना नहीं चाहते थे, कहा कि सलाहकार की मुख्य ज़िम्मेदारी, ऐसी किसी भी फाइल की जांच करना है, जिसे सीएम से मंज़ूर किया जाना होता है.
अधिकारी ने आगे कहा, ‘कई मामलों में, सीएम केवल सलाहकार की सुन रहे होते हैं, जो किसी संवैधानिक नियमों से शासित नहीं होते, जिन्होंने गोपनीयता की शपथ नहीं ली होती, और अगर कोई फैसला ग़लत हो जाए, तो उनकी कोई जवाबदेही नहीं होगी’.
चव्हाण ने कहा कि ये सिर्फ सेवारत नौकरशाही नहीं है, जिन्हें ये ‘सलाहकार कमज़ोर कर सकते हैं, बल्कि मंत्री भी हैं’. चव्हाण ने आगे कहा, ‘बतौर सलाहकार नियुक्त करते हुए, सरकार अकसर उन्हें कैबिनेट रैंक दे देती है, जो पूरी बकवास है’.
रघुनंदन भी इससे सहमत थे. उन्होंने कहा, ‘ये राजनीतिक कार्यकारी और नौकरशाहों के बीच हाईरार्की को पूरी तरह उलट देती है. नौकरशाहों को मंत्रियों का दर्जा नहीं दिया जाता, लेकिन इसे सामान्य रूप से उस नियम से बचने के लिए इस्तेमाल किया जाता है, जिसमें कैबिनेट में मंत्रियों की संख्या की, एक सीमा तय होती है’.
संविधान की धारा 16 में कहा गया है, कि ‘प्रदेश में मंत्री परिषद के सदस्यों की संख्या, मुख्यमंत्री को मिलाकर, उस राज्य की विधान सभा के कुल सदस्यों की संख्या के, 15 प्रतिशत से अधिक नहीं होगी’.
लेकिन, रघुनंदन ने कहा कि इस नियम को पूरी तरह चकमा दे दिया जाता है,जब आप किसी रिटायर्ड अधिकारी को, कैबिनेट मंत्री का दर्जा दे देते हैं.
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‘असाधारण परिस्थितियां’
डीओपीटी नियमों के मुताबिक़, ‘सामान्य रूप से, सेवा निवृत्ति की आयु के बाद, सेवा के विस्तार या पुन: रोजगार के किसी प्रस्ताव पर, विचार नहीं किया जाना चाहिए’.
इसके अलावा नियमों में ये भी कहा गया है, कि ‘सेवा में विस्तार या पुन: रोजगार के प्रस्ताव का औचित्य, दुर्लभ अथवा असाधारण परिस्थियों में ही ठहराया जा सकता है’.
उन्होंने आगे कहा कि एक्सटेंशंस तभी दिए जा सकते हैं, जब दूसरे अधिकारी उस काम के लिए ‘पूरी तरह तैयार न हों’, या फिर विचाराधीन अधिकारी ‘असाधारण गुण’ रखता हो. रिटायर हो रहे किसी अधिकारी को, विस्तार देने या सरकारी सेवा में फिर से लेने के लिए, इन दोनों शर्तों का पर्याप्त रूप से स्थापित होना आवश्यक है.
ऊपर हवाला दिए गए एक सलाहकार ने दिप्रिंट से कहा, कि मुख्यमंत्रियों को ऐसे सलाहकारों को नियुक्त करने का विशेषाधिकार है, जिनपर वो पूरा भरोसा करते हों.
सेवानिवृत्त अधिकारी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रमुख सचिव पीके मिश्रा, और प्रमुख सलाहकार पीके सिन्हा का हवाला देते हुए कहा, ‘उस स्तर पर, किसी भी सीएम के लिए भरोसा बहुत अहम हो जाता है…और ये रुझान राज्यों तक ही सीमित नहीं है. पीएमओ के स्तर पर, दो रिटायर्ड आईएएस अधिकारी हैं, जिनका सबसे अधिक प्रभाव है’.
‘बस इतनी बात ज़रूर है कि किसी सलाहकार के पास मुख्य सचिव से अधिक शक्तियां नहीं होनी चाहिएं…प्रशासन की एक अच्छे से स्थापित लाइन है,जिसमें विभागों के सचिव और मंत्री होते हैं, और मुख्य सचिव तथा सीएम होते हैं. बहुत अहम है कि इस लाइन को न तोड़ा जाए’.
अधिकारी ने कहा कि मिसाल के तौर पर, पंजाब के मामले में सीएम ने, फाइलें क्लियर करने की शक्तियां सलाहकार को सौंप दीं थीं, और अपनी ग़ैर-मौजूदगी में उन्हें बैठकें करने का ज़िम्मा भी दे दिया था.
‘ये ऐसे मामले हैं जो प्रशासन के नियम-क़ायदों को तोड़ते हैं’.
ज़्यादातर मामलों में, इन सलाहकारों की भूमिका सरकार के कंसलटेंट्स की तरह होती है. अधिकारी ने आगे कहा, ‘अगर सीएम को लगता है कि किसी अधिकारी के पास, किसी विशेष क्षेत्र में विशेषज्ञता है, तो उन्हें सलाहकार के तौर पर नियुक्त किया जा सकता है. उनका रोल कंसल्टेंट की तरह होता है, जो आजकल सरकारी दफ्तरों में व्यापक रूप से रखे जाते हैं’.
सलाहकार ने आगे कहा, ‘कुल मिलाकर, सलाहकार का काम सीएम को फीडबैक देना है, और कहने की ज़रूरत नहीं है, कि ऐसे पद पर वही व्यक्ति बैठ सकता है, जो सीएम का विश्वासपात्र हो’.
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