पिछले दशक की सबसे बड़ी राजनीतिक घटना न तो नरेंद्र मोदी का जबरदस्त उत्कर्ष है, न कांग्रेस पार्टी की भारी पतन है और न ही राहुल गांधी की निरंतर नाकामी है. और न ही समाजवादी पार्टी तथा बसपा, या शिवसेना तथा कग्रेस-एनसीपी जैसे घोर दुश्मनों का अप्रत्याशित मेल है. जबकि यह उथलपुथल भरा यह दशक समाप्त होने को है, अरविंद केजरीवाल इस दौर के सबसे महत्वपूर्ण और एकदम नये राजनीतिक आख्यान के रूप में उभरे हैं.
भारतीय राजस्व सेवा के अधिकारी से सिविल सोसाइटी के कार्यकर्ता बने केजरीवाल की कहानी ऐसी है जैसी भारतीय राजनीति में कभी सुनी नहीं गई थी. कोई राजनीतिक आधार, कोई चुनावी या जमीनी राजनीति के अनुभव के बगैर, और किसी स्थापित संगठन से जुड़ाव न होने बावजूद केजरीवाल का प्रदर्शन अप्रत्याशित रहा है. पहले ही चुनावी समर में उन्होंने दिल्ली के मुख्यमंत्री की गद्दी पर कब्जा कर लिया. और इसके बाद हुए दो विधानसभा चुनावों में उनकी स्थिति और मजबूत ही हुई है.
आम आदमी पार्टी (आप) के मुखिया केजरीवाल ने कुछ मौकों पर गलतियां की होंगी, वे किसी विचारधारा से या सुसंगत सिद्धान्त से भले न जुड़े हों, और कई बार परेशान कर देने वाली अपरिपक्वता और प्रशासनिक अनुभवहीनता का भले परिचय दिया हो, लेकिन वे उन चंद दुर्लभ नेताओं में हैं जिन्होंने नरेंद्र मोदी–अमित शाह के इस दौर में अपनी जमीन बचाए रखी है. यह तब और उल्लेखनीय हो जाता है जब यह देखा जाता है कि वे राजनीति में बिलकुल नये हैं. अपनी सहकर्मी नीरा मजूमदार के शब्दों में कहूं, तो केजरीवाल का उत्कर्ष रातोरात हुए करिश्मे जैसा है.
इसमें शक नहीं कि मुख्यधारा की राजनीति में पहले भी ऐसी कई गैर-राजनीतिक शख्सियतें कदम रख चुकी हैं जिनमें सरकारी अधिकारी भी शामिल हैं, लेकिन इनमें से अधिकतर ने पहले से मौजूद किसी-न-किसी राजनीतिक दल से शुरुआत की. लेकिन किसी ने केजरीवाल की तरह फटाफट कामयाबी हासिल नहीं की. केजरीवाल भारतीय राजनीति के मैगी नूडल सरीखे हैं— फटाफट तैयार!
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2010-20 की प्रमुख राजनीतिक घटनाएं
यह दशक ऐक्शन से भरपूर रहा है, जिसमें उबाऊ दौर कम ही आए. इनमें सबसे बड़ी, ऐतिहासिक किस्म की घटना थी राष्ट्रीय मंच पर मोदी का धमाकेदार प्रवेश और भारतीय मतदाताओं पर उनकी अभूतपूर्व पकड़. अभूतपूर्व इसलिए कि इंदिरा गांधी बेशक सबसे लोकप्रिय नेता रहीं लेकिन उन्हें चुनौती देने वाली राजनीतिक पार्टियों की संख्या उतनी नहीं थी जितनी आज मोदी को चुनौती देने वाले दलों की है.
अपने लेफ्टिनेंट अमित शाह के साथ वे एक-एक करके राज्यों पर कब्जा करते गए हैं और उत्तर-पूर्व समेत उन लगभग सभी क्षेत्रों पर भाजपा का झण्डा फहराया है जहां उसका पारंपरिक आधार नहीं था. एक राजनीतिक रिपोर्टर के तौर पर चुनावों की खबरें देते हुए मैंने देखा है कि मोदी को मध्य प्रदेश से असम और त्रिपुरा तक कितनी भारी लोकप्रियता हासिल है. वे अपनी गंभीर भूलों के बावजूद बेदाग बच निकलते रहे हैं, चाहे यह नोटबंदी (2016) ही क्यों न हो. यही नहीं, उन्होंने जनता से संवाद करने वाली, व्यक्ति-केन्द्रित, चौबीसों घंटे वाली राजनीति के युग का सूत्रपात कर दिया है.
इस दशक में मोदी के उत्कर्ष के साथ, और शायद उसके कारण और भी बुरा हुआ है कांग्रेस का तेजी से पतन. यूपीए-2 के समय से शुरू हुई यह गिरावट लगातार जारी है और उसका नेतृत्व संकट इतना गंभीर है कि उम्मीद की कोई किरण तक नहीं नज़र आती. 2004 में औपचारिक तौर पर राजनीति में कदम रखने वाले राहुल गांधी अपनी सफलताओं से ज्यादा पार्टी का नेतृत्व करने और उसे चुनाव जिताने में अपनी अक्षमता के अलावा अपनी मनमानी अनुपस्थितियों के कारण खबरों में रहे हैं. 2014 के चुनाव में कांग्रेस का महज 44 सीटों पर सिमट जाना निश्चित ही एक ऐतिहासिक, और इस दशक की सबसे उल्लेखनीय राजनीतिक घटना थी.
यह दशक गठबंधन की राजनीति— गठजोड़ करने के तरीकों के मामले में और एक-दूसरे के धुर विरोधियों से हाथ मिलाने के मामले में भी— के विकास का भी दशक रहा है. और ये गठबंधन मुख्यतः मोदी-शाह जोड़ी का सामना करने के लिए किए गए. कभी कट्टर दुश्मन रहीं सपा और बसपा ने उत्तर प्रदेश में हाथ मिलाए, तो शिवसेना ने कांग्रेस-एनसीपी से गठबंधन किया; 2015 में राजद और नीतीश कुमार के जदयू साथ हुए, लेकिन जल्दी ही अलग भी हो गए. यानी पिछले कुछ वर्षों में गठजोड़ करने की मजबूरियों वाला पहलू ही प्रबल हुआ.
वाम दलों का पतन भी एक बड़ी राजनीतिक कहानी रही. 2011 में ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस ने वाम दलों के गढ़ पश्चिम बंगाल पर कब्जा जमाया, तो 2017 में त्रिपुरा में भाजपा ने कम्युनिस्टों को सत्ता से बेदखल कर दिया.
पिछला दशक कई दिलचस्प राजनीतिक प्रकरणों का भी गवाह रहा. 2019 में सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने राम मंदिर विवाद पर विराम लगाया, तो नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) और राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) विवाद का नया मुद्दा बन गया; टूजी घोटाला और कोयला घोटाला सुर्खियों से हटे, तो मनमोहन सिंह की यूपीए-2 का पतन सुर्खियों में प्रमुखता पाने लगा; अध्यादेश की प्रति फाड़ते राहुल गांधी की तस्वीर धुंधली हुई, तो वाइ.एस. जगन मोहन रेड्डी और अखिलेश यादव सरीखे युवा वंशवादी राजनीति के क्षितिज पर उभर आए.
केजरीवाल की अहमियत
तमाम बातों के बावजूद अरविंद केजरीवाल ही दशक के सबसे दमदार सितारे नज़र आते हैं जिनका नाम, दिल्ली के मुख्यमंत्री होने के बावजूद पूरे भारत में गूंजता है. उदाहरण के लिए, अपनी तमाम कामयाबियों के साथ; और चुनावी राजनीति तथा प्रशासनिक अनुभवों के बूते नरेंद्र मोदी तीन बार गुजरात के मुख्यमंत्री रहे. उन्हें काडर आधारित आरएसएस का ही नहीं बल्कि राष्ट्रीय स्तर पर मजबूत पार्टी का भी पूरा समर्थन हासिल था. मोदी ने इन मजबूत आधारों पर अपनी इमारत खड़ी की.
वास्तव में, हाल के दौर में अधिकतर नेताओं का राजनीतिक सफर इसी तरह आगे बढ़ा है, चाहे उन्हें व्यक्ति के रूप में देखें या व्यक्तियों के समूह के रूप में; चाहे उन्हें किसी वंश का सहारा मिला हो या किसी पार्टी अथवा पार्टी के युवा संगठन का. लेकिन केजरीवाल ने भ्रष्टाचार विरोधी पुरोधा अण्णा हज़ारे के साथ मिलकर एक सामाजिक आंदोलन शुरू किया और 2011 में जन लोकपाल आंदोलन का प्रमुख चेहरा बनकर उभरे.
यही नहीं, एक सामाजिक आंदोलन को राजनीतिक मुहिम में बदलने में भी वे सफल रहे और एक साल बाद ही 2012 में उन्होंने ‘आप’ का उदघाटन कर दिया. दिल्ली विधानसभा चुनाव-2013 के बाद ‘आप’ ने कॉंग्रेस के साथ मिलकर सरकार बना ली, हालांकि यह गठबंधन जल्दी ही टूट गया. लेकिन केजरीवाल ने 2015 और 2020 के चुनावों में शानदार जीत हासिल की, बावजूद इसके कि देश में मोदी का बोलबाला था.
किसी गैर-राजनीतिक व्यक्ति ने तमाम गैर-राजनीतिक लोगों के साथ मिलकर राजनीतिक पार्टी बनाई हो, और लगातार दो चुनावों में चमत्कारी बहुमत से जीत हासिल की हो, ऐसा आपने कब देखा या सुना था?
केजरीवाल का राजनीतिक सफर बहुरंगी रहा है— एक उग्र आंदोलनकारी से लेकर एक अति सावधान, फूंक-फूंक कर कदम रखने वाले मुख्यमंत्री तक; पारदर्शिता के लिए आंदोलन करने वाले कार्यकर्ता से लेकर भारत के दूसरे नेताओं की तरह अपारदर्शी नेता तक; सुशासन का वादा करने वाले मुख्यमंत्री से लेकर प्रशासन पर कमजोर पकड़ (जैसा कि कोविड संकट के दौरान दिखा) रखने वाले शासक तक.
कई बार उन्होंने अविवेक का भी प्रदर्शन किया, एक निर्वाचित प्रधानमंत्री के खिलाफ बोलते हुए उन्हें ‘मनोरोगी’ तक कह डाला और केंद्र सरकार से हमेशा छतीस का रिश्ता रखा, अपनी राष्ट्रीय पकड़ जताने के लिए अति महत्वाकांक्षा का प्रदर्शन किया और पंजाब तथा गोवा में हाथ आजमाने के चक्कर में विफलता ही हासिल की, अपने कुनबे को जोड़े रखने में नाकाम रहे जबकि ‘आप’ के प्रमुख चेहरे एक-एक करके उससे टूट गए. लोकसभा चुनावों में भी केजरीवाल का प्रदर्शन कमजोर ही रहा.
हालांकि, केजरीवाल का निर्माण जिन तत्वों से हुआ वे बेशक कुछ कमजोर पड़े हैं, फिर भी उनकी कहानी पिछले दशक में भारतीय राजनीति में कामयाबी की सबसे बड़ी, सबसे दिलचस्प और आकर्षक कहानी है. दिल्ली के इस मुख्यमंत्री का नाम सबसे जबरदस्त प्रयोग के लिए, और चुनावी राजनीति में बिलकुल नया अध्याय रचने के लिए इतिहास में दर्ज किया जाएगा, वह भी एक ऐसे अध्याय के रूप में जिसे मोदी-शाह दौर की चमक में अनदेखा नहीं किया जा सकेगा.
(यहां व्यक्त विचार निजी है)
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केजरीवाल हिन्दुओं का कातिल है।।।दिल्ली दंगा इसी ने करवाया और हिन्दुओं को मरवाया।।।