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Friday, 22 November, 2024
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कृषि कानूनों पर BJP छोड़ने वाले हरिंदर खालसा पूर्व IFS हैं, AAP और SAD से भी रहा है नाता

हरिंदर खालसा ने ऑपरेशन ब्लूस्टार को लेकर आईएफएस से नाता तोड़ा और खालिस्तानियों से संपर्क के आरोप लगने पर नॉर्वे में शरण ली. उनके पिता एक दलित नेता थे जो पंजाब में पहले नेता विपक्ष बने थे और उनके भाई भी आईएफएस थे.

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चंडीगढ़: फतेहगढ़ साहिब के पूर्व सांसद हरिंदर सिंह खालसा ने शनिवार को जब भाजपा से इस्तीफा दिया, तो यह एक पूर्व राजनयिक की किसी तीसरी पार्टी के साथ राजनीतिक पारी का समापन था. खालसा ने प्रदर्शनकारी किसानों की दुर्दशा के प्रति भाजपा की ‘असंवेदनशीलता’ को अपने फैसले की वजह बताया है.

वह 2019 के संसदीय चुनावों से पहले भाजपा में शामिल हुए थे. इससे पहले, वह आम आदमी पार्टी (आप) के साथ थे, जिसमें वह 2014 में शामिल हुए थे. खालसा 1996 से 1998 के बीच बठिंडा के सांसद के तौर पर शिरोमणि अकाली दल के साथ भी जुड़े रहे थे.

एक पूर्व राजनयिक, जिनके दावा के मुताबिक 1984 में ऑपरेशन ब्लूस्टार के विरोध में प्रतिष्ठित भारतीय विदेश सेवा (आईएफएस) से इस्तीफे ने उन्हें चर्चाओं में ला दिया था, खालसा को आप ने 2015 में ‘पार्टी विरोधी गतिविधियों’ के कारण निलंबित कर दिया था. इस निलंबन के बाद उन्होंने भाजपा से नजदीकियां बढ़ाने की कोशिश की. लेकिन फिर से चुनाव लड़ने के लिए पार्टी की तरफ से टिकट नहीं दिया गया.

ये 73 वर्षीय बुजुर्ग लुधियाना के एक राजनीतिक परिवार से नाता रखते हैं. उनके पिता गोपाल सिंह खालसा एक प्रमुख दलित नेता थे जो 1937 में अविभाजित पंजाब की पहली निर्वाचित प्रांतीय सरकार में पंजाब के प्रीमियर सिकंदर हयात खान के संसदीय सचिव थे.

आजादी के बाद उनके पिता अकाली दल में शामिल हो गए और पंजाब विधानसभा में विपक्ष के पहले नेता बने, जब 1952 से 1956 तक राज्य पर कांग्रेस ने शासन किया. लंदन में कानून की पढ़ाई करने वाले उनके पिता ने अपने बेटों को बेहतरीन शिक्षा के लिए प्रोत्साहित किया.

अंग्रेजी में पोस्टग्रेजुएट डिग्री के बाद खालसा ने लुधियाना के एक कॉलेज में पढ़ाना शुरू कर दिया. उन्होंने दो पाठ्य पुस्तकें भी लिखी जिसमें एक अंग्रेजी और दूसरी सामाजिक विज्ञान पर थी.

खालसा के तीन बेटों में से दो विदेश में रहते हैं, जबकि एक लुधियाना में पंजाब कृषि विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं. खालसा के भाई बुटशिकन सिंह भी आईएफएस थे और अब सेवानिवृत्त हो चुके हैं और लुधियाना में रहते हैं.


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ऑपरेशन ब्लूस्टार के बाद इस्तीफा देने वाला राजनयिक

खालसा ने 1974 में पंजाब सिविल सर्विस के कुछ ही महीने बाद आईएफएस में अपनी जगह बना ली. पहली पोस्टिंग उन्हें जकार्ता में मिली, जहां उन्होंने द्वितीय सचिव के रूप में काम किया. जकार्ता के बाद खालसा को बैंकॉक में प्रथम सचिव के रूप में तैनाती मिली.

ओस्लो, नॉर्वे में प्रथम सचिव के रूप में अपनी अगली पोस्टिंग के दौरान खालसा ने जून 1984 में ऑपरेशन ब्लू स्टार के विरोध में इस्तीफा दे दिया. तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के आदेश पर इस ऑपरेशन के दौरान सेना हरमंदिर साहिब (स्वर्ण मंदिर) के अंदर घुस गई थी, जो सिखों के लिए सबसे बड़े धार्मिक स्थलों में एक है.

इस्तीफे के बाद खालसा को खालिस्तानियों के साथ संपर्क रखने के आरोपों का सामना करना पड़ा. जब इंदिरा गांधी की उनके सिख अंगरक्षकों द्वारा हत्या कर दी गई तो भी खालसा का नाम उभरा था.

यह आरोप लगने के पीछे मुख्य वजह यह भी थी कि खालसा की पत्नी सुखवंत कौर चंडीगढ़ के पास मलोया गांव की रहने वाली थीं. इंदिरा गांधी की मौत के लिए जिम्मेदार उनके दो अंगरक्षकों में से एक बेअंत सिंह का संबंध भी इसी गांव से था, और वह कथित तौर पर सुखवंत को उनके बचपन के दिनों से जानता था. बेअंत सिंह ने 1983 में इंदिरा गांधी की नॉर्वे यात्रा के दौरान कथित तौर पर खालसा से मिलने की कोशिश भी थी थी लेकिन राजनयिक ने इसमें रुचि नहीं दिखाई.

1984 में इंडिया टुडे को दिए एक साक्षात्कार में खालसा ने इन सभी आरोपों का खंडन किया लेकिन माना कि सिख चरमपंथी संत जरनैल सिंह भिंडरावाले के प्रति उनके मन में बहुत सम्मान था.

खालसा ने नॉर्वे में शरण के लिए आवेदन किया और सरकारी मदद पर आश्रित रहने के अलावा पत्नी के साथ मिलकर एक छोटा भोजनालय चलाते रहे. उन्होंने उस दौरान एक डाकिये के तौर पर भी काम किया.

1990 में जब वह भारत लौटे तो उन्हें पंजाब में उग्रवाद के दिनों के दौरान बड़े पैमाने पर सामने आए मानवाधिकारों से जुड़े मामले देखने वाले एक एनजीओ, पंजाब मानवाधिकार संगठन का अध्यक्ष बनाया गया. एक वर्ष बाद वह शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक समिति (एसजीपीसी) के सचिव नियुक्त हुए.


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राजनीतिक कैरियर

खालसा ने 1996 में चुनावी राजनीति में कदम रखा जब शिरोमणि अकाली दल (एसएडी) ने उन्हें बठिंडा संसदीय सीट से चुनाव लड़ने के लिए टिकट दिया. उन्होंने 92,000 से अधिक मतों के भारी अंतर से जीत दर्ज की.

1998 में वह अटल बिहारी वाजपेयी सरकार में एससी-एसटी आयोग के सदस्य बने और तीन साल तक इससे जुड़े रहे.

करीब दो दशक तक सीधे तौर पर राजनीति से दूर रहने के बाद खालसा 2014 के लोकसभा चुनावों के दौरान पंजाब में आप की लहर की सवारी करने उतरे. वह संसदीय चुनावों से ऐन पहले पार्टी में शामिल हुए और फतेहगढ़ साहिब की आरक्षित सीट से 54,000 से मतों के अंतर से जीत भी हासिल की.

वह उस वर्ष पंजाब से चुने गए चार आप सांसदों में से एक थे, जो यहां इस पार्टी का पहला चुनाव था. चुनाव से पहले लुधियाना में सेवानिवृत्ति वाली जिंदगी व्यतीत कर रहे खालसा 2015 में पार्टी विरोधी गतिविधियों के कारण निलंबित किए जाने के बाद अपने निर्वाचन क्षेत्र से लगभग नदारत रहे.

उन्होंने और एक अन्य निर्वाचित सांसद धरमवीर गांधी ने पार्टी में जरूरत से ज्यादा केंद्रीयकरण और पंजाब में आप हाई कमान के बढ़ते दखल पर आपत्ति जताई थी.

पिछले साल मार्च में वह अरुण जेटली की उपस्थिति में भाजपा में शामिल हुए थे. खालसा को अमृतसर से भाजपा की सीट मिलने की उम्मीद थी, लेकिन वहां के लिए कैबिनेट मंत्री हरदीप पुरी को चुना गया.

भाजपा सूत्रों का कहना है कि खालसा को पार्टी में बेचैनी हो रही थी क्योंकि जेटली के निधन के बाद उनके पास पार्टी में कोई महत्वपूर्ण सहयोगी नहीं था.

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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