प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 15 अगस्त के अपने भाषण में उन सैनिकों की प्रशंसा की जो पूर्वी लद्दाख में देश की संप्रभुता की रक्षा कर रहे हैं. विडंबना यह है कि इससे ठीक एक महीने पहले 16 जुलाई को रक्षा मंत्रालय ने एक ऐसा पत्र जारी किया जिसने अपंगता के कारण सेना से रिटायर हुए उन सैनिकों के लिए ‘इनवैलिड पेंशन’ पाना असंभव कर दिया जिन्होंने सेना को 10 साल से कम सेवा दी हो. यह लाभ उन्हें वर्षों के संघर्ष/मुकदमे और सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद मिला था.
जानबूझकर या अनजाने में ‘सैनिकों की पीठ में छुरा घोंपने’ के लिए मीडिया और रिटायर्ड सैनिकों ने रक्षा महकमे की भारी आलोचना की है. सवाल यह है कि संबंधित मंत्रियों से जवाबतलब क्यों नहीं किया जा रहा है?
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मामला क्या है
सैनिकों के लिए पेंशन के जो नियम हैं उनके अनुसार, सेना को 10 साल से कम सेवा देने वाला कोई सैनिक सेना के काम से इतर कारणों से चोट लगने के कारण अपंग होता है या उसकी चोट गंभीर हो जाती है तो वह अपंगता पेंशन पाने का हकदार नहीं है. इसके बदले उसे बस एक बार के लिए ग्रेच्युटी दी जाती है जिसका हिसाब उसने जितने साल सेवा दी है उनके लिए उसे पूरे हुए हरेक आधे साल पर आधे महीने के वेतन की दर से लगाया जाता है. इसी परिस्थिति वाले जिन सैनिकों ने 10 साल या उससे ज्यादा सेवा दी है उन्हें उनकी सेवा के वर्षों के हिसाब से सामान्य पेंशन तय किया जाता है.
यह प्रावधान उन अपंगताओं के लिए है जो ड्यूटी पर न रहते हुए लगी चोटों के कारण हुई हों या वे उन रोगों के कारण हुई हों जो रोग सेना की सेवा में न रहते हुए हों. उदाहरण के लिए, नौ साल सेवा देने वाला कोई सैनिक छुट्टी पर रहते हुए किसी हादसे के चलते अपंग हो जाता है तो उसे उसके नौ महीने के वेतन के बराबर की रकम ही ग्रेच्युटी के रूप में मिलेगी, भले ही उसने सियाचीन में एक कार्यकाल और ऑपेरेशनल एरिया में दो कार्यकाल के लिए सेवा दी हो.
यह प्रावधान औपनिवेशिक काल की परंपरा के रूप में जारी रहा है जबकि सेनाएं और प्रभावित सैनिक उसमें बदलाव की मांग करते रहे हैं. सुप्रीम कोर्ट, तमाम हाई कोर्ट, सेना के ट्रिब्यूनल सरकार को कई बार सलाह दे चुके हैं कि वह इस नियम को सुधारे और 10 साल से कम सेवा देने वाले सैनिकों को भी एक बार ग्रेच्युटी की जगह पेंशन देने की व्यवस्था करे.
डिपार्टमेंट ऑफ पेंशन ऐंड पेंशनर्स वेलफेयर (डीपीपीडब्ल्यू) ने फरवरी 2019 में पहल की. 4 जनवरी 2019 की एक गज़ट अधिसूचना के आधार पर यह पेंशन 10 साल से कम सेवा देने वाले उन सरकारी कर्मचारियों को देने का फैसला किया गया, जो शारीरिक या मानसिक अपंगता के कारण ‘सेवा देने से हमेशा के लिए लाचार’ हो गए हों. यह प्रशंसनीय बात है कि डीपीपीडब्ल्यू ने अधिसूचना जारी होने के एक महीने के अंदर ही कार्रवाई कर डाली.
रक्षा मंत्रालय ने सभी सरकारी कर्मचारियों के लिए लागू किए गए इस प्रावधान पर स्वतः ध्यान देते हुए इसे सैनिकों के लिए भी तुरंत लागू न करके इस मामले पर करीब डेढ़ साल तक ‘विचार’ किया और इसके बाद उपरोक्त पत्र जारी कर दिया. और तो और, उसने जले पर नमक छिड़कते हुए इस मूल प्रावधान में एक शर्त जोड़ दी. मूल प्रावधान के तहत शर्त यह थी कि वह सैनिक ‘सैन्य सेवाएं देने से हमेशा के लिए लाचार’ हो गया हो. उसे बदलकर रक्षा मंत्रालय ने यह प्रावधान कर दिया कि वह ‘सैन्य सेवाओं के साथ ही असैनिक सेवाओं के लिए भी हमेशा के लिए लाचार हो गया हो’.
‘साथ ही असैनिक सेवाओं’ वाली शर्त का मतलब यह हुआ कि सैनिक को अपंगता पेंशन तभी मिलेगी जब वह अपनी अपंगता के कारण हमेशा के लिए केवल सैन्य सेवाओं के लिए लाचार ही न हो बल्कि असैनिक सेवाओं के लिए भी लाचार हो. यह पत्र सरकार की नीति की ही धज्जी नहीं उड़ाता बल्कि अपंग व्यक्तियों ही नहीं बल्कि खासकर अपंग सैनिकों के लिए भी रोजगार आरक्षण के अंतरराष्ट्रीय मानदंडों का भी मखौल उड़ाता है.
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राजनीतिक दूरदर्शिता की कमी
नौकरशाही और सेना के बीच प्रतिद्वंदिता का इतिहास बेशक काफी पुराना है मगर राजनीतिक दूरदर्शिता कहां है? क्या राजनीतिक सहानुभूति केवल शहीदों को सलाम करने और सैनिकों के बलिदान का राजनीतिक लाभ उठाने तक ही सीमित रहेगी? यह तो समझा जा सकता है कि रक्षा मंत्री या राज्य मंत्री से नीति संबंधी पत्रों के मसौदे में संशोधन करने की अपेक्षा नहीं की जा सकती लेकिन इस मसले को मीडिया द्वारा एक महीने पहले उठाए जाने के बाद भी उनकी चुप्पी का क्या औचित्य हो सकता है?
रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह को इस पर खेद जाहिर करने और नीति संबंधी संशोधित पत्र 24 घंटे के अंदर ही जारी करने से कौन रोक रहा था? वे ऐसा करते तो सेना के चहेते बन जाते. इस तरह का कुटिल पत्र तैयार करने के लिए डिपार्टमेंट ऑफ एक्स-सर्विसमेन वेलफेयर (डीईएसडब्ल्यू) के सचिव को हटाया जाना चाहिए था और लापरवाह अधिकारियों के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई करनी चाहिए थी.
राजनाथ सिंह को रक्षा मंत्री की विशेषज्ञों की कमिटी की 2015 की रिपोर्ट पर कारवाई करनी चाहिए जो पूर्व रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर की पहल पर आधारित थी. इस रिपोर्ट में डीईएसडब्ल्यू की तमाम खामियों का विस्तृत लेखाजोखा भी है और उन्हें दूर करने के उपाय भी बताए गए हैं. लेकिन ऐसा लगता है कि पांच साल में कुछ नहीं बदला है. अब समय आ गया है कि डीईएसडब्ल्यू की निगरानी के वास्ते पूर्व सैनिकों के मामलों के लिए एक अलग मंत्री बनाया जाए.
भविष्य में रक्षा मंत्रालय की जवाबदारी नौकरशाही के सिर न थोपी जाए. हमारे सैनिक राष्ट्रीय सुरक्षा के हर संकट में हमेशा आगे आते रहे हैं. समय आ गया है हमारे नेतागण उनके कल्याण की चिंता करें.
(ले. जनरल एच.एस. पनाग पीवीएसएम, एवीएसएम (रि.) ने भारतीय सेना की 40 साल तक सेवा की है. वे उत्तरी कमान और सेंट्रल कमान के जीओसी-इन-सी रहे. सेवानिवृत्ति के बाद वे आर्म्ड फोर्सेज ट्रिब्यूनल के सदस्य रहे. व्यक्त विचार निजी हैं)
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यूपीए के गृह मंत्री तो इसे लॉ and ऑर्डर प्रॉबलम ही मान कर समस्या से आंखे चुराते रहे।