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Monday, 9 December, 2024
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वंशवाद का पतन, फडणवीस का उदय, आम चुनाव के झटकों से उबरी भाजपा; महाराष्ट्र, झारखंड और उपचुनावों के सबक

हेमंत सोरेन भी बड़े विजेता साबित हुए, लेकिन बड़े सवाल कांग्रेस से पूछे जाएंगे और नकारात्मक नतीजा यह है कि रेवड़ी बांटने का फॉर्मूला मजबूती से उभरा है.

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इस बार के विधानसभा चुनावों और उप-चुनावों का सबसे बड़ा निष्कर्ष बहुत स्पष्ट है. वह यह है कि इस साल की गर्मियों में हुए आम चुनाव में मिले झटके से भारतीय जनता पार्टी पूरी तरह उबर गई है. इसने इस पार्टी के इस भय (और इसके विरोधियों की उम्मीदों) को दफन कर दिया है कि अब इसका पतन शुरू हो गया है और जो चीज़ ज्यादा भारी होती है वह और ज्यादा तेज़ी से लुढ़कती है.

लेकिन वह ढलान अब पूरी तरह खत्म हो गई है बल्कि महाराष्ट्र में तो इसके उलट चढ़ाई शुरू हो रही है, जहां इस बार उसने 2019 के विधानसभा चुनाव में मिली सीटों से ज्यादा सीटें जीत ली है और आम चुनाव के अपने आंकड़े में नाटकीय वृद्धि दर्ज की है. इस बड़ी हेडलाइन के नीचे कोई एक दर्जन दूसरी महत्वपूर्ण बातें भी नज़र आ रही हैं.

  • महाराष्ट्र के नतीजे इस बात को रेखांकित कर रहे हैं कि राष्ट्रीय राजनीति में अगर कोई एक चीज़ है जो नहीं बदली है, वह है भाजपा को मात देने में कांग्रेस पार्टी की अक्षमता जो बार-बार साबित हो रही है. संकेत ये हैं कि भाजपा के साथ सीधी टक्कर में कांग्रेस की हार की औसत का आंकड़ा 85 फीसदी पर पहुंच रहा है. विदर्भ पर नज़र डालिए, जो कांग्रेस का मजबूत गढ़ माना जाता रहा है. इस क्षेत्र की 35 सीटों पर भाजपा से उसकी सीधी टक्कर थी और उनमें से वह केवल सात सीटें ही जीत सकी. कुल-मिलाकर उसने जितनी सीटों पर चुनाव लड़ा उनमें से 20 फीसदी से भी कम सीटें वह जीत सकी. इसके बरक्स भाजपा ने सभी प्रतिद्वंद्वियों से मुकाबले में करीब 90 फीसदी जीत का रिकॉर्ड बनाया.
  • विपक्ष, खासकर ‘इंडिया’ गठबंधन भाजपा को मात देने का कोई फॉर्मूला, कोई नारा नहीं ढूंढ पाया, यहां तक कि अपनी एकजुटता भी नहीं दिखा पाया. उसने जिन रेवड़ियों की पेशकश की उन पर मतदाताओं को भरोसा नहीं हुआ. उसकी विचारधारा गड्डमड्ड है और उसके पास कोई सकारात्मक एजेंडा नहीं दिखता. अडाणी को धारावी से, जहां से कांग्रेस जीती, अलग करने के सिवा उसने कौन सा बड़ा वादा महाराष्ट्र से किया था?
  • बड़ी तस्वीर यह बताती है कि इन चुनावों में दो नेता बड़े विजेता बनकर उभरे — महाराष्ट्र में देवेंद्र फडनवीस और झारखंड में हेमंत सोरेन. महाराष्ट्र में फडणवीस के नेतृत्व में भाजपा ने लगातार शानदार प्रदर्शन किए, 2019 में 105 सीटें जीतने के बाद इस बार उसने 130 से ज्यादा सीटें जीती. अब उन्हें मुख्यमंत्री की गद्दी न सौंपने का औचित्य ढूंढना मुश्किल होगा. लंबे समय तक जेल में बंद रखे जाने के बावजूद सोरेन ने साहस का प्रदर्शन करते हुए अपने नेतृत्व वाले गठबंधन का 2019 से बेहतर प्रदर्शन करके दिखाया है. यह भारतीय राजनीति और खासकर विपक्ष की राजनीति में दुर्लभ उपलब्धि है. राहुल गांधी और कांग्रेस ने इस राज्य में बहुत ज्यादा चुनावी सभाएं नहीं की, तो शायद इसे एक वरदान भी माना जा सकता है.
  • महाराष्ट्र में दो और विजेता हैं. मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे और अजित पवार अपनी-अपनी मूल पार्टी से अलग होकर बनाई पार्टियों के वे असली नेता के रूप में उभरे हैं. शिंदे ने लड़ी गईं 70 फीसदी सीटों पर जीत हासिल करके खुद को महज़ हड़पू नहीं बल्कि एक ताकतवर नेता साबित किया है.
  • यह भारतीय राजनीति के विकास में एक बहुत महत्वपूर्ण घटना को भी रेखांकित करता है कि अब किसी परिवार को किसी विचारधारा का सूत्रधार नहीं कहा जा सकता. महाराष्ट्र में ठाकरे और शिवसेना के अलावा पंजाब में बादल और शिरोमणि अकाली दल को भी मत भूलिए.
  • इस चुनाव ने भारतीय राजनीति में दोहरे स्तर की वंश परंपरा की समाप्ति का संकेत दे दिया है — शरद पवार और ठाकरे परिवारों की परंपरा का. इन दोनों के काडर और विधायकों में अब तेज़ी से कमी होती देखी जा सकती है. वंश के संरक्षक अगर वोट नहीं दिला सकते तो उनके साथ चिपके रहने का क्या फायदा? अब शरद पवार को दो ही विकल्प नज़र आ सकते हैं, अपनी पार्टी का कांग्रेस में विलय कर दें और इस तरह अपनी बेटी सुप्रिया सुले के करियर को सहारा दें.
  • सबसे बड़े सवाल कांग्रेस को लेकर उठाए जा सकते हैं. राहुल ने धुर वामपंथी विचारधारा की जो टेक लगाई है उसे पूरी तरह खारिज कर दिया गया है. देश में कॉर्पोरेट विरोधी जो एकसूत्री एजेंडा अपनाया गया उसके पक्ष में एक भी वोट नहीं मिला है. जैसा कि हमने हरियाणा चुनाव के नतीजों के बाद कहा था, युवा मतदाता अंबानी और अडाणी की तरह अमीर और कामयाब बनना चाहते हैं, उन्हें जेल में नहीं देखना चाहते. राहुल दस साल से यह गलती कर रहे हैं और उनकी पार्टी और सहयोगी इसकी कीमत चुका रहे हैं.
  • कांग्रेस में कोई यह सवाल उठाने की हिम्मत नहीं करता कि अब संविधान की प्रति लेकर घूमने और दिखाने का क्या काम है? भाजपा को जब 240 सीटों पर समेट दिया उसके बाद संविधान पर खतरा तो खत्म हो गया और यह किसी विधानसभा चुनाव के लिए मुद्दा नहीं बनता था. अब तो कोई ‘400 पार’ का नारा नहीं लगा रहा है. इसी तरह जातिगत जनगणना ऐसा मंत्र बन गया है जिससे मतदाता बोर हो चुके हैं. क्या कांग्रेस पार्टी में कुछ ज्यादा आकर्षक और भविष्यमुखी बात सोचने की क्षमता नहीं रह गई है? क्या उसका कोई ‘थिंक टैंक’ (विचार मंडली) है? कोई नहीं जानता कि पुराने ज़माने के नारों को दोहराने के सिवा वह क्या सोच रही है. जैसा कि मैंने इसी कॉलम लिखा था, कांग्रेस ने आम चुनावों से गलत सबक सीखे हैं.
  • भाजपा जब कांग्रेस से मुकाबले में होती है तब उसका प्रदर्शन सबसे अच्छा रहता है. क्षेत्रीय नेताओं के मुकाबले उसका जादू फीका ही पड़ता जा रहा है. इसके उदाहरण हैं झारखंड के हेमंत सोरेन और पश्चिम बंगाल की ममता बनर्जी जिन्होंने उपचुनाव में सारी सीटें जीत ली.
  • उत्तर प्रदेश में उपचुनाव में लगभग सारी सीटें जिताकर योगी आदित्यनाथ ने अपनी स्थिति मजबूत कर ली है और आम चुनाव में हुए नुकसान की भरपाई कर दी है. इस बार उन्हें उम्मीदवारों के चयन और चुनाव प्रचार की खुली छूट दी गई थी. अब भाजपा में उनकी हैसियत पक्की हो जाएगी.
  • नकारात्मक परिणाम यह हुआ है कि महाराष्ट्र और झारखंड में रेवड़ी बांटने का फॉर्मूला सफल होने से इसे पक्का मान लिया जाएगा, लेकिन महा विकास आघाडी के लिए यह फॉर्मूला क्यों नहीं चला? क्योंकि उनमें एकजुटता नहीं थी और मतदाता उनकी जीत को लेकर आश्वस्त नहीं थे. उन्हें उसके इस फॉर्मूले के तहत किए गए वादों पर भरोसा नहीं जमा.
  • महाराष्ट्र में कांग्रेस की बदहाली के मलबे में एक महत्वपूर्ण सकारात्मक बात दफन न हो जाए. कर्नाटक के इसके एक प्रमुख नेता डी.के. शिवकुमार चन्नपटना में केंद्रीय मंत्री एच.डी. कुमारस्वामी के बेटे निखिल को हरवाने में सफल रहे. शिवकुमार ने वहां से उस उम्मीदवार को खड़ा किया था जिसे हाल में ही उन्होंने भाजपा से कांग्रेस में शामिल कराया था. यह गौडा परिवार के नेतृत्व वाली जेडीएस पार्टी के वोक्कालिगा जनाधार में बड़ी सेंध है. गौडा परिवार का सूर्य अस्त होता दिख रहा है.
  • क्या इन चुनावों में धुर हिंदुत्ववाद कारगर रहा? इसे झारखंड में जोरदार तरीके से उभारने की कोशिश बुरी तरह नाकाम रही. महाराष्ट्र में भी भाजपा के सहयोगी अजित पवार ने इस पर सवाल उठाया. यहां तक कि भाजपा की युवा नेता पंकजा मुंडे ने भी इस पर आपत्ति जताई.
  •  और अंत में प्रियंका गांधी उम्मीद के मुताबिक वायनाड से जीत गईं. इस तरह गांधी परिवार के तीन सदस्य संसद में पहुंच गए हैं. अब वक्त आ गया है कि उनकी पार्टी अपने भविष्य को लेकर वास्तव में आत्म-मंथन करे.

सिर्फ दो विधानसभाओं के चुनाव और चंद सीटों पर उपचुनाव से इतने सारे सबक उभरे हैं. याद रहे कि ये नतीजे मुख्यतः उन राज्यों से मिले हैं जिन्होंने पिछली गर्मियों में भाजपा को 240 पर समेटने में योगदान दिया था.

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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