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Friday, 22 November, 2024
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कोविड-19 हर्ड इम्यूनिटी जितना सोचा गया था, उससे क़रीब क्यों हो सकती है

एक्सपर्ट्स का कहना है कि कोविड-19 एंटीबॉडीज़ कम से कम 6 महीने तक रहते हैं और हमारे शरीर में कोरोनावायरस के खिलाफ वो अकेले हथियार नहीं हैं.

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नई दिल्ली: भारत में कोविड-19 वैश्विक महामारी के शुरुआती दिनों में, आरओ वैल्यू बढ़कर 1.83 पहुंच गई थी. आरओ वैल्यू की मीट्रिक से पता चलता है कि एक व्यक्ति से कितने लोग संक्रमित हो सकते हैं. इसकी वजह से एक्सपर्ट्स इस नतीजे पर पहुंचे कि हर्ड इम्यूनिटी शुरू होने के लिए, 60 प्रतिशत आबादी को इम्यूनिटी हासिल करनी होगी- या तो ठीक होकर, या फिर वैक्सीन से.

ये एक ख़तरनाक आंकलन था, चूंकि भारत में अभी तक दर्ज 27,67,273 मामलों (जो कुल आबादी का क़रीब 0.2 प्रतिशत है) में, 52,889 मौतें पहले ही दर्ज हो चुकी हैं. यहां तक कि सरकार ने भी चेतावनी दी है कि वैक्सीन के बिना, भारत इंसानी क़ीमत चुका कर ही हर्ड इम्यूनिटी हासिल कर सकता है.

लेकिन रिसर्च दिखा रही है कि हमारा शरीर, कोविड-19 पैदा करने वाले वायरस, सार्स-सीओवी2 के खिलाफ एक मज़बूत इम्यून रेस्पॉन्स लॉन्च कर सकता है, भले ही पहले इससे वास्ता न रहा हो. साथ ही ये सबूत भी मिल रहे हैं कि बीमारी के लिए एंटीबॉडीज़ सिस्टम में कम से कम 6 महीने तक रहते हैं. इससे ये पता चलता है कि हर्ड इम्यूनिटी हासिल करना, जितना सोचा गया था उससे आसान हो सकता है.

हर्ड इम्यूनिटी एक ऐसी धारणा है, जिसमें आबादी का एक बड़ा हिस्सा किसी बीमारी से उन्मुक्त होता है जिससे पैथोजंस को, संक्रमित करने के लिए, नया मेज़बान ढूंढ़ना मुश्किल हो जाता है. ज़रूरी नहीं कि ये सिर्फ वैक्सीन से ही हासिल किया जाए. ये उस सूरत में भी हासिल हो सकता है, यदि पहली बार इसके संपर्क में आने के बाद, पर्याप्त संख्या में लोग एंटीबॉडीज़ विकसित कर लें.

अगर आबादी का बड़ा हिस्सा किसी वायरस से उन्मुक्त हो जाता है, तो फिर संक्रमित करने के लिए वायरस को ताज़ा लोग नहीं मिलेंगे, और संक्रमण की कड़ी बाधित हो जाएगी.


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नई जानकारी

महामारी के शुरुआती दिनों में, ये नहीं समझा गया था कि नॉवल कोरोनावायरस के खिलाफ, शरीर में लॉन्च हुए एंटीबॉडीज़ लंबे समय तक रहते थे. दक्षिण कोरिया में फिर से संक्रमण की ख़बरों ने, ये डर पैदा कर दिया कि जो लोग इन्फेक्शन से ठीक हो गए थे, वो फिर से इसकी चपेट में आ सकते हैं.

लेकिन मई में दक्षिण कोरिया सरकार द्वारा कराई गई एक स्टडी में, ये बात पुष्ट हो गई कि ये सही नहीं था.

स्टडी के अनुसार, अस्पतालों से छुट्टी मिलने के बाद, जिन लोगों के टेस्ट पॉज़िटिव आए थे, उनके शरीर में केवल बचा हुआ वायरल कचरा था, ज़िंदा वायरस नहीं था- एक ऐसा अंतर जिसे आरटी-पीसीआर टेस्ट समझ नहीं पाया था.

एक चिंता से निपटने के बाद दूसरी खड़ी हो गई, जब जून में एक चीनी स्टडी ने कहा कि नॉवल कोरोनावायरस के खिलाफ पैदा हुए एंटीबॉडीज़, दो से तीन महीने में कमज़ोर पड़ने लगते हैं.

लेकिन, एक्सपर्ट्स का कहना है कि कोविड-19 के प्रति शरीर के रेस्पॉन्स में, सिर्फ एंटीबॉडीज़ ही नहीं होते.

अलाबामा यूनिवर्सिटी में पोस्ट-डॉक्टोरल स्कॉलर रहे इम्यूनॉलोजिस्ट, सुनील के नूती ने दिप्रिंट से कहा कि एंटीबॉडीज़ ही इम्यून सिस्टम का अकेला हिस्सा नहीं हैं, जो शरीर को इन्फेक्शन से बचाता है.

किसी भी तरह के पैथोजेन के ख़िलाफ, इम्यून रेस्पॉन्स कई परतों में होता है. इम्यून सिस्टम सेल्स बुनियादी रूप से, ल्यूकोसाइट्स या सफेद ब्लड सेल्स से बने होते हैं, जो हमारे शऱीर में घूमते रहते हैं, और संदिग्ध चीज़ों पर निगाह रखते हैं.

जैसे ही हम संक्रमित होते हैं, तो पहली क़िस्म का इम्यून सिस्टम, जो ‘स्वाभाविक’ होता है, सक्रिय हो जाता है. ये गैर-विशिष्ट होता है, इसलिए ये उसी तरह तमाम पैथोजंस से सुरक्षा करता है.

ये स्वाभाविक इम्यून रेस्पॉन्स, एडैप्टिव इम्यून रेस्पॉन्स को सक्रिय कर देता है, जो ख़ासकर हमारे शरीर को संक्रमित करने वाले पैथोजेन के हिसाब से होता है. ये एडैप्टिव इम्यून रेस्पॉन्स, टी-सेल्स और बी-सेल्स से बना होता है.

बी सेल्स एंटीबॉडीज़ या इम्यूनोग्लोबुलिन्स पैदा करते हैं, जो इन्फेक्शन से लड़कर ठीक होने में सहायता करते हैं.

टी-सेल्स और बी-सेल्स मेमोरी सेल्स भी पैदा करते हैं, जो एंटीजंस के बारे में जानकारी जमा रखते हैं. मेमोरी टी-सेल्स और मेमोरी बी-सेल्स कहे जाने वाले इन सेल्स को, पहली बार संक्रमण होने पर सक्रिय होने में कुछ दिन लगते हैं, लेकिन अगली बार पौथोजेन से टकराव होने पर, इनमें बहुत तेज़ और सक्षम प्रतिक्रिया होती हैं.

कोविड-19 के बारे में मेमोरी टी-सेल्स पर हुई ताज़ा रिसर्च से पता चलता है कि हर्ड इम्यूनिटी का लक्ष्य उससे नज़दीक हो सकता है, जितना अभी तक समझा जाता था.

इस महीने साइंस पत्रिका में छपी एक स्टडी से पता चला कि मेमोरी टी-सेल्स जो कॉमन कोल्ड कोरोनावायरस को पहचानते हैं, वो सार्स-सीओवी2 की मिलती-जुलती साइट्स को भी पहचानते हैं.

शोधकर्ताओं को पता चला कि सार्स-सीओवी-2 वायरस के कुछ प्रोटीन स्ट्रक्चर्स, कॉमन कोल्ड कोरोनावायरसों के प्रोटीन स्ट्रक्चर्स की तरह होते हैं. स्टडी में कहा गया कि जिन लोगों का, पहले कॉमन कोल्ड कोरोनावायरस से वास्ता पड़ चुका है, उनमें टी-सेल्स समानताओं को ‘देखकर’, नॉवल कोरोनावायरस के ख़िलाफ हमला कर सकते हैं. रिसर्च से समझ में आ सकता है कि कुछ लोगों में दूसरों के मुक़ाबले कोविड-19 का केस हल्का क्यों होता है.

ये स्टडी जो उसी ग्रुप की पिछली रिसर्च पर आधारित थी, पत्रिका में 25 जून को छपी थी और उसमें बताया गया था कि 40 से 60 प्रतिशत लोगों में, जिनका सार्स-सीओवी-2 से कभी वास्ता नहीं पड़ा था, टी-सेल्स मौजूद थे जो वायरस को पहचानते थे.

स्टडी के लेखकों के अनुसार ये नतीजे नीदरलैण्ड्स, जर्मनी, यूनाइटेड किंग्डम और सिंगापुर के लोगों में देखे गए थे.

चीनी और जर्मन शोधकर्ताओं द्वारा की गई एक दूसरी स्टडी में, जो इसी महीने ही छपी है से पता चला कि कोरोनावायरस से संबंधित कुछ क़िस्मों के एंटीबॉडीज़ 6 महीने तक रह सकते हैं. इस स्टडी में, जिसका पियर रिव्यू होना बाक़ी है, वूहान से मरीज़ों को शामिल किया गया था, जो महामारी से सबसे पहले प्रभावित होने वालों में थे.

शोधकर्ताओं ने 11 अगस्त को सेल पत्रिका में लिखा कि कोविड-19 के हल्के मामलों में भी, शरीर में मेमोरी टी-सेल्स के अंदर एक ज़बर्दस्त प्रतिक्रिया होती है, भले ही उसमें विशिष्ट वायरस के पता लगाने योग्य एंटीबॉडी रेस्पॉन्स न हों.

ये परिणाम आशाजनक हैं, न सिर्फ इसलिए कि इनसे पता चलता है कि कोरोनावायरस के शिकार हो चुके लोगों में, प्राकृतिक इम्यूनिटी लंबे समय तक रह सकती है, बल्कि इसलिए भी कि वैक्सीन्स- जो शरीर में ऐसे रेस्पॉन्स सक्रिय करती हैं- का असर लंबे समय तक रहता है.


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पहले ही, भारतीय शहरों में की गई कई सेरो-सर्वेलेंस स्टडीज में पता चला है कि आबादी के एक बड़े हिस्से में एंटीबॉडीज़ मौजूद हैं. जून के अंत और शुरू जुलाई में की गई, एक स्टडी के नतीजों के अनुसार, दिल्ली में हर चार में से एक व्यक्ति के अंदर, सार्स-सीओवी-2 के खिलाफ एंटीबॉडीज़ मौजूद थे, जबकि जुलाई से अगस्त के बीच पुणे में टेस्ट किए गए लोगों में, 50 प्रतिशत के अंदर एंटीबॉडीज़ मौजूद थे.

अशोका यूनिवर्सिटी में फिज़िक्स और बायोलॉजी के प्रोफेसर, गौतम मेनन ने दिप्रिंट से कहा ‘अगर आबादी का कुछ हिस्सा पहले ही इस बीमारी से ठीक हो चुका है, और दोबारा संक्रमण की इम्यूनिटी, पर्याप्त हद तक लंबी रहने वाली है, तो फिर हमें उन लोगों को टीके लगाने की ज़रूरत नहीं है, जो ये दिखा सकें कि वो इस बीमारी से गुज़र चुके हैं’.

उन्होंने आगे कहा, ‘फिलहाल, हम धीरे-धीरे समझ रहे हैं कि कोविड-19 के खिलाफ शरीर का इम्यून रेस्पॉन्स क्या है. लेकिन अभी भी और बहुत कुछ समझने की ज़रूरत है, जिसमें ये भी शामिल है कि इम्यून रेस्पॉन्स कितने लंबे समय तक रहता है.

(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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