बैंकों से संबंधित कोई अध्यादेश किसी निर्वाचित सरकार के लिए खतरे की घंटी बन जाए, इससे दिलचस्प साजिश की बात और क्या हो सकती है? लेकिन राष्ट्रपति ने एक पखवाड़े पहले जो ‘बैंकिंग रेगुलेशन (अमेंडमेंट)’ अध्यादेश 2020 लागू किया, उसके बारे में महाराष्ट्र की महा विकास अघाड़ी (एमवीए) सरकार के कई सहयोगियों का यही विचार है.
अब इसके लिए आप उद्धव ठाकरे के नेतृत्व में चल रही तीन दलों की गठबंधन सरकार की अंदरूनी कमजोरियों को भी जिम्मेदार ठहरा सकते हैं या विपक्ष के ‘मोदी-शाह फोबिया’ को भी. मामूली-से दिखते इस अध्यादेश ने एमवीए के सहयोगियों- शिवसेना, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) और कांग्रेस की नींद उड़ा दी है. वे इसमें ‘ऑपेरेशन कमल’ की दबे पांव आहट सुन रहे हैं, यानि इसे वे राज्यों में विपक्षी दलों की सरकारों को अस्थिर करने के लिए दलबदल को उकसाने की भाजपाई चाल मान रहे हैं.
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रघुराम राजन कांग्रेस से यही तो मांग कर रहे थे
अध्यादेश भाजपा को कितना सियासी फायदा पहुंचाएगी और इसको लेकर एमवीए की आशंकाएं कितनी जायज हैं, इन प्रश्नों पर विचार करने से पहले यह देखें कि नरेंद्र मोदी सरकार प्रशासनिक लिहाज से इस अध्यादेश से क्या हासिल करना चाहती है. अध्यादेश सहकारी बैंकों पर दोहरे नियंत्रण के कारण पैदा होने वाली समस्याओं को दूर करने के लिए लाया गया है. राज्य सरकारें सहकारी समितियों के रजिस्ट्रार के माध्यम से इन बैंकों में चुनाव और उनके प्रबंधकों पर नियंत्रण रखती है, जबकि रिजर्व बैंक इनके बैंकिंग संबंधी कामों को नियंत्रित करता है.
दरअसल, रघुराम राजन जब रिजर्व बैंक के गवर्नर थे, उन्होंने इस दोहरी व्यवस्था को दूर करने में मदद मांगने के लिए महाराष्ट्र के तत्कालीन मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चह्वाण से मुलाकात की थी. चह्वाण भी इन सहकारी बैंकों पर चाबुक चलाना चाहते थे लेकिन वे अपने हाथ बंधे हुए महसूस करते थे क्योंकि उनकी गठबंधन सरकार की सहयोगी एनसीपी के नेता और खुद उनकी कांग्रेस पार्टी के साथियों का भी इन बैंकों में बहुत कुछ दांव पर लगा था.
अर्थशास्त्री इला पटनायक ने ‘दिप्रिंट’ में अपने स्तंभ में स्पष्ट किया है कि इस दोहरी व्यवस्था का मतलब है कि सहकारी बैंक का प्रबंधन अगर अक्षम है या उसे खोखला कर रहा है तो भी रिजर्व बैंक कुछ नहीं कर सकता.
लेकिन यह अध्यादेश रिजर्व बैंक को यह अधिकार दे रहा है कि वह इन बैंकों के प्रबंधन को बर्खास्त करने के लिए सहकारिता रजिस्ट्रार के फैसले को पलट सकता है, सहकारी समितियों को भंग या उनका विलय कर सकता है. मोदी सरकार के अध्यादेश ने एक झटके में उन नेताओं के मन में दहशत पैदा कर दी है, जो इन सहकारी बैंकों के प्रबंधन पर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष नियंत्रण के जरिए इनके ग्राहकों के पैसों के बल पर अपना राजनीतिक या वित्तीय मतलब सीधा करते रहे हैं.
तब, महाराष्ट्र की एमवीए सरकार इसको लेकर परेशान क्यों है? इस गठबंधन के किसी सहयोगी ने खुल कर कोई आशंका नहीं जाहिर की है लेकिन एमवीए के अंदर गहरी खलबली मची हुई है.
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अध्यादेश या ‘ऑपरेशन कमल’ की आहट ?
अगर आप केंद्रीय बैंक की स्वायत्तता में गंभीरता से विश्वास नहीं करते तो यह कहा जा सकता है कि सहकारी बैंकों पर रिजर्व बैंक की निगरानी केंद्र सरकार को महाराष्ट्र में भारी बढ़त दिलाएगी. उसे प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) जैसी केंद्रीय जांच एजेंसियों पर निर्भर रहने की जरूरत नहीं रह जाएगी, जिसने एनसीपी नेता शरद पवार, उनके भतीजे अजित पवार और अन्य लोगों के खिलाफ कथित महाराष्ट्र राज्य सहकारी बैंक घोटाले में काले धन को सफेद करने का मुकदमा विधानसभा चुनाव से ठीक पहले दायर किया था. उस समय इस पर खूब शोर मचा था और पवार ने इसे बड़ी चतुराई से मराठा अस्मिता पर हमले का मामला बता दिया था.
भाजपा 27 जून को जारी इस अध्यादेश का दो तरह से फायदा उठा सकती है.
पहला यह कि रिजर्व बैंक सहकारी बैंकों का राजनीतिक और वित्तीय लाभ उठाने पर रोक लगा सकता है. इसे एक उदाहरण से समझने की कोशिश करते हैं. हालांकि शिवसेना को महाराष्ट्र में सहकारिता क्षेत्र की संगठित लूट में शामिल नहीं माना जाता है लेकिन मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे अपने सहयोगियों को इस लूट की छूट देने को तैयार दिखते हैं. पृथ्वीराज चह्वाण सरकार ने उस प्रथा को बंद करवाया था जिसके तहत सहकारी बैंकों द्वारा दिए जाने वाले कर्ज़ में राज्य सरकार को गारंटर बनाया जाता था. देवेंद्र फडणवीस सरकार ने भी इस नीति को जारी रखा था. लेकिन, एमवीए के अंदरूनी सूत्र बताते हैं कि उद्धव सरकार ने इसे उलट दिया है. राज्य सरकार शोलापुर और पुणे में एनसीपी और कांग्रेस के एक-एक विधायक के संरक्षण वाली चीनी मिलों को दिए गए 80 करोड़ रुपये के कर्ज़ की गारंटर बन गई है. अब दिल्ली में बैठे राजनीतिक आका चाहें, तो अधिकार-प्राप्त रिजर्व बैंक उस सहकारी बैंक के प्रबंधकों, उन दोनों विधायकों और एमवीए सरकार का जीना दूभर कर सकता है. 1960 के दशक से सहकारी बैंक महाराष्ट्र की राजनीति में क्या भूमिका निभाते रहे हैं, इसकी यह तो बस एक छोटी-सी मिसाल है.
दूसरे, अगर रिजर्व बैंक कुछ ज्यादा सक्रिय हो जाए तो सहकारी बैंकों के कई घोटाले सामने आ सकते हैं और इसके बाद एनसीपी और कांग्रेस के कई नेताओं पर मुसीबतें टूट सकती हैं. ईडी ने जब पवार के खिलाफ मामला दर्ज किया और पवार ने उसके दफ्तर में आकर उसके सवालों के जवाब देने की धमकी दी तो वह सकते में पड़ गया. अपने ऊंचे राजनीतिक कद के बूते पवार तो ईडी की आंखों में आंखें डालकर बात कर सकते हैं और उसे अपने कदम पीछे खींचने पर मजबूर कर सकते हैं लेकिन रिजर्व बैंक पीछे पड़ गया तो छुटभैये नेताओं का तो बुरा हाल हो जाएगा.
महाराष्ट्र विधानसभा के पिछले साल हुए चुनाव से पहले एनसीपी और कांग्रेस के करीब 20 विधायक भाजपा में शामिल हो गए थे, जिनमें से कई तो सहकारी बैंकों में काफी दखल रखते हैं और कई तो कोल्हापुर में चीनी मिलों के मालिक हैं. इन सबने भाजपा को अपनी सेवाएं सौंप दी थीं. उस समय केवल जांच एजेंसियां ही सक्रिय हुई थीं, रिजर्व बैंक अभी पर्याप्त अधिकारों के अभाव में निष्प्रभावी था.
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एमवीए की कमजोरियां
अब महाविकास अघाड़ी (एमवीए) सरकार में वैचारिक मतभेद के बिना भी दरारें उभरने लगी हैं, तो जाहिर है कि भाजपा की बांछें खिल उठी होंगी. सरकार में प्रशासन संबंधी मतभेदों को सुलझाने के लिए जब एमवीए के जनक शरद पवार उद्धव ठाकरे के साथ बैठकें करते नज़र आते हैं तो इससे मुख्यमंत्री की कोई बेहतर छवि नहीं उभरती.
कांग्रेसी मंत्री तालमेल की कमी की बातें खुल कर कह रहे हैं. यह भी कोई रहस्य नहीं है कि वहां शिवसेना से हाथ मिलाने के फैसले के कारण राहुल गांधी अपनी पार्टी के वरिष्ठ नेताओं से खुश नहीं हैं. लेकिन राहुल के किसी कदम से राज्य में चुनाव की नौबत आती है, तो उनके कई विधायक पाला बदल सकते हैं. ऐसे अधिकतर बागी वैचारिक अनुकूलता के कारण एनसीपी के तंबू में ज्यादा सहज महसूस कर सकते हैं. लेकिन पवार पैसे की ताकत को कम आंकने की गलती नहीं कर सकते. हाल में इसकी ताकत कई राज्यों में दिख चुकी है, मध्य प्रदेश सबसे ताज़ा उदाहरण है. इसके अलावा, पवार को अपने भतीजे की महत्वाकांक्षाओं और बढ़ती अधीरता का भी पूरा एहसास है.
सहकारी बैंकों से संबंधित अध्यादेश इसी पृष्ठभूमि के मद्देनज़र लाया गया है और उम्मीद है कि इसका असर जल्दी ही नज़र आएगा.
(व्यक्त विचार निजी हैं)
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