लखनऊ: कोरोना महामारी के चलते लागू हुए लॉकडाउन का असर जहां एक ओर व्यापार पर पड़ा है तो वहीं दूसरी ओर लोगों का जायका भी इससे प्रभावित हुआ है. देश-दुनिया में मशहूर लखनऊ के टुंडे कबाबी को इस कारण अपनी सिग्नेचर डिश ही बदलनी पड़ गई है. लॉकडाउन के कारण लगभग 80 दिनों तक बंद रही लखनऊ की ये मशहूर दुकान जब खुली तो इसके कबाब का स्वाद भी बदल चुका है.
दरअसल लॉकडाउन लागू होने के बाद से स्लॉटर हाउस बंद हो गए हैं जिससे बड़े (भैंस) का मीट मिलना बंद हो गया है. इस कारण 115 साल पुराना टुंडे कबाबी का ‘मशहूर गलावटी कबाब’ अब केवल मुर्गे और बकरे के मीट से बन रहा है.
भैंसे के मीट को स्थानीय तौर पर ‘बड़े का मीट’ कहा जाता है. लेकिन 25 मार्च को कोविड के कारण लगे लॉकडाउन के बाद बूचड़खानों के बंद होने से ये उपलब्ध नहीं हो पा रहा है.
लखनऊ के चौक इलाके में स्थित टुंडे कबाबी की सबसे पुरानी दुकान के मालिक मोहम्मद रिजवान ने दिप्रिंट को बताया कि ‘बड़े का मीट’ न मिलने के कारण मजबूरन हमें चिकन और मटन के कबाब बेचने पड़ रहे हैं.
उनके मुताबिक, ‘हमारे कई पुराने ग्राहक ‘मशहूर गलावटी कबाब’ की डिमांड कर रहे हैं लेकिन उन्हें चिकन और मटन के ही कबाब हम ऑफर कर पा रहे हैं. अब भैंसे का मीट लखनऊ में कब से उपलब्ध होगा ये तो तय नहीं है’.
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80-85% तक घट गई सेल
रिज़वान बताते हैं कि बड़े का मीट उपलब्ध न होने के कारण हमारी 80-85% सेल कम हो गई है.
उन्होंने कहा, ‘एक तरफ कोरोना का डर दूसरी ओर अब केवल टेक-अवे (घर ले जाने) का ऑप्शन ही है. वहीं इन दोनों कारणों के अलावा बड़े का यानि भैंस के मांस का कबाब नहीं बेच पा रहे हैं जिसकी ग्राहक सबसे ज्यादा डिमांड करते हैं’.
रिज़वान बताते हैं, ‘इस कबाब को लखनऊ में गलावटी कबाब भी कहा जाता है. गलावटी कहने का अहम कारण ये है कि यह मुंह में जल्दी ही घुल जाता है.’
रिजवान ने कहा कि गलावटी कबाब के बिना दुकान चलाना ठीक वैसे ही है जैसे कि हाथ के बिना शरीर.
रिजवान बताते हैं कि चिकन कबाब बनाने में वो रेसेपी गलावटी वाली ही इस्तेमाल करते हैं लेकिन फिर भी स्वाद में वैसी बात नहीं होती. उनका कहना है कि वह अपनी रेसेपी किसी से साझा नहीं करते. न ही आज तक कोई इसे कॉपी कर पाया है.
लखनऊ में टुंडे कबाबी के पांच ब्रांच हैं जिसमें सबसे पुरान चौक इलाके में स्थित है.
टुंडे कबाबी के अन्य ब्रांच के ओनर मोहम्मद उस्मान और रिजवान के भाई बताते हैं कि इस बीच कबाब के दाम भी बढ़ गए हैं.
उन्होंने कहा, ‘पहले कबाब की एक टिक्की 3 रुपये की मिलती थी, जो कि अब 6 रुपये में बिक रही है. वजह साफ है, लॉकडाउन से पहले चिकन 170-180 रुपये किलो मिलता था. अनलॉक में बड़ा तो मिल ही नहीं रहा, चिकन 240 रुपये/ किलो है. बकरे के मीट का भाव तो 750-800 रुपये/ किलो है’.
उस्मान बताते हैं कि ये भी 115 साल के इतिहास में पहली बार हुआ है कि लगभग 3 महीने तक टुंडे कबाबी की दुकान बंद रही.
उस्मान के मुताबिक, लखनऊ में गलावटी कबाब की शुरुआत 115 साल पहले उनके हाजी मुराद अली उर्फ टुंडे मियां ने की थी. उन्हीं के नाम पर इसे ‘टुंडे’ कबाबी कहा गया.
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‘मजबूरी के कबाब’
लखनऊ चौक के रहने वाले देवेंद्र कुमार कहते हैं कि असल लखनवी कबाब का मतलब गलावटी कबाब ही है.
उन्होंने कहा, ‘अब लॉकडाउन से सब अनलॉक की ओर हैं ऐसे में कबाब खाने का मन भी करता है जो कि पिछले 3 महीने से नहीं खा पाए लेकिन अभी असली कबाब नहीं मिल रहा. हमारे दोस्त तो चिकन व मटन के कबाब को ‘मजबूरी का कबाब’ कहते हैं’.
हुसैनगंज के मोहम्मद इमरान का कहना है कि लॉकडाउन में लगातार घर का खाना खाते हुए जब वह ऊबे तो एक दिन टुंडे कबाबी के यहां पहुंचे लेकिन पता चला कि ‘असली कबाब’ तो उपलब्ध ही नहीं, तो निराशा हुई.
उन्होंने कहा, ‘जो चिकन कबाब को मजबूरी का कबाब बता रहे हैं मैं उनसे सहमत हूं’.
But i like to eat kabab from Tunday kababi