नई दिल्ली: कोविड-19 से उबर रहे दिल्ली के स्वास्थ्य मंत्री सत्येंद्र जैन को पिछले हफ्ते कॉनवेल्सेंट प्लाज्मा थेरेपी (सीपीटी) दी गई- इस प्रक्रिया को भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) अभी भी ‘प्रयोगात्मक’ रूप में वर्गीकृत करता है.
कोई भी अस्पताल या डॉक्टर किसी मरीज पर इसका प्रयोग, परीक्षण के उद्देश्य से और अस्पताल की आचार समिति की मंजूरी के साथ स्पष्ट रूप से कर सकता है.
यही कारण है कि आईसीएमआर के 12 अप्रैल के प्रोटोकॉल दस्तावेज़ में शब्द थेरेपी का जिक्र नहीं है, जिसने ‘कोविड-19 एसोसिएटेड कॉम्प्लीकेशंस को सीमित करने के लिए प्लाज्मा की सुरक्षा और प्रभावकारिता का आकलन करने के लिए’ दूसरे चरण, ओपन लेबल, यादृच्छिक नियंत्रित अध्ययन शुरू किया है.
जैन का मैक्स हेल्थकेयर, साकेत में इलाज चल रहा है. अस्पताल ने उन परिस्थितियों को साझा करने से इंकार कर दिया, जिनके तहत सीपीटी को उन्हें देने का निर्णय लिया गया था.
सीपीटी- प्रयोग के तौर पर
एक यादृच्छिक नियंत्रित अध्ययन रोगियों में एक दवा या हस्तक्षेप के प्रभाव की तुलना करता है जिन्हें यह नहीं दी गई है ताकि पता चल सके कि उस हस्तक्षेप से कोई महत्वपूर्ण लाभ हुए हैं या नहीं. यह नैदानिक परीक्षणों के मानक तरीकों में से एक है.
दूसरे चरण का परीक्षण, जिसमें बड़ी संख्या में प्रतिभागी होते हैं, तब होता है जब किसी विशेष चिकित्सीय विकल्प की सुरक्षा और प्रभावकारिता पहले से ही रोगियों के छोटे समूहों में इसके उपयोग द्वारा स्थापित की गई हो.
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सीपीटी के जरिए पहले ठीक हो चुके मरीज का रक्त प्लाज्मा बीमार मरीज को दिया जाता है ताकि ठीक हो चुके मरीज के रक्त में मौजूद एंटीबॉडी उसमें ट्रांसफर हो सके. प्लाज्मा वह मैट्रिक्स है जिस पर रक्त कोशिकाएं तैरती हैं.
इबोला जैसी बीमारी में भी सीपीटी का इस्तेमाल किया जा चुका है.
प्रोटोकॉल
आईसीएमआर के प्रोटोकॉल के अनुसार, सीपीटी का उपयोग ‘अस्पताल में भर्ती कोविड रोगियों और भारत में कोविड-19 प्रबंधन सुविधाओं में देखभाल के लिए भर्ती कराए मरीजों पर ही किया जाए’. अध्ययन के डिजाइन के अनुसार जांचकर्ताओं द्वारा समावेश और बहिष्करण मानदंड निर्धारित किया जाएगा.
आईसीएमआर के परीक्षण का उद्देश्य, कोविड-19 रोगियों की नैदानिक स्थिति में सुधार लाने और रोगियों में एंटी सार्स-कोव-2 प्लाज्मा के साथ उपचार की सुरक्षा का मूल्यांकन करने के लिए सीपीटी की प्रभावकारिता का आकलन करना है.
विज्ञान
सीपीटी निष्क्रिय प्रतिरक्षा की अवधारणा पर आधारित है, उस समय से जब घोड़ों में डिप्थीरिया जैसी बीमारियों के लिए एंटीबॉडी विकसित की गई और मनुष्यों में इसे इंजेक्ट किया गया.
गाइटन एंड हॉल द्वारा मेडिकल फिजियोलॉजी की पाठ्यपुस्तक के अनुसार, किसी भी एंटीजन के बिना व्यक्ति में अस्थायी प्रतिरक्षा विकसित की जा सकती है. यह एंटीबॉडीज, सक्रिय टी कोशिकाओं या किसी और के रक्त से प्राप्त दोनों या किसी अन्य जानवर से किया जाता है जिसे इन एंटीजन के खिलाफ सक्रिय रूप से प्रतिरक्षित किया गया है.
‘ये एंटीबॉडीज दो-तीन सप्ताह तक रहते हैं और उस समय के दौरान, व्यक्ति को हमलावर बीमारी से बचाया जाता है. सक्रिय टी कोशिकाएं कुछ हफ़्ते तक रहती हैं यदि किसी व्यक्ति से ट्रांसफ़्यूज़ की जाती हैं और कुछ घंटों से कुछ दिनों के लिए रहती हैं अगर किसी जानवर से ट्रांसफ़्यूज़ की जाती है. प्रतिरोधक क्षमता प्रदान करने के लिए एंटीबॉडी या लिम्फोसाइटों के इस तरह के ट्रांसफ्यूजन को निष्क्रिय प्रतिरक्षा कहा जाता है.’
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टी-कोशिकाएं रक्त कोशिकाएं होती हैं जिनकी प्रतिरक्षा में महत्वपूर्ण भूमिका होती है.
दाता और प्राप्तकर्ता के प्लाज्मा का ‘मिलान’ पूरे रक्त ट्रांसफ्यूजन के लिए किए गए मिलान के समान होता है. यह इस बात पर आधारित है कि क्या प्लाज्मा में किसी विशेष रक्त समूह का एंटीबॉडी मौजूद है- इसलिए रक्त समूह ए जिसमें प्लाज्मा में एंटीबॉडी बी है, वह दाता से प्लाज्मा प्राप्त नहीं कर सकता है जिसका रक्त समूह बी है. लेकिन रक्त समूह ए या एबी से व्यक्ति इसे प्राप्त कर सकता है. इसका कारण यह है कि बी एंटीबॉडी बी समूह के रक्त की लाल कोशिकाओं में मौजूद बी एंटीजन के साथ प्रतिक्रिया करेगा. एबी रक्त समूह में, हालांकि, न तो ए और न ही बी एंटीबॉडी है, इसलिए प्लाज्मा थेरेपी के लिए, यह सार्वभौमिक दाता होता है.
वैज्ञानिक साहित्य
जर्नल वाइरसेस में एक अध्ययन से पता चलता है कि सीपीटी केवल तभी काम कर सकता है जब दाता हाल ही में सार्स-कोव-2 संक्रमण से उबर गया हो.
अमेरिकी खाद्य एवं औषधि प्रशासन ने कोविड के खिलाफ कॉनवेल्सेंट-प्लाज्मा के उपयोग के बारे में निर्देश जारी किया है.
अमेरिका स्थित प्रोसीडिंग्स ऑफ द नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज में एक अप्रैल के अध्ययन में, चीनी शोधकर्ताओं ने 10 रोगियों में एक सीपीटी चिकित्सा के प्रयोगात्मक तौर पर इस्तेमाल करने के बारे में बताया. उन्होंने बताया, ’10 रोगी जिनमें, विशेष रूप से बुखार, खांसी, सांस की तकलीफ और सीने में दर्द की समस्या थी, उसमें सीपी ट्रांसफ्यूजन के बाद 1 से 3 दिन के भीतर सुधार आने लगा. सीपी उपचार से पहले, तीन रोगियों को यांत्रिक वेंटिलेशन दिया गया, तीन को उच्च-प्रवाह नाक प्रवेशनी ऑक्सीकरण दिया गया और दो को पारंपरिक निम्न-प्रवाह नाक प्रवेशनी ऑक्सीकरण दिया गया.’
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‘सीपी से इलाज के बाद, दो रोगियों को यांत्रिक वेंटिलेशन से उच्च-प्रवाह नाक प्रवेशनी में रखा गया और एक रोगी को उच्च-प्रवाह नाक प्रवेशनी से हटा दिया गया. इसके अलावा, पारंपरिक नाक प्रवेशनी ऑक्सीकरण के साथ इलाज किए गए एक रोगी में, निरंतर ऑक्सीजन को आंतरायिक ऑक्सीजन में स्थानांतरित कर दिया गया था.’ उन्होंने कोई प्रतिकूल घटना नहीं होने की सूचना दी.
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