भारतीय प्रशासनिक सेवा (आईएएस) सभी राजनेताओं- प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से लेकर वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तक- के लिए हमेशा एक सुविधाजनक पंचिंग बैग बनी रही है. फिर भी आज संपूर्ण भारत में कोरोनोवायरस महामारी के खिलाफ छिड़ी लड़ाई में इस सेवा के अधिकारी हीं प्रतिरोध की पहली पंक्ति बन कर उभरे हैं.
ये आईएएस अधिकारी खबरों में कहीं भी नहीं हैं, यह उनका काम माना भी नहीं जाता है. इस अभूतपूर्व सार्वजनिक स्वास्थ्य संकट से निपटने के लिए वे निरंतर पर्दे के पीछे काम में व्यस्त हैं जबकि उनके राजनीतिक बॉस अंताक्षरी खेल रहे हैं या फिर भव्य वैवाहिक समारोहों में भाग ले रहें हैं.
कोरोनोवायरस के खिलाफ जंग की पहली पंक्ति के योद्धा
एक और जहां प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रधान सचिव पीके मिश्रा, केंद्रीय स्वास्थ्य सचिव प्रीति सूदन की सहायता से राज्यों के स्वास्थ्य सचिवों से दिन भर बात करते रहते हैं वहीं कई सारे राज्यों में फैले हुए गुमनाम नायक भी इस लड़ाई के अहम योद्धा हैं.
उदाहरण के तौर पर, महाराष्ट्र में राज्य के स्वास्थ्य मंत्री राजेश टोपे की सहायता से मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे ने इस कोरोनोवायरस संकट से निपटने में जिस दक्षता और समर्पण के साथ प्रयास किए हैं उसने उनके राजनीतिक विरोधियों को भी चौंका सा दिया है.
हालांकि, महाराष्ट्र प्रशासन के जानकार लोगों का कहना है कि राजनीतिक नेतृत्व की इस सफलता का असल श्रेय राज्य के मुख्य सचिव अजॉय मेहता द्वारा प्रशासनिक प्रतिक्रिया तंत्र के कुशल नेतृत्व को जाता है. संयोगवश, देवेंद्र फडणवीस के शासनकाल के दौरान मेहता को दिया गया छह महीने का सेवा विस्तार मार्च 2020 में समाप्त हो रहा है और अब ठाकरे सरकार ने अपने मुख्य सचिव को एक और सेवा विस्तार प्रदान करने के लिए केंद्र को लिखा है.
राजस्थान में, अतिरिक्त मुख्य सचिव (चिकित्सा स्वास्थ्य और परिवार कल्याण) रोहित कुमार सिंह कोरोनोवायरस के खिलाफ अशोक गहलोत सरकार की लड़ाई में सबसे अग्रणी भूमिका में हैं. वहीं ओडिशा में यह कार्य मुख्यमंत्री नवीन पटनायक के निजी सचिव वीके पांडियन के ज़िम्मे है. ओडिशा देश का पहला राज्य है जिसने मार्च में विदेश से आए लोगों के भौगोलिक प्रसार के विश्लेषण के बाद लगभग 40 प्रतिशत क्षेत्र में लॉकडाउन आरम्भ कर दिया था.
पंजाब में, यह काम सुरेश कुमार, एक सेवानिवृत्त आईएएस अधिकारी जिन्हें मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह के विशेष प्रधान सचिव के रूप में नियुक्त किया गया था, की देख रेख में हो रहा है. कर्नाटक में, तीन अलग-अलग वॉर रूमों के प्रभारी के रूप में तीन भिन्न आईएएस अधिकारी- कार्मिक और प्रशासनिक सुधार सचिव मुनीश मौदगिल, श्रम सचिव पी. मणिवन्नन और वृहत बेंगलुरु महानगर पालिका आयुक्त एचएच अनिल कुमार- पूरी क्षमता से इस लड़ाई का नेतृत्व कर रहे हैं.
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार, जो पूर्व में ‘सुशासन बाबू कहे जाते रहें हैं’, ने कोविड-19 के खतरे के प्रति सजग होने में काफ़ी देर कर दी थी. लेकिन अब उन्होंने इस वायरस को और अधिक फैलने से रोकने के प्रयास में कई वरिष्ठ आईएएस अधिकारियों की एक टीम का गठन किया गया है, ताकि इस वायरस के ख़तरनाक फैलाव से उत्पन्न असंतोष राज्य में अक्टूबर-नवंबर में होने वाले विधानसभा चुनाव में उनकी संभावनाएं ना खराब कर दे.
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कई अन्य राज्यों में भी कहानी ऐसी हीं है, जहां सचिव से लेकर जिला मजिस्ट्रेट स्तर तक के आईएएस अधिकारी, अपने-अपने मुख्यमंत्रियों के शक्ति-स्तम्भ के रूप में उभरने के लिए दिन रात जुटे हुए हैं. केंद्र में भी प्रधानमंत्री मोदी इन्हीं अधिकरियों पर भरोसा कर रहें हैं क्योंकि इन सब राजनेताओं को मालूम है कि इस लड़ाई में वे सरकार में शामिल उन मंत्रियों पर निर्भर नहीं रह सकते जिनका चयन राजनीतिक मजबूरियों से तय हुआ था, न कि उनकी प्रशासनिक दक्षता के कारण. इसी कारण इस तथ्य में कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण को पिछले मंगलवार 1 लाख सत्तर हज़ार करोड़ रुपये की आर्थिक सहायता की घोषणा से बमुश्किल 4 घंटे पहले और प्रधानमंत्री की घोषणा के लगभग एक सप्ताह बाद- तक उनके हीं नेतृत्व में गठित टास्क फोर्स की रचना के बारे में कोई खास जानकारी नहीं थी. इसलिए बहुत से लोग तब भी आश्चर्यचकित नहीं हुए जब उन्होंने बार-बार पूछे जाने पर भी यह बताने से इनकार कर दिया कि इस पैकेज में लगने वाली राशि आएगी कहां से.
केंद्र में भी एक ओर जहां अधिकांश मंत्री पीएम मोदी के हर शब्द और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के कार्यों को ट्वीट और रीट्वीट करने में समय बिता रहें हैं वहीं दूसरी ओर तमाम नौकरशाह इस कोरोनावायरस के प्रसार को रोकने की कोशिश में भरपूर पसीना बहा रहें हैं. हालांकि ऐसा भी नहीं है कि ये मंत्री भारत में वायरस का यह महासंकट आने से पहले बहुत अच्छा काम कर रहे थे. शायद ही आपको याद हो कि पिछली बार कब आपने दूरसंचार मंत्री रविशंकर प्रसाद को दूरसंचार क्षेत्र में आए एजीआर संकट के बारे में अथवा बीएसएनएल और एमटीएनएल के हज़ारों उपभोक्ताओं द्वारा सेवा बाधित होने से संबंधित पीड़ा के बारे में बात करते सुना है?
जिस वक्त भारत के राजमार्गों पर हजारों प्रवासी दैनिक मजदूरों और कारीगरों के पलायन और नंगे पांव सैकड़ों किलोमीटर की दूरी तय करने और घर पहुंचने की जद्दोजहद का नजारा सर्वव्यापी है, वैसे में आप ज़रा केंद्रीय श्रम मंत्री के नाम को याद करने की कोशिश कीजिए. यदि आपको यह याद हो तो आप स्मृति-विज्ञान (मेनेमिक्स) की डिग्री के हकदार हो सकते हैं!
इन महाशय का नाम है संतोष कुमार गंगवार जो राज्य मंत्री (स्वतंत्र प्रभार), श्रम और रोजगार मंत्रालय हैं. वैसे, पिछले हफ्ते, उन्होंने सभी राज्यों को निर्माण श्रमिकों के खातों में धन हस्तांतरित करने के लिए एक एडवाइज़िरी जारी की थी. उन्होंने न इससे कुछ ज्यादा किया है, न कुछ कम.
आईएएस अधिकारियों की जोरदार वापसी
जब नरेंद्र मोदी ने मई 2014 में देश की बागडोर संभाली थी तो आईएएस अधिकारी काफी हद तक प्रसन्न थे. यूपीए-2 सरकार के उत्तरार्ध काल के दौरान फैले नीतिगत पक्षाघात से वे भी कम दुखी नहीं थे. उनका उत्साह उस समय और हिलोरें मारने लगा जब उन्होंने प्रधानमंत्री कार्यालय (पीएमओ) को सीधे उन्हें फोन करते हुए और मंत्रियों ने बिना ज़्यादा नानुकुर किए फाइलों पर हस्ताक्षर करते हुए देखा.
पीएम मोदी के मंत्रियों की टीम में बड़े पैमाने पर प्रतिभा की कमी को देखते हुए कई अन्य अधिकारियों (जिनमें मेरा नाम भी शुमार था) को लगा कि यह एक अच्छा कदम है. पर यह स्वपनिल दौर काफ़ी कम अंतराल वाला था. नौकरशाही ने जल्द ही भांप लिया कि नई सरकार को प्रतिभा से ज़्यादा वफादारी की चाह है.
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नेहरू जी के समय में मामला कुछ अलग हीं था. जैसा कि रामचंद्र गुहा अपनी किताब गांधी के बाद भारत में लिखते हैं- एक समय था जब नेहरू जी के मन में ‘नौकरशाही के प्रति तिरस्कार’ के अलावा और कोई भावना ही नही थी. उन्होंने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि भारत में उच्च स्तरीय सेवाओं, विशेष रूप से भारतीय सिविल सेवा, में निरंतर पतन- नैतिक और बौद्धिक दोनों स्तर पर- से अधिक चौंकाने वाली कोई बात हीं नहीं है.
लेकिन ये विचार भारत की आजादी से लगभग 12 साल पहले के थे जब ये सेवाएं स्वतंत्रता सेनानियों को जेलों में डालने में सहायक थीं. जैसा कि गुहा आगे बताते हैं, उपरोक्त कथन को लिखने के करीब 16 साल बाद उन्हीं, नेहरू ने एक नौकरशाह, तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त सुकुमार सेन जो एक आईसीएस अधिकारी थे, को स्वतंत्र भारत में पहला चुनाव- जिसमें ज्यादातर मतदाता अनपढ़ थे- संपन्न कराने जैसे विशाल कार्य की ज़िम्मेदारी सौंपी. भारत के पहले प्रधानमंत्री के विचारों को इस महती सफलता के बाद बदलना हीं पड़ा.
पुनर्विचार का समय
हालांकि, नरेंद्र मोदी सरकार ने आईएएस सेवाओं की महत्ता को करने के कई प्रयास किए और एक-एक करके इसके कई विशिष्ट अधिकारों और विशेषाधिकारों को छीन लिया. सबसे पहले, केंद्र में संयुक्त सचिव स्तर पर नौकरशाहों के मनोनयन और उनकी पदोन्नति के लिए 360-डिग्री (सर्वांगीन) मूल्यांकन प्रणाली की शुरुआत की गई.
उनकी वार्षिक गोपनीय रिपोर्ट (एनुअल कॉन्फिडेनशिएल रिपोर्ट- एसीआर) अब इस सबमें मुख्य कारक नहीं थी. इसकी जगह किसी भी नौकरशाह के मामले में उसके वरिष्ठों, सहकर्मियों, कनिष्ठों और यहां तक कि सेवा से बाहर के लोगों (खास तौर पर) से प्राप्त फीडबैक ज़्यादा मायने रखते थे ताकि किसी भी पद के उम्मीदवार के राजनीतिक झुकाव और उसकी वफादारी का निर्धारण किया जा सके.
बाद के महीनों और वर्षों में, आईएएस बिरादरी ने कई और आशंका पैदा करने वाले संकेत देखे जैसे कि- संयुक्त सचिव के रूप में सरकार में पेशेवरों की लैटरल एंट्री, भर्ती के नियमों को बदलने के प्रयास, वरिष्ठ नौकरशाहों द्वारा मजबूरन इस्तीफा, वरिष्ठ अधिकारियों के साथ मंत्रियों द्वारा दुर्व्यवहार, आदि. आईएएस अधिकारियों के लिए यह भी कोई सांत्वना देने वाली बात नहीं थी कि भारतीय पुलिस सेवा या अन्य सिविल सेवाओं के अधिकारियों को भी इसी प्रकार का सामना करना पड़ रहा था.
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शायद यही कारण है कि कई आईएएस अधिकारी प्रतिनियुक्ति पर दिल्ली आने के लिए कतई उत्सुक नहीं हैं. इनमें से कई ने किसी ना किसी बहाने अपने गृह कैडरों में वापसी की इच्छा व्यक्त की और कई वापस भी जा चुके हैं.
इस पृष्ठभूमि में यह महत्वपूर्ण है कि कोरोनावायरस संकट ने भारत के व्यवस्था तंत्र में स्टील फ्रेम माने जाने वाले आईएएस अधिकारियों की ताकत और प्रासंगिकता को फिर से सत्यापित किया है. हर उस एक आईएएस अधिकारी जिसने केरल में आदेशों का उल्लंघन कर के सुर्खियां बटोरी, की तुलना में ऐसे हजारों अधिकारीगण हैं जो अपने कार्यालयों में दिन-रात काम कर रहे हैं और आम लोगों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए अपनी जान जोखिम में डाल रहे हैं. नोवेल कोरोनावायरस रूपी इस शत्रु को पूरी तरह पराजित करने के बाद, हो सकता है मोदी सरकार इस प्रतिबद्ध नौकरशाही के प्रति अपनी समझ और परिभाषा पर फिर से विचार करना पसंद करे.
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This is more of a rant against the Govt than a praise for officers. Officers always work under the directions of Political executive. Sad that some are still taking cheap potshots even in these trying times.