वुडरो विल्सन से लेकर हेनरी किसिंजर तक बहुतों के नाम से प्रसारित एक प्रसिद्ध उक्ति में ये कहा जाता था कि दांव पर ज़्यादा कुछ नहीं होने के कारण ही शैक्षणिक दुनिया की राजनीति इतनी विद्वेषपूर्ण होती है. पर अचानक ये कथन भारतीय राजनीति पर सटीक बैठने लगा है. किसने सोचा होगा कि राज्य सभा की कुछेक सीटों को लेकर कांग्रेस पार्टी में इतना घमासान मचेगा?
बीते जमाने के श्रद्धानवत नेताओं से घिर राहुल गांधी को शायद इस बात का अहसास नहीं हुआ हो कि समय हाथ से निकल चुका है. परिवर्तन ही एकमात्र स्थाई नियम है इसलिए देर से ही सही परिवर्तन के अनुरूप खुद को ढालना ही शायद एकमात्र विकल्प है. बात जीवन की सबसे बड़ी परीक्षा की है- पार्टी के भीतर की चुनौतियों की. यदि टिप्पणीकारों की मानें तो पीढ़ियों का संघर्ष, सोनिया गांधी और अहमद पटेल बनाम राहुल गांधी के नेतृत्व में कथित युवा नेताओं का संघर्ष. वैसे इस तरह देखना अधिक सही होगा- नेहरू-गांधी परिवार बनाम कथित नए प्रतिभावान नेताओं का, जो कुछ मामलों में धैर्य से अपनी बारी आने का इंतजार कर रहे हैं तो कुछ अन्य मामलों में अधीर होकर फूट पड़ रहे हैं.
सोनिया की इंदिरा से तुलना
जयराम रमेश की किताब इंटरवाइंड लाइव्स: पीएन हक्सर एंड इंदिरा गांधी को पढ़ने से मामले को समझने में मदद मिलती है. किताब में इस बात का भी उल्लेख है कि बीते दिनों में निरंतर उठती और कई बार बेकाबू दिखती समस्याओं को कैसे कुशलता और अक्सर शालीनता से सुलझाया जाता था. प्रधानमंत्री के रूप में इंदिरा गांधी के शुरुआती वर्षों की तुलना कांग्रेस प्रमुख के रूप में सोनिया गांधी और सीमित अवधि के लिए राहुल के पिछले दो दशकों के कार्यकाल से किए जाने को संभव है एक गैर-ईमानदार प्रयास के रूप में देखा जाए. लेकिन जहां तक इंदिरा की बात है तो प्रधानमंत्री रहने के दौरान उनकी ये तय करने में बड़ी भूमिका होती थी कि कांग्रेस अध्यक्ष कौन हो और सोनिया गांधी विगत दो दशक में अधिकांश समय कांग्रेस अध्यक्ष रही हैं, इसलिए तुलना बेमानी भी नहीं है.
बैंकों के राष्ट्रीयकरण से लेकर बांग्लादेश की मुक्ति तक, इंदिरा के प्रधान निजी सचिव पीएन हक्सर की भूमिका वाले बड़े परिवर्तनों के जयराम रमेश के विश्लेषणों में जो छोटी-छोटी गौण बातें सामने आती हैं उनसे कांग्रेस के बेहद विचारशील नेतृत्व की झलक मिलती है. उदाहरण के लिए 1972 के शिमला सम्मेलन में इंदिरा गांधी की ज़ुल्फ़िक़ार अली भुट्टो से मुलाकात से पहले हक्सर ने मंत्रिमंडल की राजनीतिक मामलों की समिति के सदस्यों– जगजीवन राम, वाईबी चव्हाण, सरदार स्वर्ण सिंह और फ़खरुद्दीन अली अहमद– में से प्रत्येक से ‘पाकिस्तान के साथ भारत की वार्ताओं के लक्ष्यों और उद्देश्यों’ के बारे में अपनी राय देने को कहा था. सामूहिक उत्तरदायित्व का मतलब था अपनी बात सामने रखना, आपत्तियों को जाहिर करना और उन पर स्पष्टीकरण पाना, न कि अपनी चिंताओं को छुपाते हुए प्रधानमंत्री के प्रस्तावों पर आंख मूंदकर हामी भर देना. इसका मतलब ये था कि प्रधानमंत्री मंत्रिमंडल की राय को गंभीरता से लेती थीं और उन्हें ऐसा करने की सलाह भी दी जाती थी.
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ये रवैया विपक्ष के संदर्भ में भी लागू होता था. जब जनसंघ के युवा नेता अटल बिहारी वाजपेयी ने पाकिस्तान को हथियारों की आपूर्ति के फैसले के लिए सोवियत संघ को आड़े हाथों नहीं लेने पर भारत सरकार की आलोचना की तो हक्सर ने इंदिरा गांधी से निजी तौर पर उनसे मिलकर उन्हें भारत-सोवियत संबंधों की जटिलताओं से अवगत कराने की सलाह दी थी, ताकि ‘उन्हें अपने रुख से पीछे हटने का अवसर मिल सके’.
इसी तरह, हक्सर ने इस बात पर ज़ोर दिया कि नई जिम्मेदारियों को संभालने वाले शैक्षणिक जगत के दिग्गजों को इंदिरा गांधी आश्वस्त करें कि प्रशासनिक नेतृत्व की नई भूमिकाओं में वह व्यक्तिगत रूप से उनका समर्थन करेंगी. ऐसे व्यक्तियों में विक्रम साराभाई के उत्तराधिकारी के रूप में इसरो की कमान संभालने वाले सतीश धवन और ऑस्ट्रेलिया से वापस लौटकर रमन रिसर्च इंस्टीट्यूट की बागडोर संभालने वाले वी. राधाकृष्णन शामिल थे. हक्सर जानते थे कि नई भूमिकाओं में ये लोग थोड़े नर्वस हैं और उन्हें थोड़ा व्यक्तिगत समर्थन दिए जाने की ज़रूरत है और उनकी सलाह मानते हुए इंदिरा ने ऐसा ही किया था.
लेकिन ये बात विशेष तौर पर उल्लेखनीय है कि उन घटनापूर्ण वर्षों में इंदिरा गांधी के मातहत रहे हक्सर अपनी बॉस से खरी-खरी भी कहते थे. मसलन चीन और सोवियत संघ के बीच मित्रता की संधि होने के तुरंत बाद भारत के साथ वैसी ही संधि के लिए चीन से आग्रह करने के प्रधानमंत्री के सुझाव पर हक्सर का पत्र लिखकर ये कहना कि उनका सुझाव ‘अवास्तविक’ और ‘अगंभीर’ है और फिर उन्हें कूटनीति का ज्ञान देना. उल्लेखनीय है कि तब तक भारत और चीन के बीच फिर से राजदूत स्तर के सामान्य रिश्ते भी कायम नहीं हो पाए थे और वैसे में मित्रता और सहयोग की संधि की बात सोचना वास्तविकता के अनुरूप नहीं था. एक अन्य उदाहरण हक्सर द्वारा प्रधानमंत्री को झिड़की दिए जाने का है कि वह उनसे मुलाकात का समय लेने के इच्छुक राजनयिकों और अन्य लोगों के लिए एक प्रोटोकोल तय करें. संक्षेप में, ये प्रकरण उनके द्वारा अपनी जिम्मेदारियों को गंभीरता से लेने और हमेशा पेशेवर व्यवहार करने की बात को प्रदर्शित करते हैं.
हाईकमान से मिलने के लिए लंबा इंतजार
आइए अब मौजूदा माहौल पर गौर करें: हक्सर क्या करते जब वरिष्ठ नेताओं (कुछेक उतने वरिष्ठ भी नहीं) को ‘हाईकमान’ से मिलने के लिए महीनों का इंतजार कराया जाता या अक्सर टेलीफोन पर होल्ड करा के रखा जाता? हक्सर अपने स्वभाव के अनुरूप स्पष्टवादी होते, हालांकि आगे चलकर बदली परिस्थितियों में अपने इसी गुण के कारण उन्हें नौकरी गंवानी पड़ी थी. जयराम रमेश की किताब के उत्तरार्द्ध में उन वर्षों की चर्चा है जब हक्सर ने बहुत मेहनत की थी, हालांकि प्रधानमंत्री सचिवालय से दूर रहते हुए. हम हक्सर को दरकिनार किया जाता देखते हैं, साथ ही साथ, कम निश्चितता वाले दौर में सावधानीपूर्वक निर्मित इंदिरा गांधी की ताकत का क्षरण भी उजागर होता है. कम निश्चितता वाले उस दौर के आगमन में संजय गांधी के रूप में परिवार की बड़ी भूमिका को यहां दोहराने की आवश्यकता नहीं है.
आज ताकतवर– चुनावी ताकत और राजनीतिक ताकत– होने का क्या मतलब है? भारत के 100 सर्वाधिक ताकतवर लोगों में शामिल होने या दुनिया की 100 सबसे ताकतवर महिलाओं में से एक होने का क्या मतलब है? चुनावी रैलियों की अगुआई करने की ताकत, लाउडस्पीकरों से अपना नाम सुनने का रोमांच, बैनरों, पोस्टरों, होर्डिंगों पर अपना नाम अंकित देखना. ताकत उम्मीदवारों को नामांकित करने, लोगों के राजनीतिक करियर बनाने या बिगाड़ने की. ताकत दर्शन देने या नहीं देने, फोन कॉल लेने या नहीं लेने की. ताकत के जिम्मेदारी और सावधानी से इस्तेमाल के भाव की असाधारण और दयनीय कमी, मीडिया की उपस्थिति में अध्यादेश को फाड़ने की विचारहीनता.
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कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं संजय झा और सलमान सोज़ के हाल के एक लेख से पता चलता है कि पार्टी के भीतर ‘एक औपचारिक छाया मंत्रिमंडल’ की, ऐसी ‘उत्कृष्ट प्रतिभाओं’ के समावेश की कि जिनकी ‘सामूहिक बुद्धिमता अपर्युक्त’ है, और ‘बड़ी संख्या में राज्यस्तरीय स्वतंत्र नेताओं’ को खड़ा करने और संरक्षण देने की गंभीर ज़रूरत महसूस की जा रही है. कांग्रेस की खुद की अपनी शक्तियां हैं, ‘हाईकमान’ को सत्ता के समानांतर स्रोतों का भय पार्टी के आंतरिक लोकतंत्र का नहीं, बल्कि पुतिन के रूस जैसी व्यवस्था का संकेत देता है. महत्वाकांक्षाओं वाले वर्तमान भारत को एक कमजोर और अर्द्धकालिक नेता की न तो ज़रूरत है, और न ही देश ऐसे किसी नेता से कोई उम्मीद कर सकता है. कांग्रेस अगर वापसी करना चाहती है तो उसे नेतृत्व के पदों पर पेशेवर, प्रतिबद्ध और काबिल नेताओं को बिठाना होगा न कि अंशकालिक वंशानुगत नेताओं को.
(नीति नायर वर्जीनिया विश्वविद्यालय में इतिहास की एसोसिएट प्रोफेसर और वुडरो विल्सन इंटरनेशनल सेंटर फॉर स्कॉलरर्स में ग्लोबल फेलो हैं)
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