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Friday, 1 November, 2024
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दिल्ली के निगम पार्षदों को अखबारों में अपने प्रदर्शन की रेटिंग की अधिक परवाह

अमेरिकी विश्वविद्यालयों के विद्वानों ने कुछ निगम पार्षदों को सूचित किया कि चुनाव से पहले एक अखबार में उनके कामकाज पर रिपोर्ट छपेगी. पढ़िए इसका परिणाम क्या निकला.

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कम औसत आय वाले लोकतंत्रों में नीतिगत विकल्प अक्सर मतदाताओं की विकास प्राथमिकताओं के अनुरूप क्यों नहीं होते हैं? क्या ऐसा इसलिए है क्योंकि नेता उम्मीद करते हैं कि मतदाता उनके प्रदर्शन के रिकॉर्ड से अनभिज्ञ रहेंगे? या फिर इसलिए कि जानकार और बहुमत में होने के बावजूद गरीब नागरिक काफी हद तक जातीय निष्ठा और वोट खरीदने के हथकंडों के आधार पर मतदान करते हैं?

हमने दुनिया के सबसे अधिक आबादी वाले शहरों में से एक दिल्ली में एक व्यापक ज़मीनी अध्ययन से ये साबित करने की कोशिश की कि मतदाताओं के समक्ष उनके कामकाज की पोल-पट्टी खोलने के बारे में यकीन दिलाने के बाद नेता मतदाताओं की प्राथमिकताओं के प्रति अधिक संवेदनशील हो जाते हैं. इससे मतदाताओं की चुनावी पसंद में भी नेताओं के प्रदर्शन का महत्व बढ़ जाता है, और आखिर में, इससे निर्वाचन के लिए उपलब्ध नेताओं की गुणवत्ता में भी बदलाव आता है, पार्टियां सर्वाधिक कमजोर रिकॉर्ड वाले नेताओं को हटाना शुरू कर देती हैं.

पृष्ठभूमि

हमारा ज़मीनी अध्ययन दिल्ली के नगर निगम के संदर्भ में हुआ जो कि एक निर्वाचित स्थानीय निकाय है. निगम के पार्षदों के पास कई तरह के नीति संबंधी अधिकार होते हैं. हर पार्षद को, आमतौर पर स्थानीय बुनियादी सुविधाओं की बेहतरी पर खर्च करने के लिए उनके विवेकाधीन विकास कोष आवंटित किया जाता है.

अध्ययन का पहला चरण बहुत व्यापक था, जिसमें हमने दिल्ली के 272 वार्डों में से 240 को कवर किया. उल्लेखनीय है कि प्रत्येक वार्ड के मतदाता पांच साल के कार्यकाल के लिए एक पार्षद का चुनाव करते हैं. दिल्ली के नगरपालिका चुनावों से दो साल पहले 2010 में, बिना किसी क्रम के कुछ पार्षदों के नाम चुनकर उन्हें सूचित किया गया कि एक प्रमुख हिंदी अखबार अगले चुनाव से एक महीने पहले उनके कामकाज पर रिपोर्ट छापेगा.

अध्ययन के लिए चयनित पार्षदों में से कुछेक के मध्यावधि प्रदर्शन के बारे में मई-जून 2010 में अखबार में रिपोर्ट छपी, जो कि की अंतिम रिपोर्ट-कार्ड के समान ही थी. इसने एक तरह से शुरुआती चरण के हमारे कदम की विश्वसनीयता को बढ़ाने का काम किया.

इस बारे में 2010 के सूचना अभियान से पहले हमने अधिक झुग्गी बस्तियों वाले 11 वार्डों के झुग्गीवासियों के बीच सर्वे कर जानकारी जुटाई कि वे किस मद मे कितना खर्च करते हैं. ऐसा बुनियादी सुविधाओ के बजट की मदों की वरीयता निर्धारित करने के लिए किया गया.

हमने इस सर्वे के आधार पर पाया कि बुनियादी सुविधाओं के संदर्भ में झुग्गीवासियों की प्राथमिकताओं और पार्षदों के खर्च के विकल्पों के बीच एक बड़ा फासला है. मसलन, हमारे सर्वे में शामिल लोगों में से करीब 70 प्रतिशत ने साफ-सफाई (सीवेज और जल-निकासी) को लेकर असंतोष जताया, पर इस मद में पार्षदों के कोष का महज 16 प्रतिशत खर्च किया गया. इसी तरह सड़कों पर पार्षदों ने आवंटित राशि का 54 प्रतिशत खर्च किया, जबकि सर्वे में मात्र 2 फीसदी लोगों ने सड़को को लेकर शिकायत की. अपेक्षा और वास्तविकता में इस अंतर का हमने ये मतलब निकाला कि अधिक झुग्गी बस्तियों (संपूर्ण निकाय के औसत 45 प्रतिशत से अधिक) वाले वार्डों में खर्च के पैटर्न का खुलासा किए जाने से पार्षद गरीबोन्मुख मदों में खर्च बढ़ाने के लिए प्रेरित होंगे.

प्रक्रिया

पार्षदों को उनके वार्ड की जनता की जरूरतों के बारे में जानकारी प्रदान करने के प्रभाव के सीधे मूल्यांकन के लिए हमने अधिक झुग्गी बस्तियों वाले वार्डों में एक और प्रयोग किया.

झुग्गी बस्तियों में स्वच्छता की समस्याओं के केंद्रीय महत्व से प्रेरित होकर, हमने बिना किसी क्रम के चुने गए पार्षदों के एक समूह को उनके वार्ड में स्वच्छता स्थिति की सूचना (एसएसआई) सौंपी. यह जानकारी हमारे स्वयं के ऑडिट पर आधारित थी, और इसमें तीन झुग्गी बस्तियों के सार्वजनिक शौचालय, सीवर और कचरा निस्तारण कार्य की गुणवत्ता संबंधित सूचनाओं को शामिल किया गया था. यह जानकारी दो बार एकत्रित कर सौंपी गई थी- क्रमश: चुनाव से आठ महीने और दो महीने पहले. कभी सार्वजनिक नहीं की गई इस जानकारी ने हमें ये जानने का अवसर दिया कि क्या पार्षदों को स्वच्छता के मुद्दों के बारे में सूचित करने, जो कि उनके रिपोर्ट-कार्ड में भी दिखा हो सकता है- से उनके कामकाज पर असर पड़ता है.

निष्कर्ष

हमें कुल तीन तरह के निष्कर्ष प्राप्त हुए.

सबसे पहले, कामकाज की जानकारी सार्वजनिक किए जाने की घोषणा ने अधिक झुग्गी बस्ती वाले वार्डों में पार्षदों को बुनियादी सुविधाओं में निवेश के लिए प्रेरित किया जो औसत से 0.62 फीसद अधिक गरीबोन्मुख था. हमने इस समूह के पार्षदों की विधानसभा और समितियों में उपस्थिति में भी औसत से 0.37 प्रतिशत की वृद्धि देखी.


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ये प्रभाव दोनों समूहों के पार्षदों- 2012 में जानकारी सार्वजनिक किए जाने की अपेक्षा करने वाले और जिनके मध्यावधि रिपोर्ट-कार्ड 2010 में जारी किए गए- में एकसमान देखा गया. इसका मतलब ये भी हुआ कि 2010 में रिपोर्ट जारी करने का कोई अतिरिक्त प्रभाव नहीं नजर आया.

दूसरी बात- मध्यावधि रिपोर्ट-कार्ड का असर नहीं दिखने के अनुरूप पर कहीं अधिक उल्लेखनीय- ये है कि निजी एसएसआई प्रयासों से एकत्रित कार्रवाई योग्य सूचनाएं उपलब्ध कराए जाने के बावजूद झुग्गी बस्तियों में साफ-सफाई की स्थिति में सुधार नहीं हुआ. क्यों पार्षद अखबार में रिपोर्ट-कार्ड आने पर तो मतदाताओं को खुश करने के लिए अपना रवैया बदलते हैं, पर ऑडिट को लेकर ऐसा नहीं करते?

एक संभावना तो यह है कि मतदाताओं का जो वर्ग साफ-सफाई की व्यवस्था में सुधार (झुग्गी निवासी) से सीधे लाभांवित होता है, वह इतना छोटा है कि राजनीतिक रूप से ज्यादा प्रासंगिक नहीं हो सकता. शायद इसकी वजह ये हो कि इस कार्य की जानकारी आम मतदाताओं तक पहुंचाने का कोई विश्वसनीय तंत्र नहीं है. इसके विपरीत प्रदर्शन के रिपोर्ट-कार्ड के अखबार में प्रकाशन के कारण उसका एक प्रवर्धित प्रभाव दिखता है.

एक वैकल्पिक वजह ये है कि मतदाता नीतियों पर बहुत कम ध्यान देते हैं और इसके बजाय उम्मीदवार की जातीय पहचान या चुनाव की पूर्वसंध्या पर पार्टियों द्वारा दिए जाने वाले धन को महत्व देते हैं. इस मामले में, अखबार में छपे रिपोर्ट-कार्ड प्रभावी हैं क्योंकि ये पार्टी चयन समितियों को पार्षदों के प्रदर्शन की जानकारी देते हैं, जिनका टिकट आवंटन में इस्तेमाल किया जाता है.

इन व्याख्याओं के मूल्यांकन के लिए हम अपने तीसरे निष्कर्ष को देखते हैं कि इस प्रयोग का पार्टी टिकट आवंटन प्रक्रिया और फिर मतदाताओं के व्यवहार पर क्या असर पड़ता है.

2012 के चुनावों में, सीटों पर महिलाओं के आरक्षण में अप्रत्याशित विस्तार के कारण टिकट आवंटन अधिक महत्वपूर्ण हो गया. जनवरी 2012 में, सरकार ने घोषणा की थी कि अप्रैल 2012 के चुनावों में महिलाओं के लिए आरक्षित वार्डों की संख्या 33 प्रतिशत से बढ़कर 50 प्रतिशत की जाएगी, साथ ही इस आरक्षण के लिए वार्डों का चयन बिना किसी निर्धारित क्रम के किया जाएगा. इस नई नीति के कारण 80 मौजूदा पार्षद (हमारे 240 पार्षदों के सैंपल में से) अपने वार्डों से चुनाव लड़ने के अयोग्य हो गए.

उनकी पार्टियों को तय करना था कि उन्हें दूसरे अनारक्षित वार्डों से उतारा जाए या नहीं.

मीडिया में छपी रिपोर्टों का टिकट आवंटन पर असर दिखा. जिन पार्षदों को इस प्रयोग में शामिल किया गया था उन्हें दोबारा टिकट मिलने की संभावना में 12 प्रतिशत अंक की वृद्धि हो गई. इसके असर से महिला आरक्षण के कारण अपने वार्ड के लिए अयोग्य हो गए पार्षदों को गरीबोन्मुख योजनाओं पर खर्च करने के कारण टिकट मिले. प्रयोग में शामिल, अपने वार्ड के लिए अयोग्य पर गरीबोन्मुख योजनाओं पर खर्च बढ़ाने वाले पार्षदों को अपने समकक्ष के मुकाबले टिकट मिलने की संभावना में 13 प्रतिशत अंक की बढ़त थी.

टिकट आवंटन संबंधी यह प्रभाव बढ़े वोट शेयर में तब्दील होता है. (स्वाभाविक रूप से उम्मीदवार वोट हासिल करने के लिए ही चुनाव में खड़ा होता है, पर चुनाव लड़ना जीत की गारंटी नहीं होती है). प्रयोग में शामिल अपने समकक्ष से बेहतर गरीबोन्मुख रिकॉर्ड वाले, पर अपने वार्ड के लिए अयोग्य, पार्षदों के अगले चुनाव में जीतने की संभावना 23 प्रतिशत अधिक रही.

अखबार का असर

अखबार में छपे रिपोर्ट-कार्ड का किसी भी तरह के सूचना प्रभाव के ऊपर एक स्वतंत्र विज्ञापन-प्रभाव हो सकता है. सबसे पहले तो, किसी अखबार में प्रकाशन से जानकारी अधिक विश्वसनीय बन जाती है. यहां तक ​​कि जिन मतदाताओं के पास शायद पूरी जानकारी नहीं थी, उन पर भी हो सकता है विज्ञापन-प्रभाव पड़ा हो- उदाहरण के लिए, उन पर इस तथ्य का प्रभाव पड़ सकता है कि उम्मीदवारों के बारे में जानकारी (जो वे शायद पहले से जानते थे) अब सबको मालूम है.


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मीडिया में प्रकाशन सभी स्तरों पर निर्णयों में इतनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है, ये बात ऐसे दौर में महत्वपूर्ण है जबकि मीडिया की स्वतंत्रता खतरे में है. यह चिंताजनक भी है, क्योंकि इससे साबित होता है कि नेता और पार्टियां भी, शायद प्रदर्शन की परवाह नहीं करते हों जब तक कि बात मीडिया में उजागर नहीं होती है. चूंकि, विश्वसनीय प्रिंट मीडिया में स्थान सीमित है, इससे नेताओं को प्रभावी प्रोत्साहन देने की गुंजाइश बहुत कम रह जाती है.

यह भविष्य के अनुसंधान के लिए एक महत्वपूर्ण दिशा का सुझाव देता है: क्या कोई ऐसा तरीका है कि जिससे, चुनाव पूर्व अखबार में रिपोर्ट-कार्ड छपाए बगैर, जनता को नियमित रूप से जनप्रतिनिधियों के प्रदर्शन की विश्वसनीय जानकारी प्रदान की जा सके, और उन्हें इस पर ध्यान देने के लिए प्रेरित किया जा सके?

(यह अभिजीत बनर्जी, निल्स एनेवोल्डसन, रोहिणी पांडे और माइकल वॉल्टन के ‘पब्लिक इन्फॉर्मेशन इज़ एन इंसेंटिव फॉर पॉलिटिशियंस: एक्सपेरिमेंटल एविडेंस फ्रॉम डेल्ही इलेक्शंस’ शीर्षक अध्ययन का संपादित अंश है. लेखकगण एमआईटी (बनर्जी), येल (पांडे), हार्वर्ड(वॉल्टन) विश्वविद्यालयों (एनेवोल्डसन के अतिरिक्त) से संबद्ध हैं. व्यक्त विचार उनके निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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