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Thursday, 25 April, 2024
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वैसे तो एनजीटी बब्बर शेर है बस उसके दांत और नाखून नहीं है

एनजीटी अक्सर पर्यावरण प्रदूषित करने वाली सरकारी- गैर सरकारी एजेंसियों पर जुर्माना लगाकर सुर्खियां बटोरता रहा है. लेकिन तस्वीर का दूसरा पहलू यह है कि एक-दो मौकों को छोड़कर जुर्माने की रकम शायद ही कभी वसूल की जा सकी है.

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एक बार फिर एनजीटी यानी नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल की गुर्राहट सुनाई दी है. उसने दिल्ली विकास प्राधिकरण (डीडीए) को यमुना सफाई और पर्यावरण संरक्षण में असफलता के लिए 50 लाख रुपए परफॉर्मेंस गारंटी के तहत जमा करने को कहा है. एनजीटी अक्सर पर्यावरण प्रदूषित करने वाली सरकारी-गैर सरकारी एजेंसियों पर जुर्माना लगाकर सुर्खियां बटोरता रहा है लेकिन तस्वीर का दूसरा पहलू यह है कि एक-दो मौकों को छोड़कर जुर्माने की रकम शायद ही कभी वसूल की जा सकी है.

बहरहाल यमुना सफाई को लेकर एक बार फिर दिल्ली, हरियाणा और उत्तर प्रदेश को जुर्माने की चेतावनी जारी की गई है. बेहद मार्मिक अपील करते हुए एनजीटी चेयरमैन आदर्श कुमार गोयल ने कहा कि ‘यमुना को मारना दिल्ली को मारना है और आज नहीं तो कल दिल्ली का मरना तय है.’ तो इसका मतलब क्या है? क्या एनजीटी भी चेतावनी दे-देकर निराश हो चुका है या संस्थाएं इस हद तक बेशर्म हो चुकी हैं कि उन्हे न्यायिक आदेश एक सामान्य सूचना की तरह ही लगते हैं या फिर हम एक ऐसे दौर में प्रवेश कर चुके हैं जहां संवैधानिक संस्थाओं को ताक पर रखकर ही विकास की दौड़ लगाई जाती है.


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एनजीटी अपने स्थापना का 10 साल पूरा कर रहा है, इन सालों की समीक्षा कर यह जानने की कोशिश करनी चाहिए कि अब तक लगाए गए कई सौ करोड़ के जुर्माने की रकम में से कितनी राशि वसूली गई है. इस पर भी विचार किया जाना चाहिए कि ‘एनजीटी ने जुर्माना लगाया’ की हेडलाइन बनाने वाला मीडिया उन खबरों पर चर्चा नहीं करता कि क्यों एनजीटी ज्यादातर जुर्माने को माफ कर देता है.

याद है आर्ट ऑफ लिविंग के श्री श्री रविशंकर पर यमुना तट पर कचरा फैलाने का आरोप साबित हुआ था और एनजीटी ने उनपर 5 करोड़ का जुर्माना लगा दिया. रविशंकर ने उसे नाक का मुद्दा बना लिया कहा 5 पैसे भी नहीं दूंगा. एनजीटी पर भी भारी सरकारी दबाव आ गया था. उस समय एनजीटी सख्त बना रहा और आखिरकार श्री श्री को जुर्माने की रकम जमा करनी पड़ी लेकिन किसी सरकार या सरकारी संस्था से एनजीटी ने जुर्माना वसूला हो इसका उदाहरण देखने में नहीं आता.

पिछले कुछ महीनों में एनजीटी ने लगातार सरकारों और संस्थाओं को फटकारा है. बिहार पर गंगा सफाई में लापरवाही को लेकर 25 लाख रुपए का जुर्माना लगाया गया है. इसी तरह यूपी, झारखंड और बंगाल पर भी गंगा सफाई को लेकर जुर्माना लगाया गया. बिहार सरकार की जुर्माना माफी की याचिका भी खारिज कर दी गई, लेकिन जुर्माना अब तक जमा नहीं किया गया. हेजार्ड वेस्ट मैनेजमेंट रूल्स के तहत ग्रेसिम इंडस्ट्रीज सोनभद्र पर 1 करोड़ रुपए का जुर्माना लगाया गया था. इस खबर के बाद उम्मीद बंधी कि अब नदियों को प्रदूषित करने वाली फैक्ट्रियों पर लगाम लगेगी लेकिन ग्रेसिम आज भी वैसे ही चल रही है और वेस्ट मैनेजमेंट की उसकी व्यवाहारिक नीतियां आज भी वही हैं.

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एनजीटी के जुर्माने में लिपटे तमाम आदेश भरोसा जगाते हैं. वाहवाही लूटते हैं और शायद उनका उद्देश्य भी यही रहता है. क्योंकि इसके बाद और इसके आगे कुछ नहीं होता. न तो गाजियाबाद के सात अस्पतालों से आठ करोड़ की वसूली होती है और न ही लखनऊ नगर निगम गोमती में कचरा फेंकने के एवज में 2 करोड़ चुकाता है. इसके अलावा दिल्ली में सब्जी खरीदते व्यक्ति को तो पता ही नहीं होता कि जिस पॉलिथिन में वह सब्जी ले जा रहा है वह दिल्ली में बैन है और आज से नहीं कई सालों से.


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हिमाचल प्रदेश में सड़क निर्माण का मलबा सतलुज और व्यास में डाले जाने पर सख्त आपत्ति जताते हुए एनजीटी ने सीपीसीबी और सीपीडब्ल्यूडी को नोटिस जारी किए हैं. आश्चर्य है कि उत्तराखंड में चल रही चारधाम परियोजना पर एनजीटी का ध्यान क्यों नहीं गया. वहां तो पहाड़ काटकर मलबा सीधे नीचे गंगा में बहाया जा रहा है.

आदर्श कुमार गोयल ने कहा कि पर्यावरण और नदियों को बचाने के लिए जनांदोलन की आवश्यकता है. लेकिन सच्चाई तो यही है कि नदियों ती अविरलता और निर्मलता का रास्ता सामाजिक से ज्यादा राजनीतिक है क्योंकि पर्यावरणीय समस्याएं भी समाज के नहीं सरकार और उनकी नीतियों के चलते पैदा हुई हैं.

आज जब अदालतें ही अंतिम सहारा हैं. नदियों की सफाई को लेकर एनजीटी की लगातार अवमानना अखरती है. और उससे ज्यादा अखरता है एनजीटी के आदेशों पर मुख्यमंत्रियों, सचिवों, डीडीए के अधिकारियों और मेट्रो नेतृत्व की बेशर्म हंसी. मानों कह रहे हों– ‘छोड़ो यार एनजीटी को, और बताओं क्या चल रहा है.’

(अभय मिश्रा लेखक और पत्रकार हैं. यह उनका निजी विचार है)

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