नई दिल्लीः दिल्ली 67 साल पहले 1952 में देश की पहली लोकसभा के लिए एक मलयाली को बाहरी दिल्ली यानी ग्रामीण दिल्ली सीट से ससम्मान भाव से निर्वाचित कर रही थी. क्या ये कोई छोटी बात है? अब तो ये असंभव लगता है. उस मलयाली का नाम था सी.के नायर. उन्हें दिल्ली का गांधी कहा जाता था. वे गांधी जी के अनन्य अनुयायी थे. वे उनके साथ थे दांडी मार्च में गए थे. वे त्रिवेन्द्रम के महाराजा कॉलेज में पढ़े थे.
चूंकि नायर ग्रामीण दिल्ली में काम कर ही रहे थे, इसलिए उन्हें कांग्रेस ने अपना बाहरी दिल्ली से उम्मीदवार बनाया. बाहरी दिल्ली से कांग्रेस के प्रत्याशी सी.के. नायर मजे से जीते. एक बात बतानी जरूरी है कि उस चुनाव में बाहरी दिल्ली से दो उम्मीदवारों को चुना जाना था, जिनमें एक अनुसूचित जाति का उम्मीदवार शामिल था. इसके अलावा नई दिल्ली और दिल्ली शहर सीट के लिए भी चुनाव हुआ था.
बहरहाल, नायर जब जीते थे तब सारी दिल्ली में 500 मलयाली वोटर भी नहीं रहे होंगे. नायर साहब को एक लाख 18 हजार और कांग्रेस के दूसरे उम्मीदवार नवल प्रभाकर को एक लाख पांच हजार से अधिक वोट मिले. इन्होंने अपने भारतीय जनसंघ के प्रत्याशियों क्रमश: पंडित मौलीचंद और पात राम सिंह को बुरी तरह से हरा दिया था.
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महत्वपूर्ण है कि नायर साहब गांधी की सलाह पर 1931 में दिल्ली आ गए थे. उन्होंने उसी साल नरेला में गांधी आश्रम खोला था. उसके बाद वे जीवन भर दिल्ली के गांवों में शिक्षा के प्रसार-प्रचार में लगे रहे. उन्हें 1937 में दिल्ली प्रदेश कांग्रेस कमेटी का महासचिव बनाया गया. वे भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान भी एक्टिव थे. कई बार जेल यात्राएं भी की. ये भी अजीब इत्तेफाक है कि जो नायर साहब दिल्ली के लिए पृथक हाउसिंग प्राधिकरण की मांग करते रहे, उन्होंने अपना कभी घर नहीं बनाया. वे 1957 में भी बाहरी दिल्ली से निर्वाचित हुए थे. उसके बाद उन्होंने सक्रिय राजनीति से सन्यास ले लिया था. 70 के दशक में इंदिरा गांधी ने उन्हें रामाकृष्ण पुरम में दो कमरों का घर स्वाधीनता सेनानी कोटे के अंतर्गत दिलवा दिया था. एक बार एचकेएल भगत जी ने बताया था कि नायर साहब साधू किस्म के इंसान थे. उन्होंने 50 पार करने के बाद विवाह किया था. उनका 90 के दशक में निधन हो गया था.
अगर पहले चुनाव में छाए रहे मुद्दों की बात करें तो मोटे तौर पर सांप्रदायिकता बनाम धर्मनिरपेक्षता पर ही तीखी बहस हो रही थी. कांग्रेस का आरोप था कि जनसंघ समाज को तोड़ती है. उधर, जनसंघ कह रही थी कांग्रेस को गांधी के नाम पर वोट नहीं मांगना चाहिए.
कौन जीता था दिल्ली शहर से
जहां तक दिल्ली शहर सीट का सवाल है, तो वहां से कांग्रेस के उम्मीदवार राधा रमन की विजय तय मानी जा रही थी. उन्होंने भारतीय जनसंघ के रंग बिहारी लाल को 23 हजार से अधिक मतों से हराया था. राधा रमण को सब दादा कहते थे. वे पक्के कांग्रेसी और गांधीवादी थे. जनता से जुड़े हुए थे. उन्हें तो जीता ही था. जनसंघ से पहले चुनाव में कोई चमत्कार की उम्मीद भी नहीं थी. उसका एक साल पहले 1951 में ही कनॉट प्लेस के रघुमल कन्या स्कूल में गठन हुआ था. राधा रमन को 59 प्रतिशत से ज्यादा वोट मिले, जबकि लाल को करीब 36 प्रतिशत ही मत मिले. तीसरे उम्मीदवार एच.एस. शर्मा की जमानत जब्त हो गई थी. दादा राधा रमण शिवाजी स्टेडियम के मेन गेट के पास रहते थे. वे बाद में लंबे समय तक दिल्ली महानगर परिषद के भी सदस्य रहे थे.
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नई दिल्ली में हारी थी कांग्रेस
नई दिल्ली सीट से सुचेता कृपलानी विजयी रही थीं. सुचेता जी कट्टर कांग्रेसी थीं और गांधी जी के साथ नोवाखाली गई भी थीं. पर देश के आजादी के बाद वो कांग्रेस से अलग हो गई थीं. सुचेता ने पहला लोकसभा चुनाव किसान मजदूर पार्टी की टिकट पर लड़ा था. चुनाव जीता, लेकिन इसके बाद वह कांग्रेस में चली गईं. वो इसी नई दिल्ली सीट से 1957 का चुनाव कांग्रेस की टिकट पर जीती थीं. उन्होंने कांग्रेस उम्मीदवार मन मोहिनी सहगल को 7671 मतों से हराया. सुचेता कृपलानी को 47735 और मनमोहनी सहगल को 40064 वोट मिले थे. निर्दलीय प्रत्याशियों की जमानत जब्त हो गई थी. कहते हैं, तब इसी नई दिल्ली सीट पर ही मुकाबला कड़ा हुआ था. मनमोहिनी जी यहां की प्रमुख कांग्रेस कार्यकर्ता थीं. हालांकि कहने वाले ये भी कहते रहे हैं कि उस चुनाव में कांग्रेस ने अपने उम्मीदवार के हक में अच्छी तरह से कैंपेन ही नहीं किया था. जिसके चलते उसे ये सीट गंवानी पड़ी थी.
एक बात और हैरान करने वाली हुई थी कि कांग्रेस ने इस सीट के लिए डा. सुशीला नैयर जैसी शख्सियत को अपना उम्मीदवार न बनाकर सबको चौंकाया था. वो गांधी जी की निजी चिकित्सक रही थीं. उन्हें सारा शहर जानता था. उन्हें तब लोकसभा चुनाव के साथ दिल्ली विधानसभा चुनाव के लिए हुए चुनाव में कांग्रेस ने अपना उम्मीदवार बनाया था.
(वरिष्ठ पत्रकार और गांधी जी दिल्ली पुस्तक के लेखक हैं )