कोलंबो: श्रीलंका के पूर्व राष्ट्रपति गोटबाया राजपक्षे को उनके महल से निर्वासन में ले जाने के एक पखवाड़े से भी कम समय के बाद, प्रदर्शनकारियों के उनके बिस्तर पर लुढ़कने और स्विमिंग पूल में गोते लगाने के कार्निवल जैसे दृश्यों की जगह अब सुरक्षाकर्मी और कर्मचारी ने ले ली है, जो व्यवस्था वापस लाने की कोशिशों में लगे हैं.
राष्ट्रपति सचिवालय की टूटी हुई मैटलिक फैंस की मरम्मत कर दी गई है. प्रधानमंत्री के निवास के पास की सामने की दीवार टेंपल ट्रीज़ पर फैले काले, लाल, पीले रंग के स्प्रे पेंट को साफ कर फिर से पुराने सफेद रंग में रंगा जा चुका है.
नए राष्ट्रपति रानिल विक्रमसिंघे का अपना घर भीड़ ने जला दिया था. वह अभी तक राष्ट्रपति निवास पर कब्जा करने में कामयाब नहीं हुए हैं, मगर उनके खिलाफ विरोध के आह्वान धीरे-धीरे कमजोर पड़ते नजर आ रहे हैं.
पेशे से सिविल इंजीनियर और विरोध की अगुवाई करने वाले नुजली हमीम ने कहा, ‘आम जनता थक चुकी है और उनका एनर्जी लेवल अब उतना नहीं रहा. विरोध स्थलों पर इकट्ठा होने के बजाय उनका ध्यान भोजन और ईंधन संकट जैसी समस्याओं की तरफ है.’
गाले फेस, जहां राष्ट्रपति सचिवालय स्थित है, श्रीलंका के विरोध का मुख्य केंद्र रहा है. इसकी शुरुआत अप्रैल में तेजी से बढ़ते आर्थिक संकट के बीच शुरू हुई थी और धीरे-धीरे देशभर से लोग इसके साथ जुड़ गए. लेकिन अब लोगों की संख्या कम, और कम होती दिखाई दे रही है. श्रीलंकाई सेना द्वारा पिछले शुक्रवार को सचिवालय के पास एक विरोध स्थल पर छापा मारने और पत्रकारों व प्रदर्शनकारियों पर कथित रूप से हमला करने के बाद पहले ही उनकी संख्या काफी कम हो गई थी.
पिछली बार कोलंबो में 13 जुलाई को विरोध में एक बड़ी सभा की गई, जिसमें सैकड़ों प्रदर्शनकारी एकजुट हुए और फिर तत्कालीन प्रधानमंत्री विक्रमसिंघे के कार्यालय में घुस गए. बाद में उन्होंने प्रदर्शनकारियों को ‘फासीवादी’ बताया और आपातकाल की स्थिति घोषित कर दी.
20 जुलाई को एक नए राष्ट्रपति के चुनाव के लिए संसद में गुप्त मतदान के परिणाम को देखने के लिए राष्ट्रपति सचिवालय में एक सभा में लगभग 100 लोगों इकट्ठा हुए थे. सैन्य छापे के बाद, राष्ट्रपति सचिवालय को अवरुद्ध करने वाले बैरिकेड्स के पास 22 जुलाई के मौन विरोध में भी कुछ इतने ही लोग जुटे थे.
तमिलों के खिलाफ 1983 की सांप्रदायिक हिंसा और 25 जुलाई को गाले फेस में एक अन्य विरोध को चिह्नित करने के लिए एक सभा की योजना को भी थोड़ा ही समर्थन मिला.
यहां लोगों के बीच मिली-जुली भावनाएं हैं.
कुछ प्रदर्शनकारियों का कहना है कि आंदोलन ने अपनी उपयोगिता को खो दिया है. तो वहीं कुछ को उम्मीद है कि यह आंदोलन फिर से सिर उठाएगा और विक्रमसिंघे के लिए एक गंभीर चुनौती पेश करेगा. जिनके बारे में उनका मानना है कि उनके पास जनता के समर्थन की कमी है. विक्रमसिंघे जिन्हें पहले मई में प्रधानमंत्री और अब राष्ट्रपति बनाया गया है.
‘जीत के साथ खत्म हो जाना चाहिए था’
अप्रैल में विरोध-प्रदर्शन अपने चरम पर था. गाले फेस में सड़कों पर मेले जैसा माहौल, चारों तरफ भारी भीड़ और पपारे- श्रीलंकाई शैली का ट्रम्पट म्यूजिक- का धमाकेदार संगीत.
लेकिन आज गाले फेस में कुछ ही स्थायी प्रदर्शनकारी रह गए है. जिन्होंने ‘गोटा गो विलेज’ में अभी भी अपने तंबू गाड़े हुए हैं. इस जगह को सरकार ने 2020 में विरोध प्रदर्शन के लिए एक स्थल के रूप में नामित किया था.
एक थके हुए प्रदर्शनकारी ने कहा, ‘जब राष्ट्रपति गोटाबाया ने इस्तीफा दे दिया तो हमें रुक जाना चाहिए था. इसका मतलब होता कि हमने अपनी जीत पर आंदोलन को खत्म किया है.’
पिछले हफ्ते की ‘सैन्य कार्रवाई’ से ‘हार’ की भावना तेज हो गई है.
श्रीलंका के विरोध आंदोलन के एक जाने-माने चेहरे कैथोलिक पादरी फादर जीवनंत पीरिस ने कहा, ‘गाले फेस विरोध स्थल पर कम लोग आ रहे हैं. पिछले शुक्रवार की तड़के प्रदर्शनकारियों पर सैन्य और पुलिस के हमले के बाद से लोग डरे और सहमे हुए हैं.’
उन्होंने बताया, ‘पिछले शुक्रवार को लगभग एक बजे मुझे भी गाले फेस में जाने अनुमति नहीं दी गई. दो लड़के जो मेरे साथ थे, उन्हें पुलिस ने डंडों से बेरहमी से पीटा.’ उन्होंने आरोप लगाया कि गाले फेस विरोध स्थल पर दान स्वरूप दिए जाने खाने को सरकार अनौपचारिक माध्यमों से हतोत्साहित कर रही है.
एक्टिविस्ट व्रेई कैली बल्थाजार ने यह भी कहा कि प्रदर्शनकारियों के खिलाफ ‘जल्द ही हिंसा होने की कुछ आशंका’ है, और उन्हें फिर से संगठित होने और संसाधनों को इकट्ठा करने के लिए कुछ समय चाहिए होगा.
उन्होंने बताया, ‘राष्ट्रपति सचिवालय के पास टेंट हटा दिए जाने के बाद से हमने बहुत सी चीजें खो दी हैं.’
उन्होंने कहा कि प्रदर्शनकारियों को 9 मई को भी महिंदा राजपक्षे के कथित समर्थकों के हमले का सामना करना पड़ा था, लेकिन एक सैन्य हमला आम नागरिकों के लिए ‘अलग’ और अधिक डराने वाला रहा.
फिर भी बहुत से लोगों का मानना है कि विरोध अभी खत्म नहीं हुआ है.
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‘तूफान से पहले की शांति’
हमीम ने कहा, इस ‘खामोशी’ को विरोध के पूरी तरह से खत्म हो जाने रूप में नहीं देखा जाना चाहिए. लेकिन तथ्य यह है कि जब रानिल विक्रमसिंघे ने 12 मई को पीएम के रूप में शपथ ली थी तब ही आंदोलन धीमा पड़ गया था.
हमीम ने बताया, ‘लोग (तब) उन्हें एक मौका देना चाहते थे, लेकिन अंततः जुलाई की शुरुआत में विरोध फिर से शुरू हो गया. इसी तरह इस बार भी लोग रानिल को आर्थिक स्थिति सुधारने का मौका देना चाहते हैं. अगर चीजें नहीं सुधरती हैं, तो जल्द ही विरोध आंदोलन तेज हो जाने की उम्मीद है.’
पेइरिस ने कहा कि आंदोलन अभी ‘धीमा पड़ा हुआ है’, लेकिन लोग अपना विरोध दर्ज कराना जारी रखेंगे. उन्होंने कहा कि रणनीति में बदलाव भी किया जा रहा है.
उन्होंने बताया, ‘हमारा ध्यान अब लोगों को गाले फेस पर बुलाए बिना हाइपरलोकल और क्षेत्रीय स्तर पर विरोध को प्रोत्साहित और व्यवस्थित करना है. अन्य विरोध प्रतिनिधि अब राजनीतिक नेताओं, विपक्षी पार्टी के नेताओं और राजदूतों से मिलना शुरू कर देंगे और अगले कार्रवाई कदम पर चर्चा करेंगे.’
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