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Sunday, 19 May, 2024
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आयोवा के खेतों में तकनीक बनी सहायकः भारत में सोयाबीन उगाने वाले अमेरिकी किसानों से क्या कुछ सीख सकते हैं

सोयाबीन की औसत अमेरिकी उपज भारत की तुलना में तीन गुना से अधिक है, हमारी कम उत्पादकता का मतलब है कि देश को आयात पर अत्यधिक निर्भर होना पड़ता है.

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नई दिल्ली: आयोवा, इलिनॉइस: ढेर सारी कड़ी मेहनत और बारिश न होने पर निराशा का भाव- केवल यही वे चीजें हैं जो भारत में छोटे सोयाबीन किसानों और अमेरिका के मिडवेस्ट में मक्के और सोया के बड़े आकार के खेतों की देखरेख करने वाले उनके समकक्षों के बीच एक समान हैं.

पर, जैसा कि आयोवा के चौथी पीढ़ी के किसान कोरी गुडह्यू के साथ बातचीत में पता चलता है, बाकी सारी चीजें बहुत अलग है.

उदाहरण के लिए, गुडह्यू ने इस साल अक्टूबर में प्रति एकड़ लगभग 51 बुशेल (सूखे माल की तौल के लिए उपयोग किए जाने वाले 64 यूएस पिंट के बराबर क्षमता का एक माप) की फसल काटी, जो पिछले साल सोयाबीन की फसल के लिए अमेरिकी औसत के बराबर है. इसका मतलब है कि प्रति हेक्टेयर 3.5 टन की उत्पादकता जो एक आम भारतीय किसान की औसत उपज- 1.01 टन प्रति हेक्टेयर- का लगभग साढ़े तीन गुना है .

ऐसा नहीं है कि गुडह्यू और अन्य अमेरिकी किसान प्रकृति की अनिश्चितताओं और वैश्विक सामाजिक-आर्थिक उथल-पुथल से प्रभावित नहीं हैं. लेकिन उनकी काफी अधिक पैदावार में जो बातें योगदान देती हैं वह है नई प्रौद्योगिकियों और टिकाऊ कार्यप्रणाली का संयोजन.

भारत में होने वाली कम पैदावार का एक नतीजा यह है कि हमारे देश ने 2021-22 में खपत किए गए सोयाबीन तेल का लगभग 70 प्रतिशत- 5.8 मिलियन टन की कुल घरेलू खपत के मुकाबले 4.1 मिलियन टन- का आयात किया था.

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अमेरिका के मामले में सोयाबीन उसका सबसे बड़ा कृषि निर्यात उत्पाद था, जिसका साल 2021 के निर्यात राजस्व में $27 बिलियन से अधिक का योगदान था.

खाद्य तेलों का लगभग सारा भारतीय आयात अर्जेंटीना, ब्राजील और संयुक्त राज्य अमेरिका से आनुवंशिक रूप से संशोधित (जेनेटिकली मॉडिफाइड -जीएम) और हर्बीसाइड-टॉलरेंट (खर-पतवारनाशी दवाओं को सहन करने की क्षमता वाले) सोयाबीन से प्राप्त तेल के रूप में होता है. भारत ने घरेलू उत्पादन में कमी को पूरा करने के लिए जीएम सोयाबीन मील के आयात को मवेशियों के चारे के रूप में इस्तेमाल करने की अनुमति भी दी है.

हालांकि भारत ट्रांसजेनिक सोया (और कैनोला) तेल का आयात करता है, लेकिन भारत में किसानों को इन किस्मों को उगाने की अनुमति नहीं है. मगर यह सब अगले कुछ वर्षों में बदल सकता है.

पिछले महीने के अंत में, भारत के बायोटेक रेग्युलेटर ने जीएम सरसों, जो कि तिलहन की एक महत्वपूर्ण फसल है, की एनवायर्नमेंटल रिलीज (पर्यावरणीय विमुक्ति) की सिफारिश और यह हमारे देश में खाद्य उत्पादन के क्षेत्र में ट्रांसजेनिक्स के प्रवेश के लिए एक बदलाव का समय है.


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उपज के अंतर को पाटना

साउथ एशिया बायोटेक्नोलॉजी सेंटर के संस्थापक-निदेशक भगीरथ चौधरी ने कहा, ‘तिलहन फसलों और खाद्य तेलों के बारे में अत्यंत ख़राब नीति के कारण भारत कम पैदावार और बढ़ते आयात के चक्र में फंस गया है.’

चौधरी ने कहा, ‘सरसों, सोयाबीन और सूरजमुखी जैसी तिलहन फसलें शुष्क भूमि वाले किसानों के लिए बहुत महत्वपूर्ण फसले हैं और हमारी उपज, जो वैश्विक स्तर पर 3-4 टन प्रति हेक्टेयर की तुलना में लगभग 1 टन प्रति हेक्टेयर पर स्थिर है, में आये अवरोध को तोड़ने के लिए विश्व स्तर पर उपलब्ध प्रौद्योगिकियों और उच्च उपज देने वाले जर्मप्लाज्म (बीज की तरह आनुवंशिक सामग्री) के साथ उन्हें समर्थन प्रदान किया जाना चाहिए.’

हालांकि, बेहतर बीजों तक पहुंच उपज के अंतर के एक हिस्से को ही पाट सकती है. अमेरिकी किसान अपने संचालन के बड़े पैमाने- 3,000 एकड़ और 15,000 एकड़ के बीच आकार के विशाल खेतों- के कारण ही महंगी परिवर्तनीय प्रौद्योगिकी, अत्याधुनिक मशीनरी, और खेतों से मिलने वाले डेटा का उपयोग कर मशीन से सीखने की प्रक्रिया (मशीन लर्निंग फॉर्म ऑन-फार्म डेटा) को अपनाने में सक्षम हो पाते हैं.

दूसरी तरफ, भारत में, किसान भूमि के छोटे-छोटे टुकड़ों पर फसल उगाते हैं, जो पूंजी निवेश को सीमित करता है और उन्हें यू.एस. मिडवेस्ट में उगाई जाने वाली अकेली फसल के बजाय एक वर्ष में कई फसलें उगाने के लिए मजबूर करता है.

मिसाल के तौर पर धान की कटाई के तुरंत बाद गेहूं की फसल बोने का दबाव ही पराली को सड़ने देने और इसके माध्यम से मिट्टी के पोषण में वृद्धि करने के बजाय किसानों को उसे जलाने के लिए प्रेरित करता है.


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हाई-टेक खेती

तो फिर अमेरिका में उच्च पैदावार बढ़ाने वाले कारक क्या हैं? गुडह्यू के अनुसार, यह प्रौद्योगिकियों, गुणवत्ता वाले बीजों, अत्याधुनिक मशीनरी, और उपज के नक्शे से सीखने की प्रक्रिया का एक संयोजन है, जो टिकाऊ कार्यप्रणालियों- जैसे कि साइल कार्बन और नमी को बनाए रखने के लिए कवर क्रॉप्स और जीरो-टिल फार्मिंग (बिना जुताई वाली खेती)- के साथ उपयोग में लायी जाती है.

गुडह्यू ने बताया, ‘हम तकनीक और उपकरणों का उपयोग करते हैं जो उपज का नक्शा बनाते हैं… और इस बात को रिकॉर्ड करते हैं कि उत्पादित बुशल कहां से आ रहे हैं. पोषक तत्वों के अनुप्रयोग और बीज बोने के लिए, हम वेरिएबल रेट टेक्नोलॉजी (वीआरटी) का उपयोग करते हैं.’

वीआरटी एक तकनीकी उपकरण है जो नाइट्रोजन या फॉस्फेट जैसे पोषक तत्वों को डाले जाने से पहले सेंसर की मदद से वास्तविक समय में मृदा स्वास्थ्य (सॉइल हेल्थ) की पड़ताल करते हैं. यह किसानों को महंगे उर्वरकों और बीजों को बचाने में मदद करता है, जिससे अधिक उत्पादन होता है.

आयोवा में 3,800 एकड़ कृषि भूमि का प्रबंधन करने वाले गुडह्यू के मामले में ये प्रौद्योगिकियां मौसम की अनिश्चितता और बाजार के उतार-चढ़ाव का सामना करने में उनकी मदद करती हैं. फिर भी उनका कहना है कि कई बार वह अपने नियंत्रण से परे कारकों- जैसे कि सूखा, अनिश्चित बारिश, चीन के साथ व्यापार युद्ध के कारण निर्यात में गिरावट, या यूक्रेन संघर्ष से उर्वरक की कीमतें आदि – के कारण एक पेशेवर जुआरी की तरह महसूस करते हैं.

यह पूछे जाने पर कि जब रोपणी के दौरान बारिश नहीं होती है तो वह क्या करते हैं, उन्होंने मासूम सा जवाब दिया, ‘हम बस रोते हैं.’

फिर भी, बीज प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में हुई प्रगति ने अनिश्चित मौसम के दुष्प्रभावों से मुकाबला करने में मदद की है.

गुडह्यू ने कहा, ‘अगर हमारे पास वही बीज होते जो वे 1980 के दशक में लगाया करते थे, तो पैदावार कुछ भी नहीं होती… अब हमारे पास ऐसे बीज हैं जो ठंडी और गीली मिट्टी की समस्या को पहले की तुलना में बेहतर तरीके से संभाल सकते हैं. हम देखते हैं कि कंपनियां सबसे अच्छा करने के लिए बहुत, बहुत कठिन प्रयास करती हैं, क्योंकि उनके बीच हमारे साथ व्यवसाय के लिए प्रतिस्पर्धा होती हैं.’


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सस्टेनेबल सोया

इलिनॉइस के एक और किसान तथा यूएस सोयाबीन एक्सपोर्ट काउंसिल (यूएसएसईसी) के अध्यक्ष डौग विंटर के अनुसार, मिडवेस्ट में प्रचलित सोया और कॉर्न रोटेशन (बारी-बारी से लगाया जाना) मिट्टी को स्वस्थ रखने और उर्वरक के उपयोग को सीमित करने में मदद करता है.

कटाई के लिए तैयार एक सोया खेत के बगल में खड़े होते हुए उन्होंने कहा, ’सोयाबीन नाइट्रोजन को हवा से बाहर निकालता है (और इसे मिट्टी में मिलाता है)… हर एकड़ से आपको मिलने वाली हर एक बुशल आपको लगभग आधा पाउंड नाइट्रोजन प्रदान करती है जो अगले साल के मक्के (कॉर्न) की फसल के लिए मिट्टी में ही बना रहता है. यही कारण है कि हम मक्का-सोया के चक्र (रोटेशन) का उपयोग करते हैं.’

67 वर्षीय विंटर अमेरिका में विकसित ‘सस्टेनेबल’ सोया के चैंपियन है. वह इस बात पर गर्व करते हैं कि कैसे ढेर सारे किसान मक्के और सोया की कटाई के बाद राई, रेपसीड और गेहूं जैसी कवर क्रॉप्स का उपयोग करते हैं.

कवर क्रॉप्स कार्बन सेक्वेस्ट्रेशन (वायुमंडलीय कार्बन डाइऑक्साइड को अवशोषित करने और उसे संगृहीत करने) में मदद करती हैं, मिट्टी की सूक्ष्मजीव गतिविधि (माइक्रोबियल एक्टिविटी) को बढ़ाती हैं, मिट्टी की उर्वरता में सुधार करती हैं, और नमी बनाए रखने में सहायता करती हैं – संक्षेप में कहें तो वे फसल की कटाई के बाद मिट्टी को उसके पोषक तत्व वापस लौटाती हैं.

विंटर ने कहा, ‘हमारा कार्बन फुटप्रिंट स्कोर काफी कम है क्योंकि हम फसल के चक्रण (रोटेशन) के अलावा कवर क्रॉप्स का उपयोग करते हैं. हम हमेशा नई और बेहतर कार्यप्रणाली की तलाश में रहते हैं. खेती टिकाऊ हो सकती है लेकिन इसके लिए आपको साल-दर-साल उस स्तर पर बने रहने में सक्षम होने के लिए अनुसंधान और तत्परता (नई प्रक्रियाओं को अपनाने में) दिखाने की जरूरत होती है.’

औद्योगिक खेती की अक्सर पर्यावरण के लिए हानिकारक होने की वजह से आलोचना की जाती रही है. लेकिन हार्वर्ड केनेडी स्कूल में पब्लिक पालिसी के सहायक प्रोफेसर रॉबर्ट पार्लबर्ग इस बात से पूरी तरह से असहमत हैं. पार्लबर्ग ने अपनी 2021 की किताब, रिसेटिंग द टेबल: स्ट्रेट टॉक अबाउट द फूड वी ग्रो एंड ईट, में लिखा है, ‘कई दशकों पहले की तुलना में काफी कम भूमि का उपयोग करके आधुनिक खेती न केवल पर्यावरण की रक्षा करती है; बल्कि यह उत्पादित की गई प्रत्येक बुशल के लिए कम पानी, कम जीवाश्म ऊर्जा और कम रसायनों का भी उपयोग करती है.’

एनवायरनमेंट प्रोटेक्शन एजेंसी से प्राप्त साक्ष्यों का हवाला देते हुए, पार्लबर्ग ने लिखा है कि अमेरिकी खेतों में उर्वरक का कुल उपयोग साल 1981 में अपने चरम पर था और पिछले कुछ दशकों से सपाट रूप से उसी स्तर पर बना हुआ है, जबकि फसल के उत्पादन में 44 प्रतिशत की वृद्धि हुई है.

इसी तरह, कीटनाशकों का उपयोग साल 1972 में अपने चरम पर था और तब से इसमें 80 प्रतिशत से अधिक की गिरावट आई है.

यूएसएसईसी में सस्टेनेबिलिटी के निदेशक अभय रिने ने कहा, ‘विपणन वर्ष 2021-22 में, यूएस सोयाबीन निर्यात का लगभग 59 प्रतिशत सोयाबीन सस्टेनेबिलिटी एश्योरेंस प्रोटोकॉल के तहत सस्टेनेबल (टिकाऊ) प्रमाणित किया गया था. फसल की पैदावार दोगुनी होने के साथ ही 1980-2020 के बीच प्रति टन सोया उत्पादन के लिए भूमि के उपयोग में 48 प्रतिशत की गिरावट आई है.’

एक कठिनाई भरा कार्य

अमेरिका में व्यापक रूप से अपनाई जाने वाली उन्नत कृषि पद्धतियों के बावजूद, खेती एक तनावपूर्ण और श्रमसाध्य उद्यम बनी हुई है और भारतीय किसान इसे अच्छी तरह से महसूस कर सकते हैं.

1977 में स्नातक की पढ़ाई पूरी करने के बाद से, विंटर ने अपने कई सारे साल धूल-मिटटी में बिताए हैं पर उनका कहना है कि उनके बच्चे उनके नक्शेकदम पर चलने के लिए उत्सुक नहीं हैं, और वह समझ सकते हैं कि ऐसा क्यों है

वे कहते हैं, ‘इसमें लंबा समय और बहुत मेहनत लगता है, साथ ही बुरे साल भी आते हैं और फिर आपको आश्चर्य होता है कि आप यहां क्यों हैं. बेशक, हर किसी के काम में, शुरू में या बाद में, ऐसा ही होता है.’

(डिस्क्लेमर- इस संवाददाता ने अक्टूबर के महीने में यूएस सोयाबीन एक्सपोर्ट काउंसिल के अतिथि के रूप में यूएस मिडवेस्ट का दौरा किया था.)

(इस खबर अंग्रेजी में पढ़नें के लिए यहां क्लिक करें)


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