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Saturday, 21 December, 2024
होमविदेशराजपक्षे के अपने जिले हंबनटोटा के किसानों को कैसे 'जैविक' खेती और चीनी इन्फ्रा ने घुटनों पर ला दिया

राजपक्षे के अपने जिले हंबनटोटा के किसानों को कैसे ‘जैविक’ खेती और चीनी इन्फ्रा ने घुटनों पर ला दिया

श्रीलंका के हंबनटोटा में किसानों को कारगर खाद के बिना भी अपनी फसलों को जीवित रखने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है. साथ ही उनके सामने गलत तरीके से परिकल्पित बुनियादी परियोजनाओं के कारण विस्थापित हुए उग्र हाथियों के रूप में एक और खतरा पैदा हो गया है.

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हंबनटोटा (श्रीलंका): 70 वर्षीय श्रीलंकाई किसान डब्ल्यू प्रेमसिरी अपने कद्दू की फसल पर जिस मुर्गी के मल से बनी खाद (चिकन मनुरे) का इस्तेमाल करते हैं, वह ‘किसी काम का नहीं है’. उन्होंने दिप्रिंट को दिखाने के लिए एक बोरी में अपना हाथ डाला और नारियल के खोल जितनी खाद को बहार निकालते हुए कहा, ‘इससे कुछ फायदा नहीं हुआ.’

उनका कहना था, ‘अपनी खेती को जैविक खाद पर बदलने के बाद मेरी धान की उपज में 50 प्रतिशत की कमी आई है, मुझे कोई भी अच्छा कद्दू या पपीता नहीं मिला है. मैं कुछ केलों को उगाने में तो सफल हो पाया हूं लेकिन उनका फल बहुत ही छोटा है.’

स्वोडगामा गांव में, जहां प्रेमसिरी और उनका परिवार रहता है, किसानों ने अपनी फसल को सेहतमंद रखने के लिए उन्हें जो कुछ भी मिल सकता है उसी का उपयोग करना शुरू कर दिया है. कुछ लोग गाय के गोबर का उपयोग कर रहे हैं, जो उन्हें उनके इलाके के लंबे समय से पड़ोसियों या दोस्तों से मुफ्त में मिलता है, जबकि कुछ अन्य किसान रासायनिक उर्वरकों (खाद) को आजमाने की कोशिश कर रहे हैं. हालांकि, रासायनिक खाद को हासिल करना न तो आसान है और न ही सस्ता.

करीब एक साल पहले, राष्ट्रपति गोटबाया राजपक्षे ने एक नाटकीय घोषणा के रूप में स्वास्थ्य संबंधी चिंताओं का हवाला देते हुए रासायनिक खाद और कीटनाशकों के आयात पर प्रतिबंध लगा दिया था. उस समय जो रातों-रात ‘जैविक खेती’ पर स्विच करने की नीति थी, वह जमीन पर अलग-अलग तरीकों से अपना रंग दिखा रही है.

किसानों द्वारा किये गए विरोध के बाद पिछले नवंबर में आयात पर लगे प्रतिबंध को आंशिक रूप से वापस ले लिया गया था लेकिन इसकी कमी अभी भी बनी हुई है और यह एक काला बाजार बन गया है.

प्रेमसिरी ने दिप्रिंट को चीन में बने ‘नाइट्रोजन बूस्टर’ का एक पैकेट दिखाया, जिसका उपयोग वह अपनी फसलों पर करते हैं और जिसकी कीमत 60 रॅन्मिन्बी (लगभग 700 रुपये) है. उन्होंने एक ‘तेल’ की भी बात की जो किसी तरह से भारत से लाया जाता है और चोरी-छिपे बेचा जाता है.

उन्होंने कहा, ‘यह तेल’ कुछ नहीं करता है. इसके इस्तेमाल से एक फूल तक नहीं उगता है.’ वह अब अपने चिकन वाले खाद को उन बोरियों में जमा कर के रखते हैं जिनमें कभी वह सोडियम सल्फेट भरा होता था, जिसे पहले चीन से आयात किया जाता था.

उनके पड़ोस के वलसापुगला नामक एक गांव के एक अन्य किसान, एजी धर्मसिरी ने अटकल लगाते हुए कहा कि यह ‘तेल’, जो ‘एग्री सिफ्ट’ ब्रांड का है और ‘मेड-इन-गुजरात’ के लेबल वाली हरी बोतल में बेचा जाता है, भारत से नाव के द्वारा छुपा कर लाया जाता है और गुणवत्ता या मानकों की किसी भी जांच के बिना ही बेचा जाता है.

उन्होंने कहा, ‘(खाद की) भारी कमी ही वह वजह है जिससे कि इस प्रकार के ‘तेल’ लाए जाते हैं. मैं इसका उपयोग करने के प्रति सावधान हूं क्योंकि मेरे किसी परिचित ने इसका उपयोग करने की वजह से अपनी सारी फसल खो दी है.’

भारत में, एक लीटर एग्री सिफ्ट- जिसका उपयोग चावल की खेती में खरपतवार और नरकट (सेज) को नियंत्रित करने के लिए किया जाता है- 290 रुपये में बेचा जाता है. धर्मसिरी के पास जो बोतल थी उसके लेबल पर 750 रुपये लिखा था, जिसके लिए उसने 11,500 श्रीलंकन रुपये (2,400 भारतीय रुपये) का भुगतान किया था. वे कहते है, ‘हम लगभग किसी भी चीज़ का उपयोग कर रहे हैं और कुछ अच्छा होने की उम्मीद कर रहे हैं.’

स्वोडगामा और वलसापुगला दोनों ही राजपक्षे के गृह जिले हंबनटोटा का हिस्सा हैं. इन गांवों के सामने का परिदृश्य हाई-वोल्टेज बिजली वाली बाड़ से घिरा है जो पूर्व प्रधानमंत्री महिंदा राजपक्षे के पहले कार्यकाल के दौरान स्वीकृत बुनियादी ढांचा वाली परियोजनाओं- राजमार्गों और एक बड़े सौर ऊर्जा फार्म की सुरक्षा करता है.

High-voltage fences run alongside the highway | Sowmiya Ashok | ThePrint
हाई-वे के किनारे लगी हाई-वोल्टेज बाड़े |फोटो: सौम्या अशोक | दिप्रिंट

हंबनटोटा बंदरगाह, मटला हवाईअड्डा, एक अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन केंद्र और एक क्रिकेट स्टेडियम सहित कई अन्य बुनियादी ढांचे वाली परियोजनाएं, जिनमे से ज्यादातर चीन द्वारा समर्थित हैं, पूरी जिले भर में बिखरीं पड़ी हैं. जैसा कि फ्रांसीसी संवाद एजेंसी एजेंसे फ़्रांस-प्रेसे (एएफपी) की एक रिपोर्ट में कहा गया है, इनमें से कई परियोजनाएं आज ‘सरकारी अपव्यय के उपेक्षित स्मारकों’ के रूप में खड़ी हैं.

सरकार द्वारा स्वीकृत बुनियादी ढांचा परियोजनाओं ने भी किसानों की आजीविका के नुकसान में योगदान दिया है. इस तरह की पहल द्वारा हंबनटोटा में हाथियों के प्राकृतिक आवास को काफी कम कर दिया गया है, इसलिए मानव-पशु संघर्ष में भी वृद्धि हुई है. इसलिए, यहां के किसानों को न केवल जल्दबाजी के ‘जैविक’ खेती के रूप में बदलाव के परिणाम के साथ संघर्ष करना पड़ रहा है, बल्कि उन्हें हाथियों द्वारा अपने खेतों को तबाह करने और उनके घरों को नष्ट करने से भी निपटना पड़ रहा है.


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विरोध प्रदर्शन असफल, किसान नहीं कर रहे रोपनी, खाद्य सुरक्षा है संकट में

साल 2021 की शुरुआत में, इस जिले के करीब 80 किसान समूहों ने कई हफ्तों तक आंदोलन किया. उन्होंने काले झंडे पकड़े और सरकार से इस क्षेत्र में एक वन्यजीव प्रबंधन रिजर्व का स्पष्ट रूप से सीमांकन करने की मांग की. पर आज के दिन यहां का परिदृश्य काफी शांत है और इस बात के निराशा भाव से भरा हुआ है कि विरोध-प्रदर्शन ज्यादा बदलाव नहीं लाते हैं.

धर्मसिरी ने दिप्रिंट को बताया, ‘कई सारे राजनेता मिलने आए और हमें मदद का आश्वासन दिया, लेकिन कुछ नहीं हुआ.’ वह हाथियों को बाहर रखने के लिए अपने घर के चारों ओर कांटेदार तार लगा रहे हैं और बैटरी से चलने वाली बिजली इस बाड़ के साथ दौड़ रही है.

उन्होंने कहा, ‘यहां विरोध करना व्यर्थ ही है. हाथी की समस्या का कोई समाधान नहीं हुआ और अन्य समस्याओं के लिए विरोध करना भी बहुत उपयोगी नहीं होने वाला है.’

Farmer A.G. Dharmasiri mends a barbed wire fence to keep elephants out of his farm in Walsapugala village | Sowmiya Ashok | ThePrint
फोटो: सौम्या अशोक | दिप्रिंट

प्रेमसिरी के जमीन के टुकड़े के बगल में रहने वाले किसान निमल शांता ने भी इन विरोध प्रदर्शनों में हिस्सा लिया था. उन्होंने दिप्रिंट को बताया कि हाथियों ने तीन अलग-अलग मौकों पर उनके घर को तबाह कर दिया था. उनके घर की दीवारों पर लगी ईंटें अभी भी खुली पड़ी हैं क्योंकि उन्होंने अभी तक उनपर पेंटिंग (पुताई) नहीं की है.

उन्होंने कहा, ‘मैंने केले की खेती के लिए कर्ज लिया था लेकिन हाथियों ने मेरे खेत को नष्ट कर दिया और मेरी सारी उपज खा गए. अब, मैं और मेरे पिता चावल और सब्जियां उगाने के लिए किसी और के खेत में काम करते हैं, जिस पर हम अपना गुजारा करते हैं. हमारे पास बेचने के मकसद से धान की खेती वास्ते ट्रैक्टर चलाने के लिए डीजल खरीदने के पैसे भी नहीं हैं.’

यहां की एक कृषि समिति के प्रमुख महिंदा समरविक्रमा समेत इस क्षेत्र के कई किसानों ने अब मई-अगस्त के छोटी अवधि वाले खेती के मौसम याला के दौरान फसलों की खेती नहीं करने का फैसला किया है.

हालांकि, शांता के लिए यह कोई विकल्प नहीं है. वे कहते हैं, ‘मैं उनके खेती न करने के कारणों को समझ सकता हूं. लेकिन अगर मैं काम नहीं करता और कुछ भी पैदा नहीं करता, तो मैं अपने परिवार का भरण पोषण नहीं कर पाऊंगा.‘

अप्रैल 2022 में, शिक्षाविदों के एक संबंधित समूह, ऐकडेमिक मूवमेंट टू सेफगार्ड एग्रीकल्चर (एएमएसए) ने रासायनिक उर्वरकों पर प्रतिबंध की वर्षगांठ को चिन्हित करने और कैसे इसने श्रीलंका में खाद्य सुरक्षा को खतरा पैदा किया है, इस बात को बताने के लिए एक प्रेस कॉन्फ्रेंस आयोजित की थी.

इसके एक महीने बाद दिए एक बयान में, उन्होंने कहा: ‘हम 2022 के याला सीजन के एक महत्वपूर्ण चरण में हैं, जहां ईंधन, खाद और अन्य आवश्यक इनपुट्स (आगतों) की कमी से फसलों का लगाया जाना (रोपनी) गंभीर रूप से बाधित हुई है.’

इसने कहा, ‘वर्तमान संकट ने कृषि उपज के उत्पादन, प्रसंस्करण, परिवहन और विपणन के वैल्यू चैन में लगभग सभी गतिविधियों को ठप कर दिया है. इनमें स्थानीय आबादी के लिए भोजन और निर्यात-उन्मुख उत्पाद शामिल हैं जो देश में मूल्यवान विदेशी मुद्रा लाते हैं.’

एएमएसए ने यह भी बताया कि वर्तमान याला सीजन की विफलता ‘न केवल आवश्यक खाद्य पदार्थों (चावल, दाल, सब्जियां, फल, अंडे, मांस, आदि) की बहुत अधिक और व्यापक कमी पैदा करेगी, बल्कि 2022-2023 के अगले माहा सीजन के लिए धान के बीज की कमी भी पैदा करेगी.’

बयान में कहा गया है, ‘यह विनाशकारी हो सकता है, माहा सीजन श्रीलंका के राष्ट्रीय धान उत्पादन का दो-तिहाई हिस्सा पैदा करता है. राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा और सामाजिक स्थिरता पर इसकी विफलता के संभावित प्रभाव व्यापक और गंभीर होंगे.’


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‘यह एक मानव निर्मित आपदा है’

श्रीलंकाई कृषि अनुसंधान नीति परिषद के अध्यक्ष प्रोफेसर गामिनी सेनानायके ने कहा कि सैद्धांतिक रूप से जैविक कृषि एक अच्छी पहल है लेकिन इसे गलत तरीके से लागू किया गया है, जिससे इसके विनाशकारी परिणाम सामने आए हैं.

उन्होंने दिप्रिंट को बताया, ‘सरकार ने बहुत ही कम समय में शत-प्रतिशत जैविक खेती अपनाने पर जोर दिया. यह गलत है- आप कृषि के प्रत्येक क्षेत्र को जैविक खेती में नहीं बदल सकते. कुछ क्षेत्रों- जैसे कि फूलों की खेती और कुछ हाई-एन्ड (अच्छी किस्म के) फसलों को रासायनिक आगतों (इनपुट्स) की आवश्यकता होती है.’

उन्होंने कहा, ‘हम आज ऐसी स्थिति में हैं जहां हम आजादी के बाद से दी जा रही सब्सिडी भी नहीं दे सकते हैं. ईंधन, खाद सहित सभी चीजों की लागत बढ़ गई है.’

सेनानायके के दिमाग में इस समस्या का समाधान भी है लेकिन उन्हें डर है कि राजनीतिक स्थिरता के बिना उन्हें कभी भी लागू नहीं किया जा सकता है.

वे कहते हैं, ‘मैंने एक एकीकृत पौध पोषक प्रणाली (इंटीग्रेटेड प्लांट नुट्रिएंट सिस्टम) का प्रस्ताव दिया है जो रासायनिक और जैविक उर्वरकों को आपस में मिलाएगी, तथा पर्यावरण और मिट्टी की सेहत की रक्षा में भी मदद करेगी. लेकिन पेंच यह है कि सलाह देने वाला कौन है और कौन इसे सुन रहा है? इन मुद्दों पर हम किसके साथ चर्चा करें- आज जो मंत्री है कल वह मंत्री नहीं रहेगा.’

Next to Hambantota district hospital, a sign supporting GotaGoGama protests featuring Sri Lankan politician Chamal Rajapaksa | Sowmiya Ashok | ThePrint
फोटो: सौम्या अशोक | दिप्रिंट

यूनिवर्सिटी ऑफ पेराडेनिया के फैकल्टी ऑफ एग्रीकल्चर (कृषि संकाय) में एक कृषि अर्थशास्त्री प्रोफेसर जीविका वीराहेवा ने कहा कि नवीनतम अनुमानों के अनुसार, 2021-22 माहा सीजन के लिए धान की पैदावार में 50 प्रतिशत और मक्का की पैदावार में 70 प्रतिशत की गिरावट आई है.

वे बताती हैं, ‘हम माहा सीजन में फसल में भारी गिरावट देख रहे हैं और चावल और मक्का का आयात करना शुरू कर दिया है. भले ही हमने उर्वरकों का आयात बंद कर दिया हो, पर हमने चावल और मक्का का आयात करना शुरू कर दिया है.’

वीराहेवा के अनुसार, आयात की वजह से इस स्तर पर कोई ‘बहुत अधिक आभाव का मुद्दा’ नहीं है लेकिन स्थानीय उत्पादन में गिरावट और आयात की बढ़ती लागत के वजह से खाद्य सामग्री की कीमतों में भारी वृद्धि एक गंभीर समस्या है.

वे कहती हैं, ‘हमें भारी खाद्य मुद्रास्फीति (खाने-पीने के सामानों की महंगाई) का सामना करना पड़ रहा है. खाद्य सामग्री की कीमतों में 46 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है और इसका गरीबों और कमजोर तबके के लोगों पर गंभीर असर होगा.’ साथ ही उनका कहना है कि बहुत से लोगों के पास ऊर्जा से भरपूर खाद्य पदार्थों के बदले पौष्टिक आहार का त्याग करने के अलावा कोई चारा नहीं होगा.

उन्होंने कहा, ‘हम बड़ी बुरी स्थिति में है. हमें इस तरह के हालात से बचना चाहिए था. यह एक मानव निर्मित आपदा है.’

उधर स्वोडगामा में, शांता ने उस रात को याद किया जब वह, उनकी पत्नी और बच्चे इस डर से अपने घर के बीचों-बीच छिपे बैठे थे कि बाहर खड़ा अकेला नर हाथी उनकी दीवारों को तोड़ देगा और उन्हें चोट पहुंचाएगा.

उन्होंने कहा, ‘हाथी घर के पीछे गया, उसने चावल की एक बड़ी बोरी को घसीटा और उसे ले गया. हमारे पास बस टूटी दीवारें थीं और (खाने को) चावल भी नहीं थे.’

(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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