सारनाथ (वाराणसी): बनारस राजपरिवार के सदस्य प्रदीप नारायण सिंह बचपन से ही उपनिवेशी इतिहास का बोझ ढो रहे थे. सारनाथ के बौद्ध स्तूप पर उनके पूर्वज के बारे में एक शब्द उनके परिवार को दो शताब्दियों तक परेशान करता रहा. और वह शब्द था ‘विध्वंसक’, जो धर्मराजिका स्तूप के बाहर एक पट्टिका पर लिखा था. यह उनके लिए लगातार शर्मिंदगी का कारण बना रहा और फिर एक समय ऐसा आया जब वे इसे और अनदेखा नहीं कर सके.
उस पट्टिका पर एक बार लिखा था कि उनके पूर्वज बाबू जगत सिंह, जो महाराजा चैत सिंह के दीवान थे, ने निर्माण सामग्री इकट्ठा करने के लिए तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व के धर्मराजिका स्तूप को नष्ट कर दिया था. लेकिन जगत सिंह 18वीं सदी के महाराजा के दीवान नहीं थे – वे उनके चचेरे भाई थे. और यह “विध्वंस” वास्तव में भारत के सबसे पुराने बौद्ध अवशेष स्थलों की खोज थी. हालांकि, ब्रिटिश द्वारा लिखे इतिहास में सही ढंग से जानकारी पेश नहीं की गई.
यह एक गलत चित्रण था जिसने शाही परिवार को लंबे समय तक प्रभावित किया. लेकिन सिंह इतिहास को बदलना चाहते थे वो भी साक्ष्यों के साथ.
वाराणसी के जगतगंज कोठी के लॉन में बैठे 63 वर्षीय सिंह ने कहा, “बचपन से ही मैंने अपने पूर्वज के बारे में नकारात्मक बातें सुनी और पढ़ी हैं. उन्हें इतिहास में एक खलनायक के रूप में चित्रित किया गया था और परिवार में हम लोगों के लिए यह दुखद है. हम सबूतों के साथ इसे बदलना चाहते थे.”
पीढ़ियों से चले आ रहे कलंक को मिटाने और इतिहास में अपने पूर्वज की सही जगह वापस दिलाने के लिए, सिंह ने पांच साल तक भारत और ब्रिटेन के अभिलेखों में खोजबीन की. उनके इन प्रयासों के बाद आखिरकार जनवरी में आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया (एएसआई) ने आधिकारिक पट्टिका में बदलाव किया. अब यह जगत सिंह को एक विध्वंसक के रूप में नहीं, बल्कि सारनाथ के दबे हुए अतीत को उजागर करने वाले पहले व्यक्ति के रूप में मान्यता देता है. इतना ही नहीं, एएसआई स्थल के प्रवेश द्वार पर लगी मुख्य पट्टिका को भी बदलने की योजना बना रहा है ताकि सारनाथ के महत्व को उजागर करने का श्रेय जगत सिंह को दिया जा सके, न कि ब्रिटिश पुरातत्वविदों को.

भारत सारनाथ—जहां बुद्ध ने ज्ञान प्राप्ति के बाद अपना पहला उपदेश दिया था—को यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल घोषित करने के लिए प्रयासरत है. ऐसे में, सिंह द्वारा अपने परिवार के इतिहास को उपनिवेश मुक्त करने की लड़ाई, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार और सत्तारूढ़ भाजपा द्वारा भारत के ऐतिहासिक आख्यान में औपनिवेशिक विकृतियों को दूर करने के एक बड़े आंदोलन का प्रतिबिंब है. यह एक व्यक्तिगत लड़ाई होने के साथ-साथ ब्रिटिश औपनिवेशिक अन्याय के प्रति राष्ट्र का प्रतिकार भी था. सिंह के अभियान ने सदियों के इंतजार को खत्म कर दिया.
जगत सिंह रॉयल फैमिली प्रोजेक्ट के बैनर तले एक शोध दल का नेतृत्व कर रहे सिंह ने कहा, “पांच साल की कड़ी मेहनत के बाद उभरे नए ज्ञान ने सारनाथ का इतिहास बदल दिया. कभी जगत सिंह को विध्वंसक के रूप में चित्रित किया जाता था, अब यह बदल रहा है. इस स्थल का वास्तविक इतिहास दुनिया के सामने आया. बाबू जगत सिंह के बिना सारनाथ का इतिहास अधूरा है.”
सिंह के लिए, यह परियोजना इस बात का प्रमाण है कि इतिहास को अभी भी सुधारा जा सकता है – अगर गहराई से जानने की इच्छाशक्ति हो.
इतिहास को सही करने के लिए पारिवारिक संघर्ष
200 से ज़्यादा सालों तक, सिंह के परिवार में किसी ने भी इस कहानी को सही करने की कोशिश नहीं की थी. यहां तक कि उन्होंने भी 50 की उम्र के बाद तक ऐसा नहीं किया था. उन्होंने बताया कि वाराणसी में लोग हमेशा से जानते थे कि यह शिलालेख एक गलत चित्रण है और उनके पिता को “राजा साहब” कहते थे. हालांकि, स्थानीय हलकों से परे, औपनिवेशिक संस्करण कायम रहा.
2018 में, जब उनके पिता का निधन हुआ, तो आखिरकार उन्हें परिवार के विकृत अतीत का सामना करने के लिए प्रेरित किया. सांस्कृतिक माहौल भी इसके लिए अनुकूल था.
सिंह ने जगतगंज कोठी की गुलाबी दीवार पर टंगे परिवार के वंशावली चार्ट की ओर इशारा करते हुए कहा, “इतिहास की खोज शुरू करना बहुत मुश्किल था क्योंकि हमारे पास अपने पूर्वजों के बारे में कोई विस्तृत विवरण नहीं है. लेकिन मुझमें इच्छाशक्ति और प्रधानमंत्री मोदी से प्रेरणा मिली, जब उन्होंने भारत के गुमनाम नायकों को खोजने की बात की.”

वाराणसी के जगतगंज इलाके में एक होटल चलाने वाले सिंह को इतिहास का कोई औपचारिक प्रशिक्षण नहीं है. फिर भी, अपने पारिवारिक इतिहास को सही करने के उनके उत्साह ने उन्हें अभिलेखागार और दुर्लभ पुस्तकों की गहन जांच करने के लिए प्रेरित किया. अब अलेक्जेंडर कनिंघम और दया राम साहनी द्वारा एएसआई की रिपोर्टों के शब्द उन्हें मुंहजबानी याद है.
उन्होंने कहा, “पहले दिन से ही मैं चाहता था कि यह खोज पेशेवर तरीके से की जाए. इसलिए मैंने उन इतिहासकारों और शिक्षाविदों को शामिल करने का फैसला किया जिनके पास सही विशेषज्ञता हो.” उन्होंने आगे कहा कि वह इस प्रक्रिया में कोई जल्दबाजी नहीं करना चाहते थे.
इतिहास को सही करने का अभियान 2019 में एक छोटे समूह—सेवानिवृत्त बीएचयू प्रोफेसर राणा पीबी सिंह, अधिवक्ता त्रिपुरारी शंकर और सिंह के कुछ करीबी दोस्तों के साथ शुरू हुआ. उन्होंने मिलकर जगत सिंह शाही परिवार परियोजना की शुरुआत की.
राणा ने याद किया कि पहली बैठक 2019 में त्रिपुरारी शंकर के घर पर हुई थी. किसी को भी यकीन नहीं था कि इससे कुछ हासिल होगा.
राणा पीबी सिंह ने कहा, “यह यात्रा तब शुरू हुई और अब भी जारी है. हर गुजरते दिन के साथ जगत सिंह के बारे में नए तथ्य सामने आ रहे हैं.” सिंह, भूगोल के सेवानिवृत्त प्रोफेसर और वाराणसी और सारनाथ के परिदृश्य पर कई किताबें लिख चुके हैं.

हाल ही में, खोज समिति को जगत सिंह द्वारा फ़ारसी में लिखा गया 1787 का दो पन्नों का एक पत्र मिला, जिससे उनकी फ़ारसी भाषा के ज्ञान का पता चलता है. सिंह ने कहा, “हमें यह पत्र नेशनल आर्काइव ऑफ इंडिया (एनएआई) से मिला. जगत सिंह ने ईस्ट इंडिया कंपनी के विदेश विभाग को लिखा था.”
टीम ने लंदन स्थित ब्रिटिश लाइब्रेरी से उनके खिलाफ 1799 में अंग्रेजों के खिलाफ उनके नेतृत्व में किए गए विद्रोह से संबंधित एक षड्यंत्र के मामले से संबंधित दस्तावेज़ भी खोज निकाले.
बनारस निज़ामत अदालत की 22 जुलाई 1799 की कार्यवाही में लिखा है, “बाबू जगत सिंह को सरकार के खिलाफ षड्यंत्र रचने और सेना इकट्ठा करने के उद्देश्य से जगन्नाथ सिंह को पत्र लिखने और संदेश भेजने का दोषी ठहराया गया था.”
एक अज्ञात विद्रोही
पुराने अभिलेखों के ढेरों को खंगालकर जगत सिंह की कहानी को पूरा करने के लिए, वसंता महिला महाविद्यालय की सहायक प्रोफेसर श्रेया पाठक को प्रमुख शोधकर्ता के रूप में शामिल किया गया.
पाठक ने 2023 में अपना मसौदा प्रस्तुत करने से पहले चार साल भारतीय अभिलेखागारों की छानबीन की. उन्होंने बताया कि उन्होंने राष्ट्रीय अभिलेखागार, उत्तर प्रदेश और बंगाल राज्य अभिलेखागार, और इलाहाबाद व वाराणसी के क्षेत्रीय अभिलेखागार का दौरा किया.
पाठक ने कहा, “मुझे मिले ज़्यादातर दस्तावेज़ ईस्ट इंडिया कंपनी के विदेश और राजनीतिक विभाग के थे.” लेकिन जब उन्होंने 1799 के विद्रोह के बारे में अभिलेख खोजे, तो सामग्री कम मिली.
पाठक ने कहा, “कई दस्तावेज़ गायब हैं. मुझे केवल मुकदमे का अंतिम फैसला मिला, लेकिन कार्यवाही के दस्तावेज़ गायब थे. साथ ही, जगत सिंह पर लगे आरोपों के बारे में भी कुछ नहीं मिला है.” “लेकिन उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह किया था और बनारस 15 दिनों के लिए आज़ाद था.”

हालांकि, सिंह संतुष्ट नहीं थे. वह कुछ और ठोस चाहते थे. फिर उन्होंने इतिहासकार एच.ए. कुरैशी से संपर्क किया, जो “फ्लिकर्स ऑफ़ एन इंडिपेंडेंट नवाबी: नवाब वज़ीर अली ख़ान ऑफ़ अवध” के लेखक थे—एक ऐसी किताब जिसमें विद्रोह में जगत सिंह की भूमिका के बारे में कुछ विवरण थे.
सिंह ने कुरैशी से उनके लखनऊ स्थित आवास पर मुलाकात की और उन्हें वाराणसी आमंत्रित किया. इसके तुरंत बाद, कुरैशी इस परियोजना के संरक्षक और “द लॉस्ट हीरो ऑफ़ बनारस: बाबू जगत सिंह” के मुख्य लेखक के रूप में शामिल हो गए, जिसे पिछले साल प्राइमस बुक्स द्वारा प्रकाशित किया गया था.
किताब के ऑनलाइन विवरण में कहा गया है कि यह “1799 में बनारस में जगत सिंह के तत्वावधान में शुरू किए गए एक सशस्त्र ब्रिटिश-विरोधी संघर्ष पर केंद्रित है”.

अपने वंशज के जुनून का नतीजा यह हुआ कि इस किताब के ज़रिए जगत सिंह को फ़ुटनोट और पट्टिका पर अंकित खलनायक से ऊपर उठाकर एक नायक और खोजकर्ता बना दिया गया.
बीएचयू में इतिहास के प्रोफेसर ध्रुब कुमार सिंह ने प्रस्तावना में लिखा, “अपने पूर्वजों को श्रद्धांजलि देने की इच्छा ने (प्रदीप नारायण सिंह) को प्रेरित किया. अन्यथा, इन बिखरे हुए स्रोतों को एकत्रित करने, संकलित करने और उनकी व्याख्या करने का कठिन कार्य कौन करता?”
शुरू से ही, सिंह ने पत्रों और आधिकारिक अभिलेखों जैसे प्राथमिक स्रोतों पर भरोसा करने पर ज़ोर दिया.
सिंह ने कहा, “मैंने बंगाल, दिल्ली, लखनऊ और यहां तक कि ब्रिटिश लाइब्रेरी के अभिलेखागार से भी संपर्क किया है. अभिलेखागार से (जगत सिंह के खिलाफ मामले के समाधान पर) एक कागज़ का टुकड़ा ढूंढ़ने में महीनों लग गए. लेकिन मैंने अपना धैर्य नहीं खोया.”
सिंह ने कहा, “मैंने भारत से लेकर ब्रिटेन तक इस ऐतिहासिक खोज पर 21 लाख रुपये खर्च किए हैं.” लेकिन उन्हें असली तसल्ली तब मिली जब एएसआई ने धर्मराजिका स्तूप पट्टिका पर लगे आरोप को मिटा दिया.
रिसर्च जिसने सारनाथ का इतिहास बदल दिया
सिंह ने बचपन में सारनाथ की अपनी यात्रा को याद करते हुए बताया कि उन्होंने एक पट्टिका देखी थी जिस पर लिखा था कि “दीवान” जगत सिंह ने निर्माण सामग्री के लिए धर्मराजिका स्तूप को नष्ट कर दिया था. यह पट्टिका कब लगाई गई, इस बारे में अनिश्चितता है, हालांकि संभवतः इसे 1910 में सारनाथ संग्रहालय की स्थापना के बाद लगाया गया था.
सिंह ने कहा, “यह गलत था – जगत सिंह, चैत सिंह के दीवान नहीं थे. वे चचेरे भाई थे. नई पट्टिका में, एएसआई ने हमारे शोध के आधार पर इस गलती को सुधारा है.” उन्होंने एएसआई के एक पत्र की प्रति दिखाई जिसमें उसके संयुक्त महानिदेशक प्रवीण कुमार मिश्रा ने सारनाथ मंडल के अधिकारियों को धर्मराजिका स्तूप का विवरण बदलने का निर्देश दिया था.

पत्र में लिखा है, “आपसे अनुरोध है कि स्मारक की प्रकृति के अनुरूप ठोस सामग्री पर एक नया सांस्कृतिक सूचना पट्ट (सीएनबी) तैयार करें और इसे यथाशीघ्र किसी उपयुक्त स्थान पर स्थापित करें, और इस कार्यालय को सूचित करें.”
जुलाई 2024 में, राणा पीबी सिंह ने एएसआई महानिदेशक को पत्र लिखकर आग्रह किया कि “द लॉस्ट हीरो ऑफ़ बनारस” में प्रस्तुत साक्ष्यों के आलोक में सारनाथ के इतिहास को सही किया जाए.
उनके पत्र में लिखा था: “बाबू जगत सिंह 1787 में सारनाथ स्थित धर्मराजिका स्तूप के खोजकर्ता और संरक्षक थे, न कि विध्वंसक, जैसा कि अंग्रेजों ने गलत प्रचार किया था.”
नए निष्कर्षों पर कार्रवाई करने के लिए एएसआई पर महीनों के दबाव के बाद, इस वर्ष जनवरी में आखिरकार एक संशोधित पट्टिका लगाई गई. अब इसमें लिखा है कि “यह स्तूप 1794 में तब प्रकाश में आया जब बाबू जगत सिंह द्वारा निर्माण सामग्री निकालने के लिए लगाए गए मजदूरों को एक पत्थर के बक्से के अंदर हरे संगमरमर का एक अवशेष संदूक मिला.”

परिवार ने एएसआई के इस कदम का स्वागत करने के लिए जगतगंज कोठी में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस का आयोजन किया.
सिंह ने कहा, “यह शिला पट्टिका काशीवासियों के प्रति श्रद्धांजलि और शोध समिति के संघर्ष का सम्मान है. इस शोध के लिए अत्यधिक परिश्रम की आवश्यकता थी. हमें कई बार निराशा का सामना करना पड़ा, लेकिन हमने कभी हार नहीं मानी. अगर इतिहास का सही ढंग से अन्वेषण किया जाए, तो कई नायक और नायिकाएं सामने आएंगी.”
पट्टिका परिवर्तन को स्थानीय प्रेस में व्यापक रूप से कवर किया गया. एक शीर्षक था, “काशी में बदला सारनाथ का इतिहास”. एक और ने गर्व से घोषणा की, अंग्रेजों ने नहीं, बनारसी राजा के परिवार ने कराई थी सारनाथ की खुदाई.
पर्दे के पीछे, एएसआई ने यह बदलाव करने से पहले खुद के स्तर पर साक्ष्यों की जांच की.
एएसआई के एक वरिष्ठ अधिकारी ने नाम न छापने की शर्त पर बताया, “एएसआई में किसी स्थल का विवरण बदलना जटिल होता है. स्मारकों का विवरण लिखते समय हम ऐतिहासिक अभिलेखों और एएसआई रिपोर्टों पर निर्भर करते हैं. सारनाथ पर भी यही बात लागू होती है. लेकिन जब नए अभिलेखीय साक्ष्य सामने आए, तो हमने जगत सिंह से संबंधित प्रविष्टि को संशोधित कर दिया.”
सिंह की टीम ने एएसआई की वार्षिक रिपोर्टों, 18वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में ईस्ट इंडिया कंपनी के रेजिडेंट रहे जोनाथन डंकन के लेखों और बंगाल की एशियाटिक सोसाइटी के अभिलेखागार का गहन अध्ययन किया.

दिप्रिंट को मिले बंगाल एशियाटिक सोसाइटी के दस्तावेज़ों के अनुसार, जगत सिंह के कर्मचारियों ने 1787 में खुदाई शुरू की थी, लेकिन स्तूप स्वयं 1794 में प्रकाश में आया. खजाने से भरा एक हरा मंजूषा (अवशेषों का बक्सा) जोनाथन डंकन को भेजा गया था.
सबसे पुख्ता सबूतों में से एक कनिंघम की “चार रिपोर्ट्स मेड ड्यूरिंग द इयर्स, 1862-63-64-65” से मिला, जिसमें स्पष्ट रूप से “जगत सिंह द्वारा उत्खनित स्तूप स्थल” का उल्लेख है. पुरातत्वविद् ने उस पहली खोज के दौरान एक बूढ़े व्यक्ति, शंकर, जो एक बालक था, के संपर्क में आने के बारे में भी लिखा है.
शंकर ने कनिंघम को बताया कि उसने जगत सिंह की मदद की थी और दो बक्सों की खुदाई देखी थी—एक बाहरी बक्सा साधारण पत्थर का और एक भीतरी बेलनाकार बक्सा हरे संगमरमर का.
कनिंघम ने लिखा, “भीतरी संदूक में 40 से 46 मोती, 14 माणिक, 8 चांदी और 9 सोने की बालियां (कर्णफूल), और मानव भुजा की हड्डी के तीन टुकड़े थे. संगमरमर के संदूक को बड़ा साहिब (जोनाथन डंकन) के पास ले जाया गया.”
शंकर की मदद से, कनिंघम ने एक पत्थर के संदूक को ढूंढ निकाला, जिसके बारे में उन्हें लगा कि वह वही है और लगभग साठ मूर्तियों के साथ उसे बंगाल एशियाटिक सोसाइटी को भेंट किया, जहां उसे उनके नाम से सूचीबद्ध किया गया.
कनिंघम ने अपनी रिपोर्ट में उल्लेख किया कि डंकन ने बंगाल एशियाटिक सोसाइटी को खज़ाना सौंपने का दावा किया था. लेकिन सिंह के शोध से पता चलता है कि उन्होंने ऐसा कभी नहीं किया, और अब सारा खज़ाना गायब है.
2013-14 में सारनाथ की खुदाई करने वाले एक अनुभवी पुरातत्वविद् बीआर मणि ने कहा, “ऐसा माना जाता है कि डंकन ने इसे एशियाटिक सोसाइटी को दे दिया था, लेकिन लगभग दो साल पहले की गई खोज में उस संगमरमर के संदूक का कोई निशान नहीं मिला.” “ब्रिटिश अधिकारियों ने हरे रंग के ताबूत को गलत तरीके से संभाला जो आज भी गायब है.”
एक स्वतंत्रता सेनानी का उदय
12 अक्टूबर को, लगभग 200 लोग जगतगंज कोठी में बाबू जगत सिंह की विरासत का जश्न मनाने के लिए एकत्रित हुए. व्याख्यान ने उनकी कहानी में एक नया आयाम जोड़ा—उन्हें एक ऐसे स्वतंत्रता सेनानी के रूप में चित्रित किया जिन्होंने 1799 में अंग्रेजों के खिलाफ शुरुआती विद्रोह का नेतृत्व किया था.
इस व्याख्यान में, जिसमें बीएचयू के कई प्रोफेसरों ने भाग लिया, एक भव्य शीर्षक था: स्वतंत्रता संग्राम सेनानी: बाबू जगत सिंह, 1787 – सारनाथ की पहचान और प्रथम स्वतंत्रता संग्राम 1799.
नया कथानक यह है कि अवध के नवाब आसफ-उद-दौला की मृत्यु के बाद, उनके पुत्र वज़ीर अली 1797 में गद्दी पर बैठे, लेकिन अंग्रेजों ने उन्हें हटाने की साजिश रची.

शोध समिति के सदस्य अरविंद कुमार सिंह ने बताया, “वजीर अली काशी आए, जगत सिंह से मिले और 1799 में एक विद्रोह की योजना बनाई जिसमें पांच अंग्रेज़ अधिकारी मारे गए.”
इसके बाद, वज़ीर अली शहर छोड़कर चले गए, लेकिन जगत सिंह वहीं रुक रहे.
अरविंद कुमार ने बताया, “अंग्रेजों को उन्हें गिरफ्तार करने में दो महीने लग गए.” उन्होंने आगे बताया कि जगत सिंह को उसी साल जगतगंज कोठी में ही पकड़ लिया गया था.
उन्हें पहले चुनार जेल भेजा गया और फिर सेंट हेलेना, एक सुदूर दक्षिण अटलांटिक द्वीप, जो बाद में नेपोलियन बोनापार्ट का निर्वासन स्थल बना, में कारावास की सजा सुनाई गई. सेंट हेलेना ले जाए जाने से पहले ही जगत सिंह ने बंगाल में गंगा नदी में कूदकर अपनी जान दे दी.
जगतगंज कोठी, जिसका प्रदीप नारायण सिंह ने जीर्णोद्धार किया है, में जगत सिंह से संबंधित दस्तावेज़ और ब्रिटिश काल के पत्र अब दीवारों पर फ़्रेम में लगे हैं.

पहली मंजिल पर वह कमरा है जहां से अंग्रेजों ने जगत सिंह को गिरफ्तार किया था. इसके बगल में एक नया पुस्तकालय है जिसमें और भी अभिलेख हैं.
स्पेस एंड कल्चर पत्रिका में राणा पीबी सिंह और प्रियंका झा द्वारा की गई समीक्षा में लिखा है, “ब्रिटिश शासकों ने जगत सिंह को अंग्रेज-विरोधी, सविनय अवज्ञा का नेता और सारनाथ के पवित्र स्थल का विध्वंसक घोषित किया. इस आख्यान ने आज़ादी के 77 साल बाद भी, किसी न किसी तरह उनके योगदान को धूमिल कर दिया.”
कुछ इतिहासकारों के अनुसार, अंग्रेजों द्वारा लंबे समय से विकृत इतिहास को अब सही किया जा रहा है.
बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में इतिहास और कला की प्रोफेसर ज्योति रोहिल्ला राणा ने कहा, “इसे भारत के अतीत के उपनिवेशीकरण के संदर्भ में समझा जा सकता है. हम पर अभी भी औपनिवेशिक प्रभाव है. उपनिवेशीकरण से सांस्कृतिक गौरव की प्राप्ति होती है – इसके लिए स्वदेशी स्रोतों की आवश्यकता है. जगत सिंह के इतिहास को इसी संदर्भ में देखा जा सकता है.”
राणा के लिए, पट्टिका को बदलना केवल तथ्यात्मक सुधार से कहीं अधिक है.
उन्होंने कहा, “यह हमारे खोए हुए नायकों को एक उचित मंच प्रदान करने में अपने आप में एक महत्वपूर्ण योगदान है.”

यह कार्यक्रम यूनेस्को की सलाहकार संस्था, अंतर्राष्ट्रीय स्मारक एवं स्थल परिषद (ICOMOS) की एक टीम द्वारा विश्व धरोहर स्थल का दर्जा पाने के लिए भारत की नामांकन प्रक्रिया के तहत सारनाथ का दौरा करने के कुछ ही हफ़्ते बाद आयोजित किया गया था. पिछले साल, 8.4 लाख पर्यटकों ने इस स्थल का दौरा किया था.
प्रदीप नारायण सिंह ने आए अधिकारियों से मुलाकात की और उन्हें सारनाथ के पुरातात्विक महत्व को उजागर करने में अपने पूर्वज की भूमिका से जुड़े दस्तावेज़ दिए.
अब जगत सिंह की संशोधित विरासत वाराणसी शहर में भी गूंज रही है. पिछले साल, योगी आदित्यनाथ सरकार में मंत्री रवींद्र जायसवाल ने जगतगंज में एक स्मारक स्थल, जगत सिंह द्वार का उद्घाटन किया था, जिस पर लिखा था: शहीद बाबू जगत सिंह द्वार – जनवरी 1799 में अंग्रेजों के खिलाफ़ हुए शस्त्र विद्रोह के नायक.
उद्घाटन के अवसर पर जायसवाल ने कहा, “जगतगंज राजपरिवार द्वारा बाबू जगत सिंह के इतिहास को उजागर करने और उसे जनता के सामने लाने का प्रयास ऐतिहासिक है. जगत सिंह न केवल काशी, बल्कि पूरे देश के लिए एक अमूल्य निधि हैं.”
जगत सिंह के नाम को पुनर्स्थापित करने का यह अभियान कक्षाओं तक भी फैल रहा है. भाजपा नेता मुरली मनोहर जोशी ने एनसीईआरटी के निदेशक दिनेश सकलानी को पत्र लिखकर इस कहानी को पाठ्यपुस्तकों में शामिल करने का आग्रह किया. जोशी ने सकलानी को जगत सिंह पर लिखी पुस्तक की एक प्रति अपने अनुरोध के साथ भेजी.
सकलानी ने जोशी को जवाब देते हुए कहा, “यह पुस्तक एनसीईआरटी पुस्तकालय में खरीद और संदर्भ के लिए उपलब्ध होगी. इसे पाठ्यपुस्तक विकास समिति के ध्यान में भी लाया जाएगा और उपलब्ध साक्ष्यों का पुस्तकों में उचित उपयोग किया जाएगा.”
इस ऐतिहासिक परियोजना की सफलता के बाद, शोध दल के सदस्य अब प्रदीप नारायण सिंह के लिए पीएचडी की उपाधि की मांग कर रहे हैं.
कार्यक्रम में राणा पीबी सिंह ने दर्शकों की तालियों की गड़गड़ाहट के बीच कहा, “अपने उत्कृष्ट शोध के लिए वह पीएचडी के हकदार हैं.”
लेकिन सिंह की खोज अभी खत्म नहीं हुई है. उन्होंने बताया कि मोदी सरकार इस साल पिपरहवा रत्न—बुद्ध से जुड़े अवशेष—स्वदेश लाई है, जिन्हें सोथबी द्वारा नीलाम किया जा रहा था. लेकिन सारनाथ धर्मराजिका स्तूप के पत्थर और मोती अभी भी गायब हैं.
उन्होंने कहा, “जब तक हम उन्हें ढूंढ नहीं लेते, हम अपने प्रयास जारी रखेंगे.”
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