बक्सर: तीस सेकंड का एक वायरल चुनावी वीडियो एक युवा मज़दूर से शुरू होता है, जो ऐतिहासिक बक्सर ज़िले में बने नए एथनॉल कारखाने में नौकरी मिलने पर गर्व महसूस करता है. दिल्ली जाकर काम ढूंढ़ने के बजाय घर में रहने की उसकी यह कहानी बिहार विधानसभा चुनाव में बीजेपी के प्रचार का मुख्य हिस्सा है. एक अन्य वीडियो में ‘डबल-इंजन की सरकार’ को बिहार को देश का सबसे बड़ा एथनॉल हब बनाने का श्रेय दिया गया है.
दोनों विज्ञापन एक आकर्षक टैगलाइन पर खत्म होते हैं: ‘रफ़्तार पकड़ चुका है बिहार’.
अपने चुनावी भाषणों में एनडीए गठबंधन के नेता, बीजेपी-जेडीयू, इन कारखानों को औद्योगिक विकास और रोजगार सृजन के बड़े उदाहरण के रूप में पेश कर रहे हैं, ताकि पलायन और बेरोजगारी की कथित कहानी का जवाब दिया जा सके. ‘बिहार के किसान अन्नदाता के साथ-साथ ऊर्जा दाता भी बनेंगे’, ‘अब बाहुबलीयों के डर से उद्योग भाग नहीं रहे हैं’.
यह एक छोटी शुरुआत है लेकिन बिहार की कहानी के लिए बड़ी उपलब्धि. और नेता इसे दिखाने के लिए उत्सुक हैं कि बदलाव शुरू हो चुका है. यह लंबे समय से इंतज़ार में थे. दिल्ली, मुंबई, बेंगलुरु, हैदराबाद, चेन्नई और कोचीन में काम करने वाले बिहारी प्रवासी मज़दूर की छवि भारत की असमान तरक्की का प्रतीक बन गई है. 2022-23 की बिहार जाति सर्वे रिपोर्ट के अनुसार, 2.65 करोड़ लोग बिहार के बाहर रहते हैं.
टेक्सटाइल यूनिट्स की तुलना में, जो अधिक श्रम-प्रधान होती हैं और ज्यादा कामगारों को रोजगार देती हैं, एथनॉल फैक्ट्रियां अपनी ऊंची चिमनियों के साथ नीतीश सरकार की बिहार को औद्योगिक राज्य बनाने की चुनावी कहानी को मजबूत कर रही हैं. ये फैक्ट्रियां राज्य सरकार के लिए एक शक्तिशाली दृश्य प्रतीक बन गई हैं.
बक्सर शहर से लगभग 40 किलोमीटर दूर नवानगर गांव में, भारत प्लस एथनॉल प्राइवेट लिमिटेड का कारखाना दिन-रात चलता है, जिसकी चिमनियों से धुआं उठता रहता है. यह कारखाना बिहार इंडस्ट्रियल डेवलपमेंट अथॉरिटी (BIADA) की औद्योगिक बस्ती में बना है. 200 करोड़ रुपये की लागत से 20 एकड़ जमीन पर बने इस कारखाने की उत्पादन क्षमता 100 किलोलीटर है.
जब भारत पेट्रोल वाहनों में एथनॉल के उपयोग को लेकर गंभीर है, तब ग्रामीण बिहार की यह छोटी फैक्ट्री बिहार और राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के बीच एक कड़ी बन रही है. लेकिन इसका बड़ा उद्देश्य है बिहारी लोगों को बिहार में ही रखना.

“मैं इस नई औद्योगिक बस्ती में प्लांट लगाने वाला पहला व्यक्ति था. जब मैं पहली बार यहां आया, तो जहां तक नज़र जाती थी, खेत ही खेत थे,” कंपनी के चेयरमैन और मैनेजिंग डायरेक्टर अजय कुमार सिंह ने कहा. उन्होंने 38 वर्षीय अजीत कुमार शाही, जो यूपी के रहने वाले हैं, को 2024 में उद्घाटन के बाद फैक्ट्री के जनरल मैनेजर (ऑपरेशन) के रूप में लाया.
जल्द ही, फैक्ट्री ने नवानगर की सूरत बदल दी. आज यहां किराए के मकान, खाने-पीने की दुकानें, एक छोटी चाय की दुकान और एक कामकाजी माहौल बन चुका है. दुमरांव से बियाडा (BIADA) बस्ती तक का सफर ‘रिवर्स माइग्रेशन’ और नई आकांक्षाओं की कहानी कहता है.
“मेरी प्राथमिकता स्थानीय लोगों को मौका देना था, और मेरी 80% वर्कफोर्स आस-पास के 15 किलोमीटर के दायरे के गांवों से है,” सिंह ने कहा. एथनॉल फैक्ट्री में करीब 700 कर्मचारी हैं, जिनमें 300 कुशल और बाकी अकुशल हैं. थोड़ी दूरी पर ही सिंह ने एक राइस मिल और एक सॉल्वेंट प्लांट भी खोला है, जहां 250 स्थानीय लोग और काम करते हैं.
घर के पास नौकरी
प्रिंस कुमार सिर्फ़ सोलह साल के थे जब वह गंगा किनारे बसे कृषि आधारित ब्लॉक नवानगर से काम की तलाश में निकले थे. अगले चार साल उन्होंने दक्षिण भारत के एक शहर से दूसरे शहर जाते हुए, छोटे-मोटे काम करते हुए बिताए, फिर गांव लौट आए. कर्नाटक में रहते हुए उन्होंने खाना बनाना सीख लिया था. यही कौशल नवानगर लौटने पर उनके काम आया. नवानगर ने उन्हें वापस आने की कोई वजह नहीं दी थी. शादी और पारिवारिक ज़िम्मेदारियों ने उन्हें लौटने पर मजबूर किया.
महेंद्र पासवान और फुलवा देवी के बड़े बेटे होने के नाते, कुमार पर अपने छोटे भाई की पढ़ाई का खर्च उठाने की ज़िम्मेदारी भी थी, ताकि वह दिहाड़ी मज़दूरी से निकलकर किसी दफ्तर की नौकरी की कोशिश कर सके.
“मैं घर पर था, लेकिन काम ज़्यादा नहीं था,” उन्होंने याद किया. शुरुआत में वह ठेले पर सिंघाड़ा (समोसा) बेचने लगे.
अब 30 साल की उम्र में, कुमार एथनॉल फैक्ट्री में कुक के तौर पर काम करते हैं. उनके कच्चे, मिट्टी के बने घर से फैक्ट्री सिर्फ़ दो किलोमीटर दूर है. उन्हें यहां काम करते हुए ग्यारह महीने हो गए हैं और वह महीने का 16,000 रुपये घर ले आते हैं. हर सुबह फैक्ट्री की गाड़ी उन्हें लेने आती है और आठ घंटे की शिफ्ट के बाद शाम को घर छोड़ देती है.

“जब मैं फैक्ट्री निर्माण स्थल देखता था, तो गार्ड से पूछता था कि क्या मेरे लिए कोई काम है,” उन्होंने याद किया. “बड़े शहर में काम करने वाला भी लगभग इतना ही कमाता है,” उन्होंने आत्मविश्वास से कहा.
और बात सिर्फ़ पैसों की नहीं है. अब कुमार के पास घर के दूसरे काम करने का समय भी है. शिफ्ट के बाद वह घर लौटकर परिवार की गाय-भैंसों की देखभाल करते हैं और अपने पिता की छोटी ज़मीन पर खेती भी करते हैं.
सबसे बड़ा बदलाव, प्रिंस की मां फुलवा देवी के अनुसार, यह है कि अब उसे छठ और दशहरा पर घर आने के लिए पूरे साल इंतिज़ार नहीं करना पड़ता.
“ताकत मिलता है,” उन्होंने कहा, यह जोड़ते हुए कि जब परिवार में कोई बीमार हो जाता है, तो यह जानकर कि बेटा आसपास है, परिवार को सहारा मिलता है.
बदलते छोटे शहर
प्रिंस कुमार और उनके जैसे हज़ारों लोगों की ज़िंदगी में आया यह बदलाव बिहार की एथनॉल प्रोडक्शन प्रमोशन पॉलिसी 2021 से शुरू हुआ. एथनॉल को लेकर ज़ोर सरकार के शीर्ष स्तर से आया, जहां केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी सार्वजनिक मंचों पर नेशनल पॉलिसी ऑन बायोफ्यूल्स 2018 का समर्थन कर रहे थे. राज्यों को एथनॉल उत्पादन बढ़ाने के लिए प्रोत्साहित किया गया. एथनॉल को लेकर बढ़ी चर्चा ने राज्यों में तेजी से कदम उठाने की प्रक्रिया शुरू कर दी—एक साल में पूरे भारत में 138 नए प्लांट मंज़ूर किए गए.
बिहार भारत का पहला राज्य बना जिसने अपनी खुद की एथनॉल नीति लॉन्च की. उसी साल, उसने देश का पहला एथनॉल कारखाना पूर्णिया ज़िले में स्थापित किया.
नीति के तहत राज्य प्लांट और मशीनरी की लागत पर 15 प्रतिशत पूंजी सब्सिडी देता है, या अधिकतम पांच करोड़ रुपये तक, जो भी कम हो. शुरुआत में राज्य को 159 प्रस्ताव मिले जिनकी कुल कीमत 30,909 करोड़ रुपये थी.
लेकिन निविदाएं केवल सत्रह यूनिट्स को दी गईं, जिनके पास पहले से ही तेल विपणन कंपनियों (OMCs) के साथ 10 साल के सप्लाई एग्रीमेंट थे और जिनकी स्वीकृत उत्पादन क्षमता 1,080 केएलपीडी (किलोलीटर प्रति दिन) थी. आज, राज्य में 17 समर्पित एथनॉल प्लांट हैं, जिनमें से 13 पूरी तरह चालू हैं. बिहार में बनी एथनॉल को इंडियन ऑयल कॉरपोरेशन (IOCL), भारत पेट्रोलियम (BPCL) और हिंदुस्तान पेट्रोलियम (HPCL) को सप्लाई किया जाता है.

“ये फैक्ट्रियां मानसिक और भौतिक रूप से भरोसा दिलाती हैं कि उद्योग अब यहां आ चुका है,” अजय सिंह ने कहा, जो बिहार एथनॉल एसोसिएशन के अध्यक्ष भी हैं.
नवानगर की 486 एकड़ वाली औद्योगिक टाउनशिप में एथनॉल फैक्टरी खोलने के बाद, पेप्सी और कोका-कोला जैसी ब्रांडों के पेय पदार्थ प्लांट भी वहां आए. नवानगर को अब भारत सरकार द्वारा आर्थिक कॉरिडोर घोषित कर दिया गया है.
दशकों से उद्योगहीन रहे राज्य के लिए यह छोटे-छोटे कदम हैं. लेकिन आने वाली पीढ़ी के बिहारियों के लिए यह उम्मीद भी जगाते हैं कि उन्हें अपने आस-पास ही नौकरी मिल सकती है.
बेगूसराय, मुज़फ्फरपुर, बक्सर, पूर्णिया, नालंदा, गोपालगंज, भोजपुर और पटना जैसे ज़िलों में, जहां एथनॉल फैक्ट्रियां लगी हैं, वहां अपने गांव लौटते प्रवासियों की कहानी नवानगर में पिछले दो वर्षों में हुए बदलाव की तरह ही है. छोटे शहरों में राजस्थान और गुजरात तक मज़दूरों को ले जाने वाली डबल-डेकर एसी बसें अब उन्हीं सड़कों पर स्थानीय टैक्सियों के साथ चलती हैं, जो पास के कारखानों में काम करने वाले मज़दूरों को ले जाती हैं.
धान के खेतों के बीच डेस्क जॉब
बीस वर्षीय चंदन कुमार यादव, पटना के पाटलिपुत्र विश्वविद्यालय से बी.कॉम ग्रेजुएट, उन बसों में से एक में सवार हुए थे. उन्हें भी विश्वास था कि लाखों बिहारी प्रवासियों की तरह उनका भविष्य भी राज्य के बाहर ही है.
नालंदा के चारुइपुर गांव के रहने वाले चंदन ने पिछले साल अक्टूबर में बिहार से बाहर जाने का फैसला किया था. प्रवासन अक्सर संस्कृति को प्रभावित करता है. बिहार में प्रवासन अब संस्कृति का एक बड़ा हिस्सा बन चुका है.
“मेरे गांव के अस्सी प्रतिशत लोग बाहर काम करने जाते हैं. मेरा अपना भाई भी एक निर्माण स्थल पर प्रवासी मज़दूर के रूप में काम करता है,” उन्होंने याद किया. उन्होंने मुंबई में पंद्रह दिन काम की तलाश में बिताए. बक्सर की एथनॉल फैक्टरी में डेटा एंट्री ऑपरेटर की नौकरी के सोशल मीडिया विज्ञापन ने उन्हें वापस अपने राज्य की ओर खींच लिया.
“मैं बहुत घर की याद करता था और अपने बिहारीपन पर होने वाले तंज से बहुत आहत भी था.” उन्होंने माना कि उनके लिए यह समय काफी मुश्किल हो गया था.
जब वह बक्सर में इंटरव्यू के लिए आए, तो उन्होंने फैक्टरी के सुपरवाइज़र अजीत कुमार शाही पर अच्छा प्रभाव छोड़ा. वह मेहनत करने को तैयार थे.
“तीन महीने की ट्रेनिंग के बाद, हमने उन्हें 20,000 रुपये मासिक वेतन पर फुल-टाइम कर्मचारी के रूप में रख लिया,” शाही ने कहा. उन्होंने यह भी बताया कि यह नौकरी नोएडा की नौकरी के बराबर अच्छी है.
आसमानी नीली शर्ट में साफ-सुथरे कपड़े पहने, अच्छी तरह से शेव किए हुए और ध्यान केंद्रित किए हुए, चंदन अब फैक्टरी के प्रशासनिक ब्लॉक में डेस्कटॉप पर टाइपिंग करते हुए अपना दिन बिताते हैं. वह तीन लोगों की टीम में सबसे युवा सदस्य हैं.
“मुझे यह नौ से पांच वाली नौकरी पसंद है,” चंदन ने कहा.
वह अपनी कमाई का ज़्यादातर हिस्सा नालंदा भेजते हैं, जिससे उनके माता-पिता कर्ज चुका सकें और घर की मरम्मत कर सकें. वह फैक्टरी के आवास में रहते हैं और उसके कैंटीन में खाना खाते हैं, जिससे उनकी बचत बढ़ जाती है.
राज्यभर में, इंजीनियरिंग कॉलेजों और पॉलिटेक्निक संस्थानों से कई ग्रेजुएट बिहार की नई एथनॉल फैक्ट्रियों में इंटर्नशिप कर रहे हैं.
बेगूसराय की न्यू वे होम्स प्राइवेट लिमिटेड एथनॉल प्लांट के प्रमोटर सिद्धार्थ वत्स ने कहा, “हमें टैलेंट खोजने के लिए अब मेट्रो शहरों में जाने की ज़रूरत नहीं है. बिहार में ही कुशल युवाओं की एक नई पीढ़ी मौजूद है.”
“युवा अब तकनीकी और डेस्क जॉब की आकांक्षा रखते हैं,” उन्होंने बताया, और ये फैक्ट्रियां उन सपनों को भी पूरा कर रही हैं.

छिपे हुए संकट
बिहार की नई कहानी में एथनॉल फैक्ट्रियां भले ही प्रगति की तस्वीर बनती दिख रही हों, लेकिन ये फैक्ट्रियां समस्याओं से मुक्त नहीं हैं. बिहार के इस उभरते सेक्टर में एक संकट पनप रहा है.
चुनावी भाषणों और दावों से दूर, अजय कुमार सिंह जैसे फैक्टरी मालिक राज्य और केंद्र, दोनों स्तरों के मंत्रियों से मुलाकात की कोशिश कर रहे हैं और ज्ञापन सौंप रहे हैं. ओएमसी को भेजे अपने पत्र में सिंह ने लिखा है कि उनकी फैक्टरी, जो 24 घंटे चलती है, नवंबर के आधे महीने के लिए बंद करनी पड़ सकती है, क्योंकि इस साल तेल विपणन कंपनियों (ओएमसी) के सप्लाई ऑर्डर उनकी क्षमता के 50 प्रतिशत तक घटा दिए गए हैं.
यह स्थिति बिहार की सभी फैक्ट्रियों की है. बिहार की 14 चालू एथनॉल प्लांट्स को सिर्फ 45 प्रतिशत सप्लाई ऑर्डर मिला है, जबकि गुजरात, राजस्थान और तमिलनाडू जैसे राज्यों को 100 प्रतिशत आवंटन दिया गया है.
“बिहार हर साल लगभग 80 करोड़ लीटर एथनॉल बनाता है, और हमें उसकी आधी उत्पादन क्षमता का ही ऑर्डर दिया गया है,” अजय कुमार सिंह ने कहा.
बिहार की एथनॉल फैक्ट्रियां स्वतंत्र समर्पित प्लांट हैं, जिनका निजी बाज़ार से कोई संबंध नहीं है. “हमारी ओएमसी के साथ लंबी अवधि की संधियां हैं. हम एथनॉल को खुले बाज़ार में नहीं बेच सकते, न ही कुछ और बना सकते हैं. हम सिर्फ एथनॉल उत्पादन के लिए निर्धारित हैं.”
साल 2022-23 में हर तरफ एथनॉल की चर्चा थी. “कई व्यापारियों ने इसमें कदम रखा और ओएमसी की लंबी अवधि की खरीद (LTOA) व्यवस्था के बाहर प्लांट लगा लिए,” सिंह ने बताया.
इससे देशभर में एथनॉल का अतिरिक्त उत्पादन होने लगा. ओएमसी अब चीनी मिलों और अन्य डिस्टिलरी से भी खरीदने लगी हैं. समर्पित एथनॉल प्लांट मालिकों का आरोप है कि इस वर्ष उनके सप्लाई ऑर्डर आधे कर दिए गए हैं, क्योंकि केंद्र सरकार ने सभी प्रकार की एथनॉल इकाइयों को जगह दी है.
बिहार एथनॉल एसोसिएशन ने 31 अक्टूबर को पेट्रोलियम और गैस मंत्रालय के सचिव पंकज जैन को एक ज्ञापन सौंपा.
सिंह ने आरोप लगाया कि वित्त वर्ष 2026 के हालिया टेंडर में प्रक्रिया में बदलाव कर नए प्लांटों को शामिल किया गया, जिससे बिहार की फैक्ट्रियों को सिर्फ 50 प्रतिशत सप्लाई मिली.
दिप्रिंट ने बिहार के उद्योग मंत्री नितिश मिश्रा से संपर्क करने की कोशिश की, लेकिन कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली.
एक अन्य प्लांट मालिक, जो नाम नहीं बताना चाहता था, ने इसे अवैध और ‘एग्रीमेंट’ श्रेणी वालों के साथ अन्याय बताया.
“एकदम से देश में एथनॉल की भरमार हो गई है, और खरीदार नहीं हैं. यह पूरी तरह बाज़ार-चालित स्थिति है. हमारे टैंकर ओएमसी टर्मिनल के बाहर दस दिन तक खड़े रहते हैं, और इसका खर्च हमें उठाना पड़ता है,” उन्होंने कहा. उन्होंने यह भी बताया कि चीनी सहकारी मिलें, जिन्होंने एथनॉल उत्पादन के लिए लॉबी करना शुरू किया, उन्हें आवंटन में पहली प्राथमिकता दी गई.
नतीजतन, मालिकों का कहना है कि उन्हें उत्पादन रोकना पड़ा है और घटी मांग के मुताबिक चलना पड़ रहा है.
और विधानसभा चुनाव ने इस संकट को और बढ़ा दिया है.
“चुनाव के कारण समस्या और बढ़ गई है, क्योंकि बैठकों से कोई नतीजा नहीं निकल रहा, और हमारा समय भी बर्बाद हो रहा है.”
(इस रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)
यह भी पढ़ें: फ्रंट बेंचर से बिहार के ‘X फैक्टर’ तक: कैसे रहा ‘टू-टू भाई’ प्रशांत किशोर का सफर
