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Saturday, 4 May, 2024
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क्लाइमेट फाइनेंस क्यों एक बड़ा मुद्दा है और ग्लासगो COP-26 में बातचीत कहां तक पहुंची

कॉप-26 में पेरिस समझौते के तहत एक नया क्लाइमेट फाइनेंस लक्ष्य तय करने की कोशिश की गई. लेकिन जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए विकासशील देशों को कितना फंड मुहैया कराया जाएगा, इस पर आगे की बातचीत अटक गई है.

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नई दिल्ली: ग्लासगो में कॉप-26 में होने वाली बातचीत में क्लाइमेट फाइनेंस सबसे अधिक विवादित मुद्दों में से एक है—यह मुद्दा उस वित्तीय मदद से जुड़ा है जो विकासशील देशों को जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए मुहैया कराई जानी है. क्लाइमेट फाइनेंस, ग्लासगो, कॉप-26 , पेरिस

क्लाइमेट फाइनेंस या जलवायु वित्त पोषण सालों से बहस का विषय रहा है, लेकिन इस वर्ष इसे खास अहमियत मिली क्योंकि जलवायु परिवर्तन पर 26वें सम्मेलन, जहां 2015 के पेरिस समझौते के तहत, में एक नए जलवायु फाइनेंस गोल पर विशेष जोर दिया गया.

नया लक्ष्य यह परिभाषित करेगा कि 2025 के बाद धन कैसे जुटाया जाएगा और विकासशील देशों को कैसे ट्रांसफर किया जाएगा, ताकि उत्सर्जन (शमन) को घटाया जा सके और इसे बदलती जलवायु (अनुकूलन) के अनुकूल बनाया जा सके.

चर्चा कुछ भी होती रही हो लेकिन एक बात एकदम स्पष्ट है कि विकसित देश क्लाइमेट फाइनेंस जुटाने के अपने पिछले वादों को पूरा करने में नाकाम रहे हैं. जैसे-जैसे जलवायु परिवर्तन की स्थिति बिगड़ेगी, इस पर काबू पाने और इस समस्या से निपटने की लागत केवल बढ़ेगी ही, और यही वजह है कि विकासशील देशों का तर्क है कि क्लाइमेट फाइनेंस का कोष बढ़ना चाहिए.

विकासशील देशों का कहना है कि क्लाइमेट फाइनेंस में शमन और अनुकूलन के अलावा जलवायु परिवर्तन के कारण होने वाले घाटे और क्षति को भी कवर किया जाना चाहिए, एक ऐसा पहलू जिस पर कोई प्रतिबद्धता जताने में विकसित देश हिचकिचा रहे हैं.

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आइये यहां समझने की कोशिश करें कि क्लाइमेंट फाइनेंस आखिर क्या है, यह कैसे कारगर है, और क्यों एक बड़ी बहस का मुद्दा बना हुआ है.

100 बिलियन डॉलर का लक्ष्य

2009 में 15वें कॉप सम्मेलन दौरान तय किया गया था कि उच्च आय वाले विकसित देश 2020 तक शमन और अनुकूलन से निपटने के लिए विकासशील देशों के वित्त पोषण के लिए 100 अरब डॉलर का फंड जुटाएंगे. यह कदम ‘साझी लेकिन अलग-अलग जिम्मेदारियों और संबंधित क्षमताओं’ की भावना से उठाया गया था. जिसे विभिन्न देशों की जरूरतों और क्षमताओं के आधार पर तय किया गया था.

2015 में कॉप-21 के दौरान यह प्रतिबद्धता फिर से जताई गई, जब पेरिस समझौते पर हस्ताक्षर किए गए और यह लक्ष्य हासिल करने की अवधि 2025 तक बढ़ा दी गई.

लेकिन जब यह फंड जुटाने की बात आती है तो विकसित देशों का ट्रैक रिकॉर्ड खराब रहा है. इस फंड को ट्रैक करने की जिम्मेदारी 38 विकसित देशों के एक अंतर सरकारी संगठन, आर्थिक सहयोग एवं विकास संगठन (ओईसीडी) की है.

ओईसीडी ट्रांसफर किए जाने वाले धन को चार तरीकों से ट्रैक करता है: द्विपक्षीय, बहुपक्षीय, एक्सपोर्ट क्रेडिट (विदेशी खरीदारों को दी जाने वाली सरकारी वित्तीय सहायता) और पब्लिक फाइनेंस से जुटाया गया निजी निवेश.

डाटा बताता है कि 2019 तक केवल 79 बिलियन डॉलर जुटाए गए थे—जिसमें 2018 की तुलना में सिर्फ 2 प्रतिशत की वृद्धि हुई है.

इन देशों को 2020 तक 100 अरब डॉलर जुटाना था, लेकिन हाल ही में उन्होंने स्वीकार किया कि 2023—यानी तय समयसीमा से तीन साल बाद—से पूर्व ऐसा कर पाने की कोई संभावना नहीं होगी.

विकासशील देश सालों से ओईसीडी और 100 अरब डॉलर के लक्ष्य की आलोचना करते रहे हैं.


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गैर-लाभकारी संगठन काउंसिल फॉर एनर्जी, एनवायरनमेंट एंड वाटर में प्रोग्राम लीड अर्जुन दत्त का कहना है, ‘एक आलोचना तो यह होती है कि रिपोर्ट में शामिल आंकड़ों का एक बड़ा हिस्सा प्रतिबद्धता जताने से जुड़ा है न कि आवंटित किए गए धन से. दूसरा यह है कि धन का ये प्रवाह पूरी तरह से नया और अतिरिक्त नहीं हैं. रिपोर्ट में शामिल आंकड़ों के एक हिस्से के लिए मौजूदा डेवलपमेंट फाइनेंस को ही क्लाइमेट फाइनेंस एकाउंट के तौर पर पुनर्वर्गीकृत किया गया है.’

दत्त ने आगे कहा, ‘इसके अलावा, रिपोर्ट किए गए आंकड़ों में अनुदान और सॉफ्ट लोन के रूप में रियायती वित्त पोषण का एक छोटा-सा अंश भी शामिल है.’

ऐसी चिंताएं भी जताई जाती रही हैं कि इस फाइनेंस की गणना मौजूदा ग्रीन फाइनेंस से अलग नहीं की जा रही है, जिसका अर्थ यह हो सकता है कि इसे दो बार गिना जा रहा हो. विकासशील देशों का यह भी कहना है कि वित्तीय आंकड़ों पर नजर रखने में ओईसीडी की भूमिका पूरी तरह से निष्पक्ष निकाय वाली नहीं है, क्योंकि यह विकसित देशों का संगठन है जो सेल्फ-रिपोर्टिंग कर रहे हैं.

गैर-लाभकारी संस्था वर्ल्ड रिसोर्सेज इंस्टीट्यूट में सीनियर एसोसिएट लॉरेना गोंजालेस कहती हैं, ‘जब 100 अरब डॉलर के लक्ष्य की बात आती है तो विकासशील देश खासकर दो बातों की आलोचना करते हैं.

उन्होंने कहा, ‘एक यह है कि जब शमन बनाम अनुकूलन पर वित्त पोषण की बात आती है तो स्पष्ट तौर पर असंतुलन दिखाई देता है, शमन को एक बड़ा हिस्सा मिलता है…वित्त पोषण की गुणवत्ता को लेकर भी गंभीर चिंताएं जताई जाती हैं.’

ओईसीडी के मुताबिक, 2019 में 50.8 फीसदी फंड शमन उद्देश्यों—मसलन अक्षय ऊर्जा में निवेश—के लिए था वहीं अनुकूलन के लिए केवल 20.1 फीसदी था. अनुकूलन गतिविधियों, जैसे पूर्व चेतावनी प्रणाली स्थापित करने और अधिक लचीले बुनियादी ढांचे का निर्माण आदि, को प्रौद्योगिकी के स्तर पर ज्यादा मजबूत शमन गतिविधियों की तुलना में कम लाभदायक माना जाता है.

गार्जियन की रिपोर्ट के एक मुताबिक, इसके अलावा, इस वित्त पोषण का एक बड़ा हिस्सा कर्ज के तौर पर दिया जाता है—केवल 19 प्रतिशत ही अनुदान के तौर पर होता है. ये ऋण गरीब, कम आय वाले देशों को कर्ज में बोझ में दबा रहा है.
दत्त ने बताया कि धन का प्रवाह बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में होता है जहां निवेश से मुनाफा हो सकता है. उदाहरण स्वरूप भारत क्लाइमेट फाइनेंस के सबसे बड़े प्राप्तकर्ताओं में से एक रहा है क्योंकि पवन और सौर ऊर्जा को व्यावसायिक रूप से व्यावहारिक निवेश माना जाता है.

दत्त ने कहा, ‘निजी पूंजी का प्रवाह अमूमन व्यावसायिक तौर पर व्यावहारिक निवेश के अवसरों के लिए होता है. यह बात बाजार के ऐसे सेगमेट में निवेश के लिए सही नहीं हो सकती जहां टेक्नोलॉजी परफॉर्मेंस ट्रैक रिकॉर्ड या बिजनेस मॉडल अच्छी तरह स्थापित नहीं है, जैसे ऑफ-ग्रिड नवीनीकरण, भंडारण, और बड़े पैमाने पर अनुकूलन गतिविधियां.’

उन्होंने कहा, ‘कई अविकसित देशों में निवेश पर जोखिम भी ज्यादा हैं. पब्लिक फंड का उपयोग गारंटी जैसे साधनों के जरिये निवेश जोखिमों को घटाने के लिए किया जा सकता है और इस तरह निजी पूंजी प्रवाह को कुछ हद तक बढ़ाया जा सकता है. ऐसे उपाय सार्वजनिक पूंजी की कमी को कुशलता के साथ पूरी करने के लिए भी अपनाए जा सकते हैं.’

अंत में, 100 अरब डॉलर का आंकड़ा बिना किसी वैज्ञानिक तर्क, या इस बात की स्पष्ट तौर पर समझे बिना सामने रखा गया कि शमन और अनुकूलन पर कितनी लागत आएगी.

संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज (यूएनएफसीसीसी) की वित्त रिपोर्ट पर स्थायी समिति ने पिछले महीने कहा था कि पेरिस समझौते के तहत देशों को अपने 40 प्रतिशत जलवायु लक्ष्यों को पूरा करने के लिए 2030 तक 5.8 से 5.9 ट्रिलियन डॉलर की जरूरत होगी.

कॉप-26 में क्लाइमेट फाइनेंस पर चर्चा

कॉप-26 वार्ता के दौरान विकासशील देशों ने कहा कि उन्हें जलवायु वित्तपोषण के तौर पर 100 बिलियन डॉलर से अधिक की आवश्यकता है. और इस बात पर भी जोर दिया कि विकसित देशों को कम से कम समय में इस लक्ष्य तक पहुंचना चाहिए.

सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि वार्ता इस पर केंद्रित रही कि क्लाइमेट फाइनेंस पर सामूहिक तौर पर निर्धारित नया लक्ष्य—2025 में शुरुआत के लिए—कैसा होगा. दिप्रिंट ने पहले ही बताया था कि विकासशील देश जल्द से जल्द इस लक्ष्य का रोडमैप बनाने पर जोर दे रहे हैं ताकि इस पर अमल में कोई देरी न हो, लेकिन विकासशील देश इन प्रयासों का विरोध करते रहे हैं.

भारत, अफ्रीकी देशों के साथ, क्लाइमेट फाइनेंस के लिए कम से कम 1.3 ट्रिलियन डॉलर प्रति वर्ष की मांग कर रहा है लेकिन ऑस्ट्रेलिया, नॉर्वे और यूरोपीय संघ जैसे देश इस आंकड़े पर सहमत नहीं हैं.

विकासशील देशों, खासकर छोटे द्वीपी देशों घाटे और क्षति के लिए वित्तपोषण की मांग भी कर रहे हैं. घाटा और क्षति तब होती है जब जलवायु परिवर्तन के प्रभाव इतने विनाशकारी होते हैं कि देश इसे झेलने में सक्षम नहीं हो पाते हैं. तर्क यह है कि विकसित देशों को जलवायु परिवर्तन के प्रभावों की भरपाई करनी चाहिए जिसकी कीमत उन देशों को चुकानी पड़ रही है जो ग्लोबल वार्मिंग के लिए जिम्मेदार नहीं हैं लेकिन इससे उनके लिए बड़ा खतरा बना हुआ है.

कॉप-26 के निर्णय के एक मसौदे, जो मौजूदा और भविष्य की बातचीत की दिशा तय करता है, में पहली बार घाटे और क्षति पर एक सेक्शन शामिल किया गया है. लेकिन जलवायु कार्यकर्ताओं का कहना है कि और प्रावधान किए जाने की जरूरत है.

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें )

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