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Sunday, 22 December, 2024
होममत-विमतईरान में हिजाब पर जंग यही बताती है कि यह सिर्फ निजी पसंद या मजहब का मुद्दा नहीं है

ईरान में हिजाब पर जंग यही बताती है कि यह सिर्फ निजी पसंद या मजहब का मुद्दा नहीं है

हिजाब दरअसल अपनी पहचान, राज्यतंत्र, सामाजिक भेदभाव जैसे मसलों के लिए संघर्ष का एक प्रतीक है और ईरान में हुए पश्चिमीकरण से वहां की महिलाओं को बराबरी नहीं, यातनाएं ही मिलीं.

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यात्री विक्टोरिया सैकविल-वेस्ट ने लिखा है, ‘सिर पर जबल अल-नूर नाम के हीरे से सजी कलगी वाली टोपी और भारी-भारी मोतियों से सजे नीले रंग का चोगा पहने शाह मयूर सिंहासन की ओर बढ़े. यूरोपीय औरतें सजदे में जमीन तक झुक गईं, मर्द उनकी राहों में लेट गए, मुल्ले लालच से भरकर शिष्टाचार का दिखावा करते हुए लड़खड़ाते हुए उनकी ओर लपके. अपने हाथों से शाह ने अपनी टोपी उतारी, ताज उठाया और सिर पर रख लिया.’

एक रूढ़िपंथी छोटे जमींदार के बेटे, ईरान के ‘बादशाहों के बादशाह’ रज़ा शाह पहलवी ने दिसंबर 1924 अपनी
ताजपोशी करने के 11 साल बाद हुक्म जारी किया कि उनके अपने मुल्क की औरतें हिजाब न पहनें. कश्फ़े-हिजाब नाम का उनका यह हुक्मनामा अपने मुल्क को आधुनिक बनाने की उनकी कोशिशों का अहम हिस्सा था, ऐसा मुल्क जिसके पास आधुनिक फौज, आधुनिक रेलवे, आधुनिक बैंक, आधुनिक स्कूल हों और उसके लोग यूरोपीय शैली की टोपियां पहनते हों.

पूरी दुनिया ने पिछले सप्ताह देखा कि ईरान में महिलाएं किस तरह अपने हिजाब को जला रही थीं, खुली जगहों पर अपने बाल कटवा रही थीं. यह उस मजहबी हुकूमत के खिलाफ बगावत है, जिसने 1979 में हिजाब को फिर से महिलाओं पर थोप दिया था. खबर है कि झड़पों में पुलिस की गोलीबारी में 17 आंदोलनकारियों की मौत हुई है, जबकि हिजाब समर्थक हिजाब न पहनने वाली महिलाओं को धमका रहे हैं. ईरान में यह सब सिर्फ निजी आज़ादी की खातिर नहीं हो रहा है. हिजाब दरअसल अपनी पहचान, राज्यतंत्र, सामाजिक भेदभाव जैसे मसलों के लिए संघर्ष का एक प्रतीक है.

हालांकि यह आसानी से दावा किया जा सकता है कि हिजाब को खत्म करने के रज़ा के हुक्म ने ईरान की महिलाओं आज़ाद किया था लेकिन वहां जो पश्चिमीकरण किया गया उसमें समानता नहीं बरती गई और वह यातनादायी भी था.


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महिलाओं की सीक्रेट वॉर

महिलाओं के अप्रत्यक्ष संघर्ष जैसा कि आधुनिकता की ओर कदम बढ़ाने वाले कई समाजों के साथ होता है, 19वीं सदी का ईरान भी महिलाओं के अप्रत्यक्ष श्रम पर निर्भर था. कुलीन घरों की महिलाएं बेशक बहुविवाह वाले अलग-थलग परिवारों में बच्चों, हिजड़ों, नौकरों आदि के बीच ज़िंदगी गुजारती थीं लेकिन बाकी महिलाओं को कपड़े सी कर, कालीन बुन कर, घरेलू नौकरानी के काम करके, यहां तक कि वेश्या बनकर अपने परिवार चलाती थीं. हमीदह सेडघी ने ईरान की राजनीति में महिलाओं की भूमिका का जो शानदार इतिहास लिखा उसमें बताया है कि महिलाओं की यह जो दो अलग-अलग दुनिया थी वह किस तरह आपस में जुड़ी हुई भी थी. उनके काम को चारदीवारी में सिमटा दिया जाता था.

कई लड़ाइयों में हार का सामना करने के बाद ईरान के क़जार बादशाहों को साम्राज्यवादी रूस और ब्रिटेन के साथ गैरबराबरी वाली व्यापार संधियां करने को मजबूर किया गया. ईरान की जनता इन संधियों का कहर झेलती रहीं, मगर बादशाह अहमद शाह ने जमीन बेचकर और शाही रियायतें देकर अपनी बादशाहत बचाए रखी.

सेडघी ने लिखा है कि इस सदी में आगे चलकर महिलाओं ने औपनिवेशिक व्यवस्था का प्रतिकार शुरू कर दिया. उनके प्रयासों को मस्जिद से अक्सर समर्थन मिलता था. ज़ीनत पाशा की अगुआई में तबरीज़ शहर की हथियारबंद बुर्कानशीन महिलाओं ने तंबाकू के कारोबार पर ब्रिटेन को 1891 में दिए गए एकाधिकार के खिलाफ विरोध प्रदर्शन किए. माना जाता है कि ये विरोध को बादशाह नासिर अल-दीन की बेगम अनीस अल-दौलेह की शह पर भड़के थे. 1906 में ईरान में संवैधानिक व्यवस्था को लेकर जो क्रांति हुई थी उसमें भी महिलाओं ने प्रमुख भूमिका निभाई थी और संवैधानिक सीनेट ‘मजलिस’ की स्थापना करने को मजबूर किया था. उन्होंने बादशाह से कहा था कि ‘ऐ मुसलमानों के बादशाह! अगर रूस और इंग्लैंड आपका समर्थन करते हैं, तो मुस्लिम रहनुमाओं के हुक्म पर ईरान के लोग आपके खिलाफ जिहाद का ऐलान कर देंगे.’

अमेरिकी वकील मॉर्गन शुस्टर ने लिखा है कि रूस ने 1911 में ईरान की जमीन पर कब्जा किया था तब 300 बुर्कानशीन महिलाओं ने मजलिस तक कूच किया था, उन्होंने अपने ‘आस्तीनों और कपड़ों के नीचे पिस्तौल छिपा रखी थी.’

लेकिन महिलाओं के इन प्रयासों से खास नतीजे नहीं निकले. 1906 में यह संवैधानिक आदेश जारी किया गया कि सभी कानून शरीया के मुताबिक होंगे और उन्हें मौलवियों से मंजूर करवाना होगा. महिलाओं से मतदान का अधिकार छीन लिया गया और उन्हें सार्वजनिक जीवन से दूर कर दिया गया.

केंद्रीय पितृसत्ता

बादशाह रज़ा उदारवादी थे? कतई नहीं. उनकी बेटी अशरफ पहलवी ने जब स्विट्जरलैंड से उन्हें लिखा कि वे अपने जुड़वें भाई की तरह विदेश में उच्च शिक्षा लेना चाहती हैं तो उन्हें छोटा सा साफ संदेश भेज दिया गया— ‘बेवकूफी बंद करो और वापस घर लौटो.’ वैसे, बादशाह महिलाओं को छोड़कर बाकी दूसरे मामलों में पश्चिमीकरण करने को काफी उत्साहित थे. उन्होंने ज़ोर दिया कि शाही परिवार खाना खाने के लिए हाथ का इस्तेमाल बंद करे. अपने दरबार के संगीतकार को पश्चिमी संगीत के धुन बजाने के आदेश दिए गए. 1927 में पुरुषों को पारंपरिक टोपियों के बदले फ्रेंच कैप पहनने के निर्देश जारी किए गए.

महिलाओं की मुक्ति में बादशाह की कोई दिलचस्पी नहीं थी लेकिन महिलाओं के संगठन और उनका हिजाब बादशाह में सत्ता के केंद्रीकरण के प्रयासों का रणक्षेत्र बन गया. सेडघी ने लिखा है कि हिजाब मुक्ति की प्रक्रिया ने ‘मजहब की पितृसत्तात्मक शक्ति को राज्यतंत्र के हवाले कर दिया और राज्यतंत्र ने खुद पितृसत्तात्मक शक्ति हासिल कर ली.’

1928 के ईरानी नववर्ष के त्योहारों तक टकराव की स्थिति बन गई. उस मार्च में रानी मरयम सावादकूही क़्वोम की दरगाह गईं और एक मुल्ला के मुताबिक उन्होंने आरपार धुंधला देखने वाली चादर ओढ़ रखी थी. इतिहासकार हाऊचांग चहबी ने लिखा है कि तमतमाए रज़ा ‘जूते पहने हुए ही दरगाह में घुस गए, कई मुल्लों- मौलवियों को खुद पीटा और जिस मौलवी ने रानी की आलोचना की थी उसे कोड़े मरवाए.’

उस साल बाद में पुरुषों को आदेश मिलने लगे कि वे पश्चिमी लिबास पहन सकते हैं, पुलिस को ऐसे व्यवस्था करने का आदेश दिया गया कि महिलाएं हिजाब के बिना बाहर निकल सकें. लेकिन बादशाह हिजाब को लेकर अभी भी सावधान थे. 1929 में राजकीय दौरे पर आईं अफगानिस्तान की रानी सोराया तरजी ने तो हिजाब नहीं पहना मगर रानी मरयम अफगान बादशाह के सामने हिजाब के बिना नहीं गईं. वैसे, सख्ती हटा ली गई थी. 1935 में शिक्षा मंत्री को यह व्यवस्था करने का आदेश दिया गया कि स्कूलों में लड़कियां हिजाब पहनकर न आएं और पुरुषों को टॉप हैट पहनने के आदेश दिए गए.

हैट पहनने का नियम लागू करने के प्रयासों के खिलाफ 1935 में मश्शाद शहर में भारे हिंसा हुई जिसमें 100 से ज्यादा प्रदर्शनकारी मारे गए लेकिन बादशाह पीछे नहीं हटे. इससे अगले साल उन्होंने महिलाओं और पुरुषों को एक साथ काम करने की छूट देने का महत्वाकांक्षी कार्यक्रम शुरू किया.

इसके नतीजे कुछ दुखद और कुछ हास्यास्पद रहे. लेखक रज़ा बारहेनी ने लिखा है कि उनके अब्बाजान अपनी मां और अपनी बेगम को पिश्ते की बोरियों में ढक कर सार्वजनिक स्नान की जगहों पर ले जाते थे. शाही हुक्म जारी किया गया था कि लोग अपनी बीवी के साथ पार्टी आदि की मेजबानी करें. सो, कुलीन घरों के पुरुष इस नापाक काम के लिए ‘अस्थायी बीवियां’ भाड़े पर लेते थे. तेहरान पश्चिमी रिवाज अपनाने वाले कुछ परिवारों की कई धर्मपरायण महिलाओं को हिजाब न पहना वैसा ही लगता था जैसा आज नग्नता लगती है. उधर, पुलिस इस नियम के चलते जबरन वसूली भी करती थी, तो कुछ मजहबी परिवार भागकर इराक़ चले गए. बादशाह रज़ा को पश्चिम ने 1941 में तख्त से उतार दिया, उसके युवा बेटे मोहम्मद रज़ा पहलवी उनके उत्तराधिकारी बने. जैसा कि उनके अब्बाजान के राज में हुआ, पहलवी के राज में भी महिलाओं कम ही वास्तविक लाभ मिले. 1944 से 1952 के बीच, महिलाओं को मताधिकार दिलाने के तीन प्रयास किए गए, तीनों नाकाम रहे.

इंकलाब, जो हुआ नहीं

1963 के शुरू में नए शाह ने ‘सफेद इंकलाब’ शुरू किया, जिसकी तारीफ में ‘न्यू यॉर्क टाइम्स’ ने लिखा कि यह ईरान को ढाई हजार साल की ‘जकड़बंदी’ से निकालने की मुहीम है. यह इंकलाब जमीन के फिर से बंटवारे और तेज उद्योगीकरण के लोकलुभावन कार्यक्रम के इर्दगिर्द केंद्रित था. विद्वान अली अंसारी ने अपने एक व्याख्यान में कहा है कि शाह ने इरानियों से कहा कि ‘तुम्हारे पास अच्छे कपड़े होंगे, अच्छे घर होंगे’. एक और वादा किया गया— मुल्क की औरतों को वोट देने का अधिकार होगा.

इस मुहिम के खिलाफ व्यापक प्रदर्शन शुरू हो गए, मौलवियों ने महिलाओं के मुद्दे पर कट्टरपंथियों को शाह के खिलाफ भड़काया. इसके विरोध में टीचरों, नर्सों, महिला कर्मचारियों ने आंदोलन कर दिया. शाह ने उनका समर्थन किया और घोषणा कर दी कि वे ‘सामाजिक और सियासी परभक्षियों से आजिज़ (परेशान) आ चुके हैं.’ सफ़ेद इंकलाब काल्पनिक साबित हुआ. सेना और सामाजिक मसलों पर बड़े खर्चों से खजाना खाली हो गया. शाह के इंकलाब की कोशिशों ने कृषि और उद्योग को ठप कर दिया. सरकारी कर्जों से रोजगार तो पर पैदा किए गए मगर रहनसहन के स्तर में सुधार नहीं हो पाया. 1971 में बदहाल शाह ने फारस के साम्राज्य की स्थापना की वर्षगांठ पर करोड़ों डॉलर खर्च करके जो जश्न मनाया उसने उसके खिलाफ भावना को और भड़काया.

शाह ने मुक्ति का जो वादा किया वह कई महिलाओं के लिए खोखला साबित हुआ. सेडघी ने लिखा है कि महिला कामगारों को पहले की तरह ही दूरदराज़ से सफर करके काम पर आना पड़ता और देर तक काम करना पड़ता था. तेहरान में गरीबों की बस्ती ज़ाकह-नशीन में उन्हें अपना वेतन घरों के किराए पर खर्च करना पड़ता था. कालीन बुनकरों की दशा वैसी ही थी जैसी 19वीं सदी में थी.

कुछ महिलाओं को लगता था कि खुदा का हुक्म ही उन्हें मुक्ति दिलाएगा. 1979 में, सैकड़ों महिलाएं इस्लामी नेता अयातुल्ला रुहोल्लाह खुमैनी के समर्थन में नारे लगाती निकल पड़ी थीं. नारा था— ‘हिजाब न पहनने वाली औरतें और उनके खाविंद मुर्दाबाद!’, ‘हिजाब पहनो वरना सिर तोड़ दिए जाएंगे’. हिजाब इस्लामी इंकलाब का प्रतीक बन गया, जिसमें वादा किया गया कि सेक्स पर काबू करके पश्चिमीकरण के जहर को खारिज किया जाएगा.

इसके चार दशक बाद, आज ईरान की महिलाएं फिर विरोध कर रही हैं, इस बार उस जुल्म के खिलाफ, जो
बराबरी और इंसाफ दिए बिना उनकी यौन स्वतंत्रता पर लगाम कसना चाहता है. ‘कोमिट-हे गश्त’ और ‘अम्र-ए
बी मारूफ़ वा नाही अज़ मोंकर’ की ओर से हिजाब लागू करने वालों की हिंसा बेवजह नहीं है. कई लोगों का
अनुभव यही है कि पश्चिमीकरण का मतलब नाइंसाफी और गुलामी ही है.

जाहिर है, हिजाब के समर्थक और विरोधी, दोनों के लिए यह व्यक्तिगत पसंद-नापसंद का मामला नहीं है, यह उन बुनियादी राजनीतिक सवालों का प्रतीक है, जिनके जवाब संघर्ष की एक सदी के बाद भी नहीं खोजे जा सके हैं.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

लेखक दिप्रिंट के नेशनल सिक्योरिटी एडिटर हैं. वह @praveenswami पर ट्वीट करते हैं. व्यक्त विचार निजी हैं.


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