नई दिल्ली: पुरातत्वविद् विनय गुप्ता के एक हालिया शोध पत्र से पता चलता है कि सम्राट अशोक से सदियों पहले ब्राह्मी लिपि का प्रयोग होता था.
भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) जयपुर मंडल के एक अधीक्षण पुरातत्वविद् (एसए) गुप्ता के हालिया शोध पत्र, जिसका शीर्षक “बहज उत्खनन से प्राप्त मुहरें” हैं, ने अशोक के शिलालेखों पर अंकित होने से पहले उत्तर भारत में लिपि के अस्तित्व की पुष्टि की है.
गुप्ता द्वारा लिखे गए शोध पत्र के अनुसार, “ब्राह्मी लिपि की उत्पत्ति प्राचीन काल में हुई होगी और अशोक की ब्राह्मी का विकास क्रमिक रहा होगा.”
उन्होंने हिंदू देवता कृष्ण की जन्मभूमि, ब्रज क्षेत्र के ऐतिहासिक धागों को सुलझाने के लिए उत्तर प्रदेश की सीमा से लगे राजस्थान के भरतपुर में बहज स्थल की खुदाई की है.
ब्राह्मी लिपि का विकास तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व के अशोक के शिलालेखों में स्पष्ट रूप से दिखाई देता है, लेकिन गुप्ता के नए शोध ने भारत में ब्राह्मी लिपि के इतिहास लेखन को बदल दिया है और इसकी उत्पत्ति को लगभग तीन शताब्दियों पीछे, लगभग छठी शताब्दी ईसा पूर्व तक, सम्राट अशोक के शिलालेखों से भी पहले धकेल दिया है.
राजस्थान के भरतपुर जिले के बहज में खुदाई से प्राप्त मुहरों के आधार पर, गुप्ता के अध्ययन से पता चलता है कि लेखन कला चित्रित धूसर मृदभांड (पीजीडब्ल्यू) संस्कृति में ज्ञात थी, जिसे अक्सर महाभारत काल से जोड़ा जाता है. इससे संकेत मिलता है कि ब्राह्मी लिपि मौर्य काल में अचानक उभरने के बजाय भारत में स्वदेशी रूप से विकसित हुई होगी.
शोध पत्र के अनुसार, कुषाण काल के भंडार से जैस्पर पत्थर से बनी एक प्रारंभिक मौर्यकालीन मुहर मिली है और इसमें नौ चिह्न या ब्राह्मी अक्षर हैं. एक सीमित क्षेत्र से इतनी सारी मुहरों का मिलना प्राचीन काल में भारत में साक्षरता के स्तर और समृद्धि को दर्शाता है.

उनके शोधपत्र में कहा गया है कि ब्राह्मी लिपि का उद्भव PGW (1200 ईसा पूर्व से लगभग 550 ईसा पूर्व) संस्कृति के समय से माना जा सकता है, जिसे पुरातत्वविद् और पूर्व एएसआई महानिदेशक बीबी लाल ने महाभारत काल से जोड़ा है. हालांकि, इस बारे में पुरातत्वविद एकमत नहीं है.
शोधपत्र में लिखा है, “इस मुहर की खोज से यह स्पष्ट होता है कि PGW संस्कृति के लोग लेखन से परिचित थे.”
शोधपत्र में कहा गया है कि ये मुहरें चित्रित धूसर मृदभांड (PGW) काल के ऊपरी स्तरों से मिली हैं, जिनका समय स्तर विज्ञान (स्ट्रैटीग्राफी) के अनुसार लगभग 600 ईसा पूर्व माना जा सकता है.
बहज में उत्खनन 2024 में शुरू हुआ और दो सत्रों तक चला. गुप्ता ने 2024 में कहा था, “भारतीय संस्कृति की दृष्टि से ब्रज एक बहुत ही महत्वपूर्ण क्षेत्र है.”
मुहरों का धार्मिक संबंध
ये मुहरें उत्खनन के पहले चरण के दौरान मिलीं. इससे 39 मुहरें मिलीं जो प्राचीन काल से लेकर कुषाण काल तक फैली हुई थीं.
मिली हुई मुहरों पर इंसक्रिप्शन हैं और कुछ पर केवल प्रतीक हैं. शोधपत्र के अनुसार, इस स्थल पर सबसे उल्लेखनीय खोज प्राचीन काल के ऊपरी स्तरों से प्राप्त कच्ची मिट्टी से बनी चार मुहरें हैं. इसमें लिखा है, “इस उपमहाद्वीप में कहीं भी ऐसी मुहरें कभी नहीं देखी गईं.”
इन मुहरों पर पाए गए अधिकांश नाम रुद्र, वटुक, गर्ग और नंदीवर्धन से संबंधित हैं. यही बात धार्मिक प्रतीकों के साथ भी है, जो नंदीपाद, नंदी और ध्वज से संबंधित हैं.
ये मुहरें दो प्रकार की हैं. इनमें से दो के चारों ओर समान चिह्न हैं, और शेष दो के चारों ओर समान चिह्न हैं.
शोध पत्र में कहा गया है कि एक छाप में दो अलग-अलग हाथी पर सवार आकृतियां और दो खड़ी आकृतियां हैं, जो कुछ हद तक मथुरा के कुछ प्रारंभिक सिक्कों पर संकर्षण और वासुदेव के चित्रण से मेल खाती हैं.
शोधकर्ता ने पाया कि ये छापें धार्मिक प्रकृति की हैं. एक मुहर पर जनक और दूसरी पर नोखर लिखा है.
शोध पत्र के अनुसार, “इन मुहरों पर अंकित ब्राह्मी अक्षर उपमहाद्वीप में ब्राह्मी लिपि के सबसे पुराने ज्ञात उदाहरण हैं.”
इसमें आगे कहा गया है कि दो मुहरों के ये निष्कर्ष इस बात की पुष्टि करते हैं कि ब्राह्मी लिपि की शुरुआत पीजीडब्ल्यू संस्कृति काल में हुई थी, और ये लेखन में एक लुप्त कड़ी को सामने लाती है.
(इस रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)
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