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Saturday, 2 November, 2024
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चुनावों में धूल चाटने के बाद, बंगाल के कम्यूनिस्टों को नहीं दिख रही उम्मीद की कोई किरण

1952 के चुनावों के बाद पहली बार, न सिर्फ सीपीआई(एम) नेतृत्व के वाम मोर्चे का, न केवल सूपड़ा साफ हुआ है, बल्कि उसका वोट-शेयर भी गिरकर मामूली 5% पर आ गया है.

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कोलकाता: हाल में हुए विधान सभा चुनावों में, पश्चिम बंगाल के ‘वाम-मुक्त’ होने के बाद, सूबे में 34 साल हुकूमत करने वाले कॉमरेड्स, चुनाव परिणामों से इतने हिल गए हैं कि अपने भविष्य के लिए कोई रास्ता ही नहीं सोच पा रहे हैं.

उनका आरोप है कि तृणमूल कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी), पहचान की राजनीति को उस स्तर तक ले गए कि उसमें साम्यवाद के लिए कोई जगह ही नहीं बची. उनमें से कुछ को लगता है कि वाम मोर्चे की सत्ता में वापसी ‘जल्दी नहीं’ होने वाली, लेकिन आख़िरकार वो ‘जवाबी हमला’ ज़रूर करेगा. लेकिन ये कब और कैसे होगा, ये पूछने पर बंगाल कॉमरेड्स पर चुप्पी छा जाती है.

1952 के चुनावों के बाद पहली बार न सिर्फ सीपीआई(एम) नेतृत्व के वाम मोर्चे का न केवल सूपड़ा साफ हुआ है, बल्कि उसका वोट-शेयर भी 2011 के बाद से लगातार गिर रहा है, जब ममता बनर्जी ने मोर्चे को हटाकर, राज्य की सत्ता की कमान अपने हाथों में ली थी.

2011 में वाम मोर्चे ने 62 सीटें जीतीं थीं जो 2016 में गिरकर 32 रह गईं, जब उसने कांग्रेस के साथ गठजोड़ किया था. अब उसके पास कुछ नहीं है.

इसका वोट शेयर भी, जो 2011 में क़रीब 40 प्रतिशत था, 2016 में घटकर क़रीब 20 प्रतिशत रह गया. लेकिन 2021 के विधान सभा चुनावों में, मोर्चे को इस शर्मिंदगी का सामना करना पड़ा, कि उसका वोट शेयर सिर्फ 5 प्रतिशत रह गया.

पूर्व वाम मंत्री और सीपीआई(एम) के पुराने नेता, कांति गांगुली का कहना था, कि पार्टी को अपने अंदर झांकने की ज़रूरत है.

उन्होंने कहा, ‘पार्टी को आत्म-आलोचना और आत्म-मंथन करने की ज़रूरत है. ये सही है कि बंगाल के लोगों ने तृणमूल को चुना, चूंकि ये सांप्रदायिक फासीवादी ताक़तों के खिलाफ लड़ाई थी.’

उन्होंने आगे कहा, ‘लेकिन उन्होंने वाम दलों पर भरोसा क्यों नहीं किया? हम ज़मीनी स्तर तक नहीं पहुंच सके. पतन बहुत पहले शुरू हो गया था’. उन्होंने आगे कहा, ‘हम अपने काडर को तृणमूल की प्रताड़ना से नहीं बचा सके, इसलिए उनमें से कुछ बीजेपी में शामिल हो गए,और कुछ ने तृणमूल में पनाह ले ली. ज़मीनी स्तर पर हमारे संगठनों में कटाव हो गया’.

लेकिन, पार्टी की केंद्रीय समिति के एक वरिष्ठ सदस्य ने कहा, कि साम्यवादी राजनीति का कभी भी पूरी तरह सफाया नहीं होगा. ‘बंगाल में सीपीएम को नए सिरे से शुरूआत करनी है. साम्यवादी राजनीति या वाम विचारधारा कभी ख़त्म नहीं होगी’. उन्होंने आगे कहा, ‘लेकिन यहां पर राजनीतिक दल को फिर से काम शुरू करना होगा. जिन युवा उम्मीदवारों ने चुनाव लड़े, उन्हें आगे बढ़ाकर संगठन में बड़ी भूमिकाएं देनी होंगी. पार्टी को पुराने चेहरों से छुटकारा पाना होगा’.

उन्होंने आगे कहा, ‘युवा नेताओं को हमारे अतीत का बोझ नहीं ढोना पड़ेगा, जिसे मैं, बिमन दा (वाम मोर्चा अध्यक्ष बिमन बोस), या सूर्जया दा (प्रदेश सचिव सूर्जया कांत मिश्रा, बहुत समय से ढो रहे हैं’.

सीपीआई(एम) पोलित ब्यूरो ने वादा किया है, कि बंगाल में पार्टी के प्रदर्शन की, गंभीर समीक्षा की जाएगी.

5 मई को जारी एक बयान में उसने कहा, ‘सीपीआई(एम) और वाम दलों का प्रदर्शन, बहुत निराशाजनक रहा है’. बयान में आगे कहा गया, ‘बीजेपी को हराने की लोगों की इच्छा ने, बीजेपी और टीएमसी के बीच एक स्पष्ट ध्रुवीकरण कर दिया, जिससे संयुक्त मोर्चा बाहर हो गया. इससे सीख लेने के लिए पार्टी, गंभीरता के साथ इन नतीजों की, आत्म-आलोचनात्मक समीक्षा करेगी’.

‘सांप्रदायिक ताक़तों की लड़ाई’

वाम मोर्चे के बहुत से नेता अपने हाशिए पर चले जाने का कारण, पश्चिम बंगाल में राजनीति के ‘सांप्रदायीकरण’ को मानते हैं.

पूर्व वाममंत्री और सीपीआई(एम) के एक वरिष्ठ नेता अशोक भट्टाचार्य ने कहा कि उनकी पार्टी को तबाह करने की चाह में मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने ‘सांप्रदायिक बीजेपी’ को राज्य में बुला लिया.

उन्होंने आगे कहा, ‘जब राजनीति पर धर्म और जाति हावी हो जाएं, तो फिर साम्यवाद के लिए कोई जगह नहीं बचती’. उन्होंने आगे कहा, ‘नए चेहरे लाने के लिए पार्टी ने पुराने उम्मीदवारों को बाहर करने की कोशिश की. क़रीब 90 युवा उम्मीदवारों को टिकट दिए गए, लेकिन वो वोट नहीं खींच पाए. लेकिन, वाम राजनीति यहां ख़त्म नहीं हो जाएगी. वो फिर वापस आएगी, लेकिन नेताओं को लोगों का खोया हुआ विश्वास फिर से हासिल करना होगा’.

सीपीआई(एम) पोलित ब्यूरो के 80 वर्षीय सदस्य, हन्नान मुल्ला ने भी इस विचार का समर्थन किया कि दो सांप्रदायिक पार्टियों के बीच लड़ाई में, उनकी पार्टी हाशिए पर आ गई.

मुल्ला ने दिप्रिंट से कहा, ‘कम्यूनिस्ट पार्टी इस पहचान की राजनीति में फंसकर रह गई. राज्य में ये ध्रुवीकरण कई स्तर पर हुआ. हम हाशिए पर आकर रह गए’. उन्होंने आगे कहा, ‘बहुसंख्यक हिंदुओं ने बीजेपी को वोट दिया, जबकि अल्पसंख्यकों और धर्मनिर्पेक्ष लोगों का वोट तृणमूल कांग्रेस को गया. बल्कि हमारे सेक्युलर और अल्पसंख्यक वोट, एक साथ तृणमूल को चले गए’.

सीपीआई के संतोष राणा ने कहा, कि वाम मोर्चा ख़ुद भी राज्य में सांप्रदायिक सियासत को रोकने में नाकाम रहा.

उन्होंने कहा, ‘बंगाल में धार्मिक आधार पर पूरी तरह ध्रुवीकरण हो गया है. कम्यूनिस्टों के नाते, हम बीजेपी और तृणमूल दोनों की ओर से, इस ध्रुवीकरण को नहीं रोक पाए, क्योंकि ज़मीनी स्तर पर हमारा संगठन कमज़ोर हो गया’.

‘हम अपने काडर्स और लीडर्स का समर्थन नहीं कर पाए, जो पिछले दस साल में राजनीतिक हिंसा का शिकार बन गए. लेकिन मेरा मानना है कि हमारे कॉमरेड्स जवाबी हमला करेंगे. हम जल्दी ही सत्ता में वापस नहीं आ पाएंगे, लेकिन हम निश्चित रूप से बंगाल की राजनीतिक में, एक बड़ी ताक़त बनकर लौटेंगे’.


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‘जन मानस से जुड़ाव नहीं’

जहां वरिष्ठ सीपीआई(एम) नेता, ‘सांप्रदायिक और पहचान’ की राजनीति को ज़िम्मेदार मानते हैं, वहीं वाम मोर्चे के कुछ घटक दलों- क्रांतिकारी सोशलिस्ट पार्टी, फॉरवर्ड ब्लॉक और सीपीआई- के साम्यवादी नेताओं का कहना है, कि मोर्चे का मतदाताओं के साथ जुड़ाव ख़त्म हो गया है.

नेताओं का कहना है कि युवा वाम उम्मीदवार गांवों तक नहीं पहुंचे, और उन्होंने बंगाल की बदलती सामाजिक-आर्थिक स्थिति का अध्ययन नहीं किया.

फॉरवर्ड ब्लॉक के वरिष्ठ नेता नरेन चटर्जी ने कहा, ‘युवा चेहरे सोशल मीडिया पर सक्रिय हैं, लेकिन ज़मीन पर नहीं. नेता फेसबुक या ट्विटर के आधार पर, अपना जनाधार नहीं बना सकते; उन्हें इसे ज़मीन पर बनाना होगा’.

चटर्जी ने ये भी कहा कि मोर्चे ने धीरे धीरे अपना समर्थन खो दिया है.

उन्होंने आगे कहा, ‘हमने जंगलमहल जैसे जनजाति-बहुल, और मुर्शिदाबाद जैसे अल्प-संख्यक बहुल ज़िलों में, अपना जनाधार तृणमूल और बीजेपी के हाथों कैसे गंवा दिया? समर्थन का ये नुक़सान, एक रात में नहीं हो गया, ये नुक़सान पिछले 10 साल से हो रहा है. और हम इस रिसाव को नहीं रोक पाए’.

पूर्व आरएसपी सांसद महेंद्र रॉय का कहना था, कि तृणमूल की कैश स्कीमों और मुफ्त उपहारों ने, मतदाताओं को ‘मुफ्तख़ोर’ बना दिया था.

रॉय ने कहा, ‘तृणमूल कांग्रेस ने कोई वास्तविक रोज़गार पैदा नहीं किए, बल्कि युवाओं को संविदा कर्मचारियों के रूप में भर्ती किया, जिसमें कोई जॉब सिक्योरिटी नहीं होती. इसलिए पार्टी काडर ऐसे जॉब पा जाते हैं’. उन्होंने आगे कहा, ‘इनके अलावा, लोगों को सरकारी स्कीमों के ज़रिए पैसा मिलता है. ये फायदों का हस्तांतरण या विकास लाना नहीं है, बल्कि मुफ्त का पैसा और रिश्वत देना है. हमारे पास तृणमूल के ऐसे कामों का जवाब नहीं था’.

राजनीतिक विश्लेषक प्रोफेसर पार्था प्रतिम बिस्वास का कहना था, कि मोर्चे ने अपने गठबंधन में भी भारी ग़लती की.

बिस्वास ने कहा, ‘गठबंधन भ्रम में था. पहले तो उन्हें कांग्रेस के साथ गठजोड़ को लेकर भ्रम था. सीपीआई(एम) की राज्य इकाई गठबंधन चाहती थी, लेकिन उसका पोलित ब्यूरो और सेंट्रल कमेटी हर समय चर्चा में ही लगे हुए थे’. उन्होंने आगे कहा, ‘फिर चुनावों से कुछ पहले ही, मोर्चा आईएसएफ से मिल गया. ये एक राजनीतिक स्टार्ट-अप था, पहचान की राजनीति का एक और प्रतीक’.

बिस्वास ने ये भी कहा कि वाम मोर्चे को फिर से जीवित करने के लिए, ज़रूरत ये है कि ‘एक नया ढांचा और नए चेहरे सामने लाए जाएं, जैसा उसने 50 साल पहले किया था’.

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