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Sunday, 22 December, 2024
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कभी यूपी पर राज करने वाले मुलायम सिंह यादव अब चुनावी परिदृश्य से पूरी तरह गायब क्यों हैं?

समाजवादी पार्टी के मुखिया का दशकों तक राज्य की राजनीति में दबदबा रहा है. लेकिन यह लगातार दूसरा मौका है जब वह राज्य के चुनावी अभियान से बाहर हैं.

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सैफई, लखनऊ: उत्तर प्रदेश में आगामी विधानसभा चुनावों के लिए प्रचार अभी से तेजी पकड़ने लगा है, लेकिन इस सबके बीच सड़कों, रैलियों और अन्य चुनावी कार्यक्रमों में एक राजनीतिक दिग्गज की गैर-मौजूदगी को स्पष्ट तौर पर महसूस किया जा रहा है, और वो हैं 82 वर्षीय पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव.

समाजवादी पार्टी मुखिया का दशकों तक राज्य की राजनीति में दबदबा रहा है. लेकिन खराब स्वास्थ्य, कोविड महामारी और बेटे अखिलेश यादव के राजनीतिक उभार ने अब उन्हें लखनऊ स्थित अपने घर तक ही सीमित कर दिया है.

वह केवल सांकेतिक तौर पर सपा के चुनावी होर्डिंग पर नजर आ रहे हैं जो कि राज्य भर में लगाए जा चुके हैं.

नेताजी के नाम से ख्यात पूर्व मुख्यमंत्री के करीबी बताते हैं कि अप्रैल में उनका स्वास्थ्य बिगड़ गया था, लेकिन पिछले कुछ महीनों में इसमें सुधार हुआ है.

परिवार के एक विश्वस्त सहयोगी ने दिप्रिंट को बताया कि उसकी याददाश्त कमजोर पड़ रही है.

सहयोगी ने कहा, ‘वह अपनी जबर्दस्त याददाश्त के लिए चर्चित थे. एक बार आप का चेहरा देख लिया तो 30 साल बाद भी पहचान लेंगे. गांव के वोटर्स तक के नाम याद रहते थे.’

मुलायम सिंह के भाई शिवपाल यादव ने दिप्रिंट को बताया कि खराब स्वास्थ्य ने भी राजनीति के प्रति पूर्व मुख्यमंत्री के उत्साह को कम नहीं किया है.

शिवपाल के मुताबिक, मुलायम अक्सर उन्हें एक रैली आयोजित करने को कहते हैं ताकि वह पार्टी कार्यकर्ताओं को संबोधित कर सकें.

उन्होंने कहा, ‘मैं पूछ लेता हूं कई बार कि किसलिए रैली करूं? तो वो कहेंगे की पार्टी कार्यकर्ताओं से बात करनी है. फिर मैं पूछता हूं कि मेरी पार्टी के कार्यकर्ताओं से या अखिलेश की पार्टी से? तो वो पूछ बैठते हैं कि तुमने पार्टी बना ली? फिर मैं बताता हूं कि कई साल हो गए.’

कभी मुलायम के दाहिने हाथ रहे शिवपाल की अखिलेश यादव के साथ नहीं पटी थी और अब वह अपनी अलग पार्टी प्रगतिशील समाजवादी पार्टी (लोहिया) का नेतृत्व करते हैं. हालांकि, वह लखनऊ में मुलायम के घर से कुछ ही दूरी पर रहते हैं.

शिवपाल ने दिप्रिंट को बताया कि पूर्व मुख्यमंत्री चाहते हैं कि परिवार फिर एक हो जाए.

शिवपाल कहते हैं, ‘नेताजी को इस हालत में देखकर बुरा तो लगता है. बाहर के लोगो को अब पहचानना बंद कर दिया है. जो चीजें याद रहती हैं, वो पूछ लेते हैं. पार्टी के पुराने दिनों की बहुत याद करते हैं. उनकी दिल तो चाहता है कि एक बार फिर से परिवार जुड़ जाए.

मुलायम के अन्य भाइयों में से एक अभय राम यादव ने भी इस बात का समर्थन किया. मुलायम के ये भाई राजनीति से दूर रहे हैं और इसके बजाये सैफई स्थित पैतृक गांव में खेती करते हैं.

अभय राम यादव ने दिप्रिंट को बताया, ‘भाइयों में तो प्रेम रहेगा ही. नई पीढ़ी जो है वो अपने हिसाब से चलेगी. हमने और नेताजी ने तो बहुत समझाया.’

एक अन्य करीबी सहयोगी ने भी कहा कि वह परिवार को फिर से मिलाने की कोशिश कर रहे हैं. सहयोगी ने कहा, ‘वह हमेशा अखिलेश भैया और शिवपालजी से मिलने के लिए उत्सुक रहते हैं. दोनों अक्सर ही उनसे मिलने पहुंचते हैं. कभी-कभी, तो एक ही समय पर वहां पहुंच जाते हैं. इससे वह बहुत खुश हो जाते हैं.’

लोगों की यादों में बसे हैं नेताजी

यह लगातार दूसरा विधानसभा चुनाव है जब पूर्व मुख्यमंत्री चुनावी परिदृश्य से बाहर हैं—‘मुलायम के बिना’ पहला चुनाव 2017 में हुआ था.

हालांकि, तब तक अखिलेश ने 2012 से मुख्यमंत्री के तौर पर कार्य करते हुए पार्टी पर अपनी पकड़ मजबूत कर ली थी.

सत्ता परिवर्तन का असर लखनऊ में साफ नजर आ रहा है.

लखनऊ में सपा मुख्यालय के सामने स्थित मुलायम के नए घर में कोई भीड़भाड़ नहीं दिखती है—जहां स्थिति बंगला नंबर 5 के गहमागहमी वाले दिनों से बहुत अलग है, जो पहले उनका आवास हुआ करता था और सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद उन्हें 2018 में वहां से हटना पड़ा था.

कुछ सालों से मुलायम का पार्टी कार्यालय का दौरा भी महीने में एक-आध बार ही होता है.


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परिवार के एक करीबी सदस्य ने नाम न बताने की शर्त पर कहा, ‘वह सुबह जल्दी उठते थे और पार्टी कार्यकर्ताओं से मिलने के लिए बहुत उत्सुक रहते थे. अब, ज्यादातर समय वह नींद से भरे होने जैसा महसूस करते हैं क्योंकि वह दवाओं पर है.’

परिवारिक सदस्य के मुताबिक, मुलायम दोपहर में देर से उठते हैं, चाय पीते हैं और थोड़ी बातें करते हैं. जब भी अच्छा महसूस कर रहे होते हैं तो केवल नियुक्तियों को मंजूरी देते हैं.

हालांकि, सुर्खियों से दूर होने के बावजूद लोगों ने अपने समय के इस दिग्गज नेता को भुलाया नहीं है, खासकर उनके पैतृक गांव सैफई में, जहां लोगों के पास मुलायम से जुड़े किस्सों की कोई कमी नहीं है.

कभी पिछड़ा गांव रहा सैफई अब उपयुक्त चिकित्सा सुविधाओं के साथ और विस्तारित यादव परिवार की पॉश कोठियों में गहमागहमी वाला एक कस्बा बन चुका है.

मैनपुरी जिले में सपा के सदस्य राम नारायण भाटम ने दिप्रिंट को बताया, ‘एक बार मैंने उनसे अपने घर चलने का अनुरोध किया तो नेताजी बोले चलो, हमने कहा कि भैया को भी ले चलते है. तो लगा कि उन्हें थोड़ा अच्छा नहीं लगा.’

मैनपुरी के एक अन्य सपा कार्यकर्ता का कहना है कि आज की राजनीति में मुलायम का कद बेजोड़ है.

कार्यकर्ता ने कहा, ‘भारत की राजनीति में दो ही राजनेताओं को नेताजी की उपाधी मिली है. एक सुभाष चंद्र बोस और दूसरे हमारे नेताजी.’

कार्यलय में बैठे एक अन्य सपा कार्यकर्ता ने कहा कि अगर राजद प्रमुख लालू प्रसाद यादव नहीं होते तो मुलायम प्रधानमंत्री बन जाते. कार्यकर्ता ने कहा, ‘वो तो लालूजी बदमाशी कर दिए, नहीं तो प्रधानमंत्री भी बन जाते.’

पहलवान राजनेता

मुलायम एक पहलवान थे, जिन्होंने 1967 में संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के टिकट पर जसवंतनगर की यादव बहुल सीट जीतकर भारतीय राजनीति में कदम रखा था.

भाई अभय राम यादव ने बताया कि मुलायम सिंह के कुश्ती कौशल ने उन्हें टिकट दिलाया था क्योंकि जसवंतनगर से तत्कालीन सोशलिस्ट पार्टी के विधायक नाथू सिंह यादव उनकी कुश्ती के ही कायल हो गए थे.

अभय राम यादव ने कहा, ‘जहां जाते थे, कुश्ती में जीतकर ही आते थे. नाथू सिंह यादव जसवंतनगर के विधायक थे, जिन्हें मुलायम की कुश्ती इतनी पसंद आई कि उन्होंने अपने सीट तक छोड़ दी.’

तब से उन्होंने तीन बार यूपी के मुख्यमंत्री की कुर्सी संभाली और देश के रक्षा मंत्री के रूप में भी कार्य किया.

यूपी में 80 और 90 के दशक में पिछड़ी जाति की राजनीति में मुलायम का उदय हुआ. पिछड़ी जातियां राज्य के ग्रामीण क्षेत्रों में काफी असरदार थीं, लेकिन उनके पास सही मायने में कोई राजनीतिक ताकत नहीं थी.

यह सारी तस्वीर 1989 में बदल गई, जब प्रधानमंत्री वी.पी. सिंह ने मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू किया और अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के लिए आरक्षण की शुरुआत की. मुलायम भी राम मनोहर लोहिया और चौधरी चरण सिंह की राजनीति को भुनाने में कामयाब रहे. लोहिया की समाजवादी राजनीति, चरण सिंह की किसान राजनीति और वी.पी. सिंह की पिछड़ा वर्ग जाति की राजनीति को ही आधार बनाकर उन्होंने चुनाव मैदान में कदम रखा.

1992 में मुलायम सिंह यादव ने समाजवादी पार्टी की शुरुआत की, जिसके साथ ही यादव परिवार उत्तर प्रदेश में सबसे बड़ा राजनीतिक कुनबा बन गया.

2016 तक सब कुछ ठीकठाक चलता रहा, जब अपने बेटे को पार्टी से निकालने से पहले सपा की एक बैठक में मुलायम ने दहाड़ते हुए कहा था, ‘जो लड़के अखिलेश भैया, अखिलेश भैया कर रहे हैं, एक लाठी तक नहीं झेलेंगे. पार्टी को इस स्तर तक लाने के लिए हमने खूब लठियां खाई हैं. जो आदमी बड़ा नहीं सोच सकता वो नेता नहीं बन सकता.’

सपा में जब बंटवारे की लड़ाई चरम पर थी तब मुलायम ने शिवपाल का साथ दिया.

हालांकि, अखिलेश पार्टी पर अपनी पकड़ बनाए रखने में कामयाब रहे और अब यह पूरी तरह उनके नियंत्रण में हैं. लेकिन उनके और चाचा शिवपाल के बीच झगड़े ने परिवार को तोड़ दिया है.

दो अलग राजनीतिक खेमों के बावजूद दोनों पारिवारिक कार्यक्रमों में शामिल होते रहते हैं और कई मौकों पर एक मंच भी साझा करते हैं.

लेकिन परिवार में दो पॉवर सेंटर बन गए हैं- एक अखिलेश और परिवार के प्रति निष्ठावान प्रोफेसर राम गोपाल यादव का और दूसरा शिवपाल यादव का.

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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