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Friday, 20 December, 2024
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क्यों राजीव गांधी के हत्यारों को सुप्रीम कोर्ट से मिली रिहाई का विरोध कर रही है मोदी सरकार

पिछले 11 नवंबर को सुप्रीम कोर्ट ने पूर्व प्रधान मंत्री राजीव गांधी की साल 1991 की गई हत्या के सिलसिले में आजीवन कारावास की सजा काट रहे 6 दोषियों की शेष सजा माफ़ किए जाने का आदेश दिया था.

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नई दिल्ली: पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की हत्या के मामले में उम्रकैद की सजा काट रहे छह दोषियों की सजा माफ़ करने के सुप्रीम कोर्ट के 11 नवंबर के आदेश के खिलाफ केंद्र सरकार ने गुरुवार को इस फैसले की समीक्षा की अपील की कि इसे लिए जाने से पहले उसका पक्ष नहीं सुना गया.

सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश को ‘न्याय की हत्या’ करार देते हुए, केंद्र सरकार ने तर्क दिया कि जिन छह लोगों की सजा माफ कर दी गई है, उन्हें इस मामले में एक अन्य दोषी, एजी पेरारिवलन,  के सामान नहीं माना जा सकता है, जिसे एससी ने मई में ही रिहा कर दिया था.

उस समय सुप्रीम कोर्ट ने इस तथ्य पर ध्यान दिया था कि पेरारीवलन ने साल 2015 में तमिलनाडु के राज्यपाल के समक्ष एक क्षमादान याचिका दायर की थी और राज्य मंत्रिमंडल ने भी सितंबर 2018 में राज्य के प्रमुख (राज्यपाल) को इसे स्वीकार करने की सलाह दे दी थी. लेकिन मंत्रिपरिषद की सलाह के ‘बाध्यकारी’ होने के बावजूद, राज्यपाल ने इस याचिका को विचार के लिए राष्ट्रपति के पास भेज दिया था, जिसके नतीजा यह हुआ कि उसकी दया याचिका पर निर्णय लेने में अत्यधिक देरी हुई.

सुप्रीम कोर्ट अब संविधान के अनुच्छेद 137 के तहत अपने पिछले सप्ताह के आदेश की समीक्षा करेगा, जो न्यायालय (सिर्फ सुप्रीम कोर्ट या किसी भी अन्य अदालत) को अपने स्वयं के निर्णय की समीक्षा करने की अनुमति देता है.

इस बीच, कांग्रेस ने सुप्रीम कोर्ट में मोदी सरकार द्वारा समीक्षा अपील दायर किए जाने की आलोचना करते हुए कहा कि ‘सरकार देर से जागी है.’

बता दें कि मई 1991 में तमिलनाडु के श्रीपेरुमबुदुर शहर में चुनाव प्रचार के दौरान लिबरेशन टाइगर्स ऑफ़ तमिल ईलम (लिट्टे) के सदस्यों द्वारा राजीव गांधी की हत्या कर दी गई थी.

जहां इस हमले में आत्मघाती हमलावर के रूप में प्रयुक्त महिला मारी गयी थी, वहीं इस मामले में आरोपित सात लोगों – नलिनी, रविचंद्रन, संथन, मुरुगन, रॉबर्ट पायस और जयकुमार और पेरारिवलन – को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई थी. हालांकि, इन सात में से चार को शुरू में मौत की सजा सुनाई गई थी, पर बाद में इसे उम्रकैद में तब्दील दिया गया था.

इस साल मई में पेरारीवलन की रिहाई के बाद, नलिनी और रविचंद्रन ने इसी तरह की राहत की मांग करते हुए मद्रास हाई कोर्ट का दरवाजा खटखटाया. हालांकि, हाई कोर्ट ने उनकी याचिका पर सुनवाई करते हुए कहा था कि उसके पास एससी की तरह विशेष अधिकार नहीं हैं, और याचिकाकर्ताओं को सुप्रीम कोर्ट से संपर्क करना चाहिए.

सुप्रीम कोर्ट के आदेश के खिलाफ केंद्र सरकार द्वारा उठाए गए मुद्दों पर दिप्रिंट ने भी एक नजर डाली है.


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प्रक्रियात्मक खामियां और प्राकृतिक न्याय 

यह दलील देते हुए कि केंद्र सरकार को इस याचिका का विरोध करने के लिए ‘पर्याप्त अवसर’ प्रदान किए बिना ही माफ़ी का आदेश पारित कर दिया गया था, केंद्र सरकार ने कहा कि यह मुकदमेबाजी के लिए एक आवश्यक पक्ष था.

सरकार ने यह भी दावा किया कि अदालत ने याचिकाकर्ताओं को उसे (केंद्र सरकार) इस विवाद में पक्षकार बनाने का निर्देश दिया था, लेकिन इस संबंध में उसके पास कोई आवेदन दायर नहीं किया गया था.

सरकार ने निवेदित किया कि यह याचिकाकर्ताओं की ओर से की गई एक ‘प्रक्रियात्मक चूक’ थी, जिसके कारण सरकार की तरफ (क़ानूनी) सहायता नहीं मिल पाई. इसमें कहा गया है कि मामले के महत्वपूर्ण तथ्य जो सरकार के पास थे, पेश ही नहीं किए गए, जिससे अदालत के फैसले में गलतियां सामने आईं.

सरकार ने बताया, ‘मामले की जड़ में जाने के लिए जरूरी इस तरह के महत्वपूर्ण तथ्यों के पेश न किए जाने के परिणामस्वरूप माननीय न्यायालय द्वारा पारित अंतिम निर्णय में स्पष्ट रूप से दिखाई दे रहीं गलतियां हो गई हैं.’

इसमें कहा गया है कि चूंकि केंद्र सरकार अदालत के समक्ष अपना पक्ष पेश नहीं कर सकी, इसीलिए यह प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत का उल्लंघन है, जिससे न्याय का हनन होता है.


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दोनों मामलों में कोई समानता नहीं, फैसले का अंतर्राष्ट्रीय प्रभाव

केंद्र सरकार ने यह भी कहा है कि जिन छह दोषियों की सजा पिछले सप्ताह कम कर दी गई, उनमें से चार श्रीलंकाई नागरिक हैं और ऐसे आतंकवादी अपराधियों की सजा निलंबित करना जो विदेशी नागरिक हैं, के अंतर्राष्ट्रीय प्रभाव होते हैं, जिसके दूरगामी परिणाम संघ के दायरे में आते हैं.

केंद्र सरकार ने अपनी समीक्षा याचिका में कहा है, ‘यह निवेदित किया जाता है कि इस तरह के एक संवेदनशील मामले में भारत संघ की (क़ानूनी) सहायता सर्वोपरि थी, क्योंकि इस मामले का देश की सार्वजनिक व्यवस्था, शांति, और आपराधिक न्याय प्रणाली पर भारी प्रभाव पड़ता है.’

इस मामले में पेरारिवलन के मामले पर निर्भर करने का विरोध करते हुए सरकार ने पेरारिवलन के विपरीत इन छह अपीलकर्ताओं में से अधिकांश के विदेशी नागरिक होने का मुद्दा उठाया, और यह भी कहा कि इस हत्या में उनकी भूमिका पेरारिवलन की तुलना में ‘काफी अलग और अधिक गंभीर’ थी.

केंद्र सरकार ने इस मामले की सुनवाई चैम्बर्स – जिसे अधिक गोपनीय माना जाता है –  में किए जाने के बजाय ‘खुली सुनवाई’ के लिए भी अनुरोध किया. सुप्रीम के नियमों के अनुसार किसी समीक्षा याचिका पर न्यायाधीशों द्वारा बारी-बारी से चैम्बर्स में वकीलों की गैर-मौजूदगी में सुनवाई की जाती है, लेकिन असाधारण परिस्थितियों में अदालत किसी समीक्षा याचिका पर खुली सुनवाई भी कर सकती है.

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(अनुवाद: रामलाल खन्ना)

(संपादन: हिना फ़ातिमा)


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