नई दिल्ली: समाजवादी पार्टी (सपा) की नेता मारिया आलम की इंडिया ब्लॉक रैली में मुसलमानों से भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के खिलाफ ‘वोट जिहाद’ छेड़ने का विवादास्पद आह्वान हिंदू दक्षिणपंथी प्रेस में बहुत सारी टिप्पणियों का आधार बन गया.
इस भाषण का हवाला देते हुए ऑर्गनाइज़र के संपादक प्रफुल्ल केतकर ने लिखा कि मुस्लिम समुदाय ने ऐतिहासिक रूप से राजनीतिक परिणामों को प्रभावित करने के लिए धार्मिक प्रभाव का इस्तेमाल किया है, लेकिन अब समय आ गया है कि वो इस ट्रेंड पर “विश्लेषण और आत्मनिरीक्षण” करें. 13 मई के संपादकीय में उन्होंने मुसलमानों से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की बात पर ध्यान देने के लिए कहा कि “वह अपने बच्चों के भविष्य की खातिर ‘किसे सत्ता में रखें और किसे हटाएं’ की मानसिकता से बाहर निकलें”.
अपने तर्क को मजबूत करने के लिए केतकर ने राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आरएसएस) के दूसरे सरसंघचालक एमएस गोलवलकर का हवाला दिया, जिन्होंने मुसलमानों से “अपनी सभी अलगाववादी यादों को भूल जाने” और “खुद को इस मिट्टी के जीवन में विलय करने” की अपील की थी.
केतकर के अनुसार, गोलवलकर ने दावा किया कि मुसलमान “हमारे जैसे ही नस्ल और खून के हैं”, लेकिन मुगल, तुर्क और अन्य विदेशी आक्रमणकारियों द्वारा तलवार की नोक पर उन्हें इस्लाम कुबूल करवा दिया गया और अंततः “मानसिक रूप से खुद को हमलावरों के साथ मिला लिया”.
अपने संपादकीय में केतकर ने मुसलमानों को “यहूदी बस्ती की राजनीति” में फंसाए रखने के लिए “उदार धर्मनिरपेक्षों” को दोषी ठहराया.
उन्होंने लिखा, “मुसलमानों को यह एहसास दिलाने के बजाय कि वे इस देश में बाहरी या हमलावर नहीं हैं, बल्कि 712 के बाद से अरबों, तुर्कों और मंगोलों द्वारा किए गए आक्रमणों के शिकार हैं, उदारवादियों का यह स्व-प्रमाणित गिरोह आक्रमणकारियों का महिमामंडन करके और उनके अपराधों पर पर्दा डालकर इतिहास को विकृत कर रहा है.”
उन्होंने तर्क दिया, इस “उदार-धर्मनिरपेक्ष विश्वासघात” के सबसे बड़े लाभार्थी कट्टरपंथी हैं जो भावनात्मक मुद्दों और इस्लामिक पहचान पर बड़े पैमाने पर जनता की भावनाओं के साथ खेलने की कोशिश करते हैं. उन्होंने आगे कहा, इस समूह का मानना है कि यह उनका “ईश्वरीय कर्तव्य” है कि “जनसांख्यिकी के उपयोग से अंततः सभी पर शरिया कानून लागू करके लोकतंत्र को नष्ट कर दिया जाए”.
उन्होंने कहा कि “वोट जिहाद” की रणनीति “फलदायी” लग सकती है, लेकिन यह केवल मुसलमानों को मुख्यधारा के विकास से अलग करती है. यह स्वीकार करते हुए कि पूजा के विभिन्न तरीकों को नष्ट करना वांछनीय नहीं है, केतकर ने कहा कि गोवलकर का मुसलमानों के “व्यावहारिक जीवन में राष्ट्र के साथ एकीकरण” का आह्वान देश और मानवता दोनों के लिए बेहतर होगा.
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सैम पित्रोदा का ‘फूट डालो और राज करो’ वाला बयान
आरएसएस के मुखपत्र पाञ्चजन्य में 19 मई को हिंदी में लिखे एक लेख में तर्क दिया गया कि कांग्रेस नेता सैम पित्रोदा का बयान, जिसमें देश के विभिन्न हिस्सों के भारतीयों की तुलना चीनी, अरब, गोरे और अफ्रीकियों से की गई थी, फूट डालो और राज करो की ब्रिटिश नीति से प्रेरित प्रतीत होता है, जो अंततः विभाजन का कारण बनी.
लेख में कहा गया, “अंग्रेज़ों द्वारा अपने ‘फूट डालो और राज करो’ सिद्धांत में उठाए गए बिंदु वही हैं जो पित्रोदा के बयान में थे कि अंग्रेज़ों ने सबसे पहले आर्यों को आक्रमणकारी घोषित किया और उन्हें यूरोपीय नस्ल से जोड़ा. इसके अलावा, उन्होंने दक्षिण भारत को उत्तर भारत से अलग बताया और वनवासियों को अफ्रीकी जाति से जोड़ा.”
पाञ्चजन्य के अनुसार, अंग्रेज़ों ने जाति, पंथ और धर्म के आधार पर रेजिमेंट बनाकर और जेल मैनुअल बनाकर जानबूझकर भारत में सामाजिक विभाजन को गहरा किया.
इसमें पंजाब रेजिमेंट और सिख रेजिमेंट, राजस्थान रेजिमेंट और राजपूताना राइफल्स और मराठा रेजिमेंट और महार रेजिमेंट का उदाहरण देते हुए कहा गया, “अधिकांश प्रांतों में दो रेजिमेंट बनाई गईं. अंग्रेज़ों ने मुस्लिम रेजिमेंट भी संप्रदाय या पंथ के आधार पर बनाई थी.”
पाञ्चजन्य के अनुसार, पित्रोदा का बयान पूरी तरह से “अंग्रेज़ी साजिश और वामपंथी कुतर्क” का प्रतिबिंब था.
लेख में कहा गया है, “एक बार फिर यह साबित हो गया है कि अंग्रेज़ भले ही भारत छोड़कर चले गए, लेकिन उनकी रीति-नीति को मानने वाले लोग अब भी भारत में हैं. वे पूरी ताकत से ब्रिटिश संस्कृति का पालन कर रहे हैं और भारतीय नीतियों को अंग्रेज़ी रंग दे रहे हैं.”
‘मुस्लिम आरक्षण’
पाञ्चजन्य में संपादक हितेश शंकर के 12 मई के एक लेख में तर्क दिया गया है कि भाजपा द्वारा संविधान को बदलने का लक्ष्य रखने के बारे में विपक्षी इंडिया गठबंधन के दावे महज़ प्रचार हैं और यह सच में कांग्रेस है जिसने पहले मुसलमानों को असंवैधानिक रूप से धर्म-आधारित आरक्षण देने की कोशिश की थी.
शंकर ने आरोप लगाया, “अब एक बार फिर कांग्रेस और लालू यादव इस चुनाव में मुस्लिम आरक्षण का वादा कर रहे हैं. वो केवल मुसलमानों को अल्पसंख्यक मानते हैं. जैन, बौद्ध, सिख, पारसी आदि उनके लिए अल्पसंख्यक नहीं हैं, इसलिए कोई भी समझ सकता है कि उनका एजेंडा क्या है.”
लेख में कहा गया है कि संविधान को बदले बिना ऐसा “सांप्रदायिक आरक्षण” लागू नहीं किया जा सकता है.
इसमें कहा गया, “क्या संविधान में बदलाव किए बिना आरक्षण की सीमा 50 प्रतिशत से अधिक बढ़ाई जा सकती है? फिर वो जो कह रहे हैं वह बाबा साहेब आंबेडकर द्वारा निर्धारित प्रावधानों का उल्लंघन है.”
लेख में पीएम मोदी द्वारा अक्सर कही जाने वाली एक बात को दोहराया गया है, जिसमें दावा किया गया है कि कांग्रेस ने कई मौकों पर जातिगत आरक्षण में सेंध लगाकर मुसलमानों को आरक्षण देने की कोशिश की है और अगर वो सत्ता में आती है तो इस एजेंडे का पालन करने की योजना बना रही है.
हालांकि, कांग्रेस के घोषणापत्र में धर्म आधारित आरक्षण का ज़िक्र नहीं है. इसमें केवल इतना कहा गया है कि यह “अनुसूचित जाति (एससी), अनुसूचित जनजाति (एसटी) और अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के लिए आरक्षण पर 50 प्रतिशत की सीमा बढ़ाने के लिए एक संवैधानिक संशोधन पारित करेगा.”
मुसलमान ‘ज़्यादा वोट क्यों देते हैं’
भारतीयों को ब्रिटेन में “इस्लामी कट्टरपंथियों” द्वारा शरिया कानून लागू करने की मांग से सावधान रहना चाहिए, जैसा कि ऑर्गनाइज़र में रवि मिश्रा की 12 मई की ‘विशेष रिपोर्ट’ में बताया गया है.
मिश्रा ने लिखा, “कई दशकों से लंदन शांतिपूर्ण रहा है क्योंकि यह स्थानीय लोगों के नियंत्रण में था. हालांकि, प्रवासी इस्लामी कट्टरपंथियों द्वारा अपराध और बलात्कार की घटनाओं में वृद्धि के कारण शहर में अव्यवस्था है. देश में शरिया कानून लागू करने की मांग और समर्थन भी बढ़ रहा है. यहां तक कि हर साल हज़ारों मुसलमान विवादों को निपटाने के लिए शरिया का इस्तेमाल कर रहे हैं.”
लेख में दावा किया गया कि “सबसे दिलचस्प तथ्य” यह था कि जो लोग यूरोप में शरिया कानून की मांग कर रहे थे, उन्होंने सबसे अधिक मतदान दर्ज किया.
उन्होंने कहा, “उनका उद्देश्य लोकतंत्र के सम्मान के लिए नहीं है, बल्कि इस्लाम विरोधी सरकार को गिराना और मुस्लिम समर्थक सरकार लाना है.”
मारिया आलम, जो कांग्रेस नेता सलमान खुर्शीद की भतीजी हैं, के ‘वोट जिहाद’ बयान का हवाला देते हुए लेख में चेतावनी दी गई कि “भारत” भी इसी तरह की घेराबंदी में है.
इसमें उच्च मतदान प्रतिशत वाली मुस्लिम बहुल सीटों की ओर इशारा करते हुए कहा गया है, “भारत में मुसलमानों के एक बड़े वर्ग ने सभी विकासात्मक योजनाओं का लाभ उठाने के बावजूद केवल भारतीय जनता पार्टी को हराने के लिए वोट दिया. 2014 में धुबरी में मतदान प्रतिशत 88.36 था, जो 2019 में बढ़कर 90.66 प्रतिशत हो गया. बिहार में मुस्लिम बहुल लोकसभा सीटों पर उच्च मतदान की समान प्रवृत्ति है. उत्तर प्रदेश की सभी 80 सीटों में से 17वीं लोकसभा में दानिश अली द्वारा प्रतिनिधित्व की गई अमरोहा सीट 71 प्रतिशत वोट के साथ मतदान में शीर्ष पर रही.”
इस साल की शुरुआत में नस्लवाद विरोधी वकालत समूह होप नॉट हेट द्वारा कंजर्वेटिव पार्टी के सदस्यों के एक सर्वेक्षण में पाया गया कि आधे से अधिक लोग मानते थे कि यूरोपीय शहरों के कुछ हिस्से शरिया कानून के तहत हैं. हालांकि, जबकि शरिया परिषदें यूके जैसे देशों में काम करती हैं, उनके पास कोई कानूनी शक्ति नहीं है और वे केवल इस्लामी कानून के तहत तलाक और मध्यस्थता जैसे मामलों को संभालती हैं.
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